अणुव्रत का प्रारंभ आचार्य तुलसी (तेरापंथ धर्म संघ के नोवें आचार्य) द्वारा 1 मार्च 1949 में राजस्थान के सरदारशहर कस्बे में हुआ। उस समय एक और देश सांप्रदायिक ज्वाला में जल रहा था, वहां दूसरी और सभी प्रमुख लोग देश के भौतिक निर्माण में विशेष अभिरूचि ले रहे थे | अणुव्रत आन्दोलन ने सांप्रदायिक सौहार्द के लिए सभी धर्म-सम्प्रदाय के प्रमुख -पुरुषों को एक मंच पर लाकर यह समझाने की कौशिश की गयी कि धर्म के मौलिक सिदान्त एक हैं। जो भिन्नता दिखाई दे रही है वह या तो एकांत आग्रह कि देन है या फिर सांप्रदायिक स्वार्थों के कारण उसे उभरा जा रहा है। इस द्रष्टि से विशाल सर्व धर्म सदभाव सम्मलेन आयोजित किये गए और अणुव्रत का मंच एक सर्वधर्म सदभाव का प्रतिक बन गया। भारतीय धर्म सम्प्रदायों के अतिरिक्त इसाई तथा मुसलमान सम्प्रदायों के साथ भी एक सार्थक संवाद बना और अनेक ईसाई तथा मुसलमान लोगों ने भी अणुव्रत के प्रचार-प्रसार में रूचि दिखाई। जगद्गुरु शंकराचार्य, दलाई लामा, ईसाई पादरी, मुसलमान संतो ने भी इसमें भाग लिया।
आचार्य तुलसी द्वारा अणुव्रत : आचार संहिता बनाई गयी जो 68 वर्ष पूर्व भविष्य को देखकर जो अणुव्रत : आचार संहिता बनाई वह आज वर्तमान मे देखा जाए सबसे जरूरी है ! ......
मैं किसी भी निरपराध प्राणी का संकल्पुर्वक वध नहीं करूँगा |
आत्म हत्या नहीं करूँगा |
भ्रूण हत्या नहीं करूँगा |
मैं आक्रमण नहीं करूँगा |
आक्रामक नीति का समर्थन नहीं करूँगा |
विश्व शांति तथा निःशस्त्रीकरण के लिए प्रयत्न करूँगा |
मैं हिंसात्मक एवं तोड़-फोड़ -मूलक परवर्तियों में भाग नहीं लूँगा |
मैं मानवीय एकता में विश्वास करूँगा |
जाती, रंग आदि के आधार पर किसी को उंच-नीच नहीं मानूंगा |
अस्पर्श्यता नहीं मानूंगा |
मैं धार्मिक सहिष्णुता रखूँगा |
सांप्रदायिक उतेजना नहीं फेलाऊंगा|
मैं व्यवसाय और व्यवहार में प्रामाणिक रहूँगा|
अपने लाभ के लिए दूसरों को हानि नहीं पहुंचाउंगा |
छलनापूर्ण व्यवहार नहीं करूँगा |
मैं ब्रह्मचर्य की साधना और संग्रह की सीमा का निर्धारण करूँगा |
मैं चुनाव के संबध में अनैतिक आचरण नहीं करूँगा |
मैं सामजिक कुरुढीयों को प्रश्रय नहीं दूंगा |
मैं व्यसन मुक्त जीवन जियूगा |
मादक पदार्थों का ---शराब, गंजा, चरस, हेरोइन, भांग, तंबाकू आदि का सेवन नहीं करूँगा |
मैं पर्यावरण की समस्या के प्रति जागरूक रहूँगा|
हरे-भरे वृक्ष नहीं काटूँगा|
पानी, बिजली, आदि का अपव्यय नहीं करूँगा |(अणुव्रती के लिए सम्बंधित वर्गीय अणु व्रतों का पालन अनिवार्य है)
अणुव्रत आंदोलन के प्रहरी व अणुव्रत अनुशास्ता आचार्य तुलसी द्वारा प्रतिपादित नैतिक मूल्यों से ओत प्रोत जाती सम्प्रदाय से मुक्त छोटे छोटे नियमो से आम जन में कैसे नैतिकता का विकास हो जीवन के नैतिक मूल्यों के हास्य को बचाया जा सके इसके लिये इसकी स्थापना की । साधुओं के व्रत को यदि उत्कृष्ट मार्ग कहा जाए और हिंसा व बुराईयों के मार्ग को अधम मार्ग कहा जाए तो इन दोनों मार्गों पर न चल पाने वाले मानवों के जीवन के लिए अणुव्रत का मध्यम मार्ग बनता है। साधुओं के पांच महाव्रत होते हैं, जिनका पालन साधारण मानव के लिए मुश्किल हो सकता है और आदमी पूर्णतया अधम का मार्ग भी नहीं अपना सकता तो उसके लिए अणुव्रत एक ऐसा माध्यम है जो उसके जीवन को सुख, शांति व समृद्धि की ओर ले जाता है। इसकी एक आदर्श आचार संहिता बनाई आचार्य तुलसी ने। उन्होंने इसका शुभारंभ इस आधार पर किया कि अणुव्रत के नियमों का पालन करने वाले के लिए किसी जाति, धर्म व संप्रदाय का होने कोई मायने नहीं रखता। यहां तक कि जिस व्यक्ति को किसी भी धर्म में आस्था ना हो, वह नास्तिक हो तो अणुव्रत का अनुपालन कर सकता है।आचार्य तुलसी ने अणुव्रत के रूप में एक दीपक जलाया जो आज हजारों दीपकों को जला मानव जीवन को अंधकार से दूर करने का काम कर रहा है। आज आदमी के जीवन में हिंसा, लोभ, मोह, गुस्सा आदि का जो अंधकार फैला हुआ है उसे इस अणुव्रत के छोटे-छोटे नियम से दूर भगाया जा सकता है। सभी नियम एक दीए के समान हैं जो मानव जीवन को प्रकाशित करने का काम कर रहे हैं। जीवन के अंधकार को दूर करने के लिए अणुव्रत की दीप मालाएं सभी को जलानी होगी। अणुव्रत के आधार के तीन संकल्प सद्भावना, नैतिकता व नशामुक्ति में अणुव्रत का सार समाहित हो गया है। क्योंकि हिंसा, चोरी, गुस्सा आदि ही तो आदमी की जीवन की सभी बुराईयों का जड़ है। इन बुराइयों को ही समाप्त करने के लिए अणुव्रत का शुभारंभ हुआ तथा अणुव्रत का सार बन गया सद्भावना, नैतिकता व नशामुक्ति। आचार्य श्री तुलसी के बाद अणुव्रत को जन-जन तक पहुंचाने के लिए आचार्य महाप्रज्ञ जी ने राजस्थान से कन्याकुमारी व राजस्थान से कोलकाता सहित देश के कई राज्यों का भ्रमण कर लोगों में इस दीप प्रज्जवलित किया। अणुव्रत की आवश्यकता इसलिए हुई क्योंकि इस कलियुग में आज हर व्यक्ति में त्याग की चेतना की जगह भोग चेतना, पदार्थ चेतना, स्वार्थ चेतना ही घर कर रही है। व्यक्ति अपने मूल उद्देश्य से भटकता जा रहा है। भारत की आजादी के बाद तो धर्म और देश ती परिस्थितियां काफी बदल चुकी है। देखा जाये तो पूर्व पश्चिम में समा रहा है तो पश्चिम पूरब की तरफ आ रहा है। सभी सुख चाहते है। सुख तो कही भी मिल सकता है। लेकिन लोगों में उसे खोजने का तरीका अलग-अलग है। लोग स्वार्थ में, पदार्थ में या भोग में सुख की खोज करते है जबकि परम सुख है अणुव्रत और संयम। अणुव्रत के नियमों का पालन करके चरित्र निर्माण किया जा सकता है।
जिस देश के नागरिकों का चरित्र अच्छा होता है वह राष्ट्र हमेशा उन्नत रहता है। उन्होंने कहा कि सभी कहते है जियो और जीने दो, लेकिन इसके साथ संयम शब्द को और जोडकर कहना चाहिये कि संयम से जीयो और संयम से जीने दो। अणुव्रत का मतलब है छोटे-छोटे व्रत। श्रावक वह है जिसके जीवन में व्रत होते है। इन व्रतों से व्यक्ति अपनी चेतनाओं को विकसित कर सकता है। जब तक 12 व्रतों की उपासना हम नही करेंगे तब तक जैनी नही कहलायेंगे। यदि हम एक समान तपस्या करेंगे तो सभी एक समान ही बनेंगे। हमें तीर्थंकरों के जीवन से प्रेरणा लेकर कषायमुक्त जीवन जीने की कला सीखनी चाहिये। अणुव्रत का सिद्धान्त लोगों को प्रेरणा देता है और अहिंसक बनाने में सहायक सिद्ध हो सकता है।
लेखक - उत्तम जैन ( विद्रोही )
प्रधान संपादक - विद्रोही आवाज़
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