Wednesday 30 May 2018

सोशल मीडिया से बदली भारतीय राजनीति, किसने सोचा था कि दुनिया इतनी सिमट जाएगी- उत्तम जैन ( विद्रोही )

किसने सोचा था कि दुनिया इतनी सिमट जाएगी और वो भी इतनी कि मानव की मुठ्ठी में समा जाएगी, जी हां आज इन्टरनेट से सूचना और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में सोशल मीडिया के द्वारा वो क्रांति आई है जिसकी कल्पना भी शायद कुछ सालों पहले तक मुश्किल थी। तकनीक से ऐसी क्रान्तियां हमेशा ही हुई हैं जिन्होंने मानव सभ्यता की दिशा मोड़ दी है, लेकिन सोशल मीडिया ने न सिर्फ भारतीय समाज बल्कि भारतीय राजनीति को भी हाई टेक कर दिया है।
सोशल मीडिया से आज कौन अपरिचित होगा? आज सोशल मीडिया, संवाद का वह सशक्त माध्यम बन गया है, जिससे हम दुनिया के किसी भी कोने में बैठे उन लोगों से संवाद एवं विचार-विमर्श कर सकते हैं, जिनके पास इंटरनेट की सुविधा है। इसके जरिए हमें एक ऐसा साधन मिला है, जिससे हम न केवल अपने विचारों को दुनिया के समक्ष रख सकते हैं, बल्कि दूसरे के विचारों के साथ-साथ दुनियाभर की तमाम गतिविधियों से भी अवगत होते हैं। सोशल मीडिया सामान्य संपर्क या संवाद ही नहीं, बल्कि हमारे कैरियर को तराशने एवं नौकरी तलाशने या लेखन प्रसार में भी पूरी सहायता उपलब्ध कराता है।

राजनीति में शुरू से कूटनीति व्यवहारिकता और प्रोफेशनलिज्म हावी रहता था, लेकिन आज तकनीक हावी है। पहले अस्सी के दशक तक राजनेताओं की एक छवि एवं लोकप्रियता होती थी, जो कि उनके संघर्ष एवं जनता के लिए किए गए कार्यों के आधार पर बनती थी, किन्तु आज समा कुछ यूं है कि पेशेवर लोगों द्वारा सोशल मीडिया का सहारा लेकर नेताओं की छवियों को गढ़ा जाता है और उन्हें लोकप्रिय बनाया जाता है।
पहले परम्परागत राजनैतिक कार्यकर्ता घर घर जाकर नेता का प्रचार करते थे और आज I T सेल से जुड़े पेशेवर लोग आपके राजनेता और अपने क्लाएन्ट अर्थात् ग्राहक की छवि आपके सामने प्रस्तुत करते हैं। भारत में चुनावों के लिए पेशेवर लोगों का इस्तेमाल पहली बार राजीव गांधी ने किया था, जब उन्होंने अपनी पार्टी की चुनावी सामग्री तैयार करने और विज्ञापनों का जिम्मा विज्ञापन एजेंसी "रीडिफ्यूजन " को दिया था।

प्रशांत किशोर आज के इस राजनीति के वैज्ञानिक दौर में राजनैतिक दलों के लिए तारणहार बनकर उभरे हैं। सोशल मीडिया और प्रशांत किशोर के तड़के का प्रभाव सबसे पहले 16 मई 2014 को आम चुनावों के नतीजों के बाद द्रष्टीगोचर हुआ था, जब नरेन्द्र मोदी भारतीय ओबामा बनकर उभरे थे। उसके बाद हाल के बिहार विधानसभा चुनावों में जिस प्रकार नीतीश कुमार ने कुछ माह पूर्व के लोकसभा चुनावों की तर्ज पर जीत दर्ज की वह एक प्रोफेशनल सांटिफिक एप्रोच के साथ सोशल मीडिया के रथ पर सवार होकर विजेता के रुप में उभरने की कहानी है।

मोदी की " चाय पर चर्चा " नीतीश के लिए "बिहारी बनाम बाहरी" और अब पंजाब में कैप्टन अमरिन्दर सिंह के लिए"काफी विद कैप्टन" तथा "पंजाब का कैप्टन" जैसे नारों का सोशल मीडिया पर वाइरल हो जाना अपने आप में राजनीति के व्यवसायीकरण तथा सोशल मीडिया की ताकत का एहसास दिलाने के लिए काफी है।
आज सभी भारतीय राजनेता इस बात को समझ चुके हैं शायद इसीलिए जहां 2009 तक शशि थरुर ही एकमात्र नेता थे, जो नेट पर सक्रिय थे, वहीं आज पांच साल बाद 2016 में शायद ही कोई नेता है जिसका फेसबुक और ट्विटर अकाउंट न हो।

पूर्व की सूचना की क्रान्तियों की बात करें तो रेडियो को जन जन तक पहुंचने में 38 साल लगे थे, टीवी को 14 साल,इन्टरनेट को 4 साल और फेसबुक को केवल 9 महीने..........

फरवरी 2015 के दिल्ली के विधानसभा चुनावों के नतीजे तो आपको याद ही होंगे, जब आम आदमी पार्टी ने जीत के सभी रिकॉर्ड ध्वस्त कर दिए थे। इन नतीजों ने राजनीति में सोशल मीडिया की मौजूदगी को मजबूती प्रदान की थी। चुनाव का अधिकांश युद्ध फेसबुक और ट्विटर पर चला। दिल्ली में लगभग 13 मिलियन रेजिस्टरड वोटर थे जिनमें लगभग 12.15 मिलियन ऑनलाइन थे। सोशल मीडिया की ताकत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 15 अप्रैल 2014 को आम आदमी पार्टी के संस्थापक अरविंद केजरीवाल ने ट्वीट किया कि राहुल और मोदी से लड़ने के लिए ईमानदार पैसा चाहिए दो दिन में एक अपील पर एक करोड़ रुपए जमा हो गए।

सोशल मीडिया आम आदमी और राजनेताओं दोनों के लिए एक जिन बनकर उभरा है, जहां एक तरफ चुनाव प्रचार के लिए, प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के ऊपर राजनैतिक दलों की निर्भरता खत्म हुई, वहीं दूसरी तरफ आम आदमी को अपनी बात राजनेताओं तक पहुंचाने का एक सशक्त एवं प्रभावशाली माध्यम मिल गया, जो आम आदमी अपनी अभिव्यक्ति की जड़ें तलाशने में लगा था, उसे फेसबुक ट्विटर और वाट्स अप ने अपने विचारों को प्रस्तुत करने की न सिर्फ आजादी प्रदान की, बल्कि एक मंच भी दिया जिसके द्वारा उसकी सोच देश के सामने आए।

Tuesday 22 May 2018

धर्म का मर्म - ‘परोपकारः पुण्याय पापाय पर पीड़नम्’- उत्तम जैन-- विद्रोही

                                    किसी कवि ने धर्म के मर्म पर बहुत खूब लिखा                                                                      
धर्म का मर्म ---धर्म के विभिन्न विचारों पर चलकर हम धीरे-धीरे बड़े होते हैं। वहीं विचार हमारे मन में बस जाते हैं। लेकिन आजकल लगातार कई बार इसमें ह्रास देखा जा रहा है। हर व्यक्ति अपने धर्म को छोड़ कर दूसरे धर्म के प्रति अधिक आकर्षित होता है। पहले हमारे पूर्वजों ने जिन चीजों को दृष्टि में रखकर धर्म को महत्व दिया था, हम उससे बिल्कुल हटकर सोचते हैं। जैसा कि एक किसान का धर्म खेती करना है अगर उसी कार्य को वह निपुणता के साथ करे तो उसे उस कार्य में सफलता भी मिलेगी। हर व्यक्ति को अपने धर्म को समझना जरूरी होता है। अपने-अपनेे धर्म को समझकर उसी में रूचि के साथ कार्य करने से हमें सफलता जरूर मिल सकती है। साधारण तौर पर यह देखा गया है कि कई व्यक्ति ऐसे भी होते हैं, जिन्हें अपने धर्म और कर्म से अधिक दूसरों के धर्म और उनके कार्य लुभाते हैं। हम उनसे प्रेरित होकर वही करने बैठ जाते हैं। जबकि हमारी अपने धर्म के प्रति निष्ठा धीरे-धीरे कम होने लगती है और जिस कार्य को हम मन लगाकर करने बैठते हैं वही कार्य सुचारू रूप से कर भी पाते हैं। दूसरों के धर्म को अपमानित करना हमारा इरादा नहीं होना चाहिए। अपने धर्मपथ पर दृढ़ रहते हुए दूसरों के धर्म के प्रति समान सम्मान का भाव रखना चाहिये। देखा जाये तो जो व्यक्ति अपने धर्म का मर्म सही रूप से समझता है वही व्यक्ति दूसरों के धर्म के प्रति अपने दिल में समान सम्मान का भाव रख सकता है। कुछ अहंकारी व्यक्ति जिन्हें धर्मों, मर्यादाओं और संस्कारों के मोल का एहसास नहीं होता उनकी वजह से ही समाज में धर्म के नाम पर व्यभिचार व्याप्त होता है।
हम सभी धर्म रूपी शब्द में आस्था तो रखते है मगर धर्म का वास्तविक अर्थ उसका मर्म क्या है कभी समझने की कोशिश नही की मूल आज का विषय है - धर्म क्या है ? धर्म की क्या आवश्यकता है। (धर्म का मर्म) धर्म शब्द से क्या अभिप्राय है ? धर्म शब्द संस्कृत की ‘धृ’ धातु से बना है। धृ का अर्थ है धारणा करना, संभाले रखना। धर्म की व्याख्या शास्त्रों में की गयी है ---
                        ‘परोपकारः पुण्याय पापाय पर पीड़नम्’
अर्थात परोपकार करना ही पुण्य है और दूसरों को किसी भी भांति सताना और दुःखी करना पाप है। जो चीज सबको संभाले और मिलाए रखे-वही धर्म है। जिस बात से किसी को भी दुःख न पहुंचे वही धर्म है। धर्म के दस लक्षण है धैर्य, क्षमा, इन्द्रिय, दमन (निरहंकारिता), अस्तेय, पवित्रता, बुद्धि, विवेक, सत्य एवं अक्रोध।
हम सभी लोग अपने आपको धार्मिक कहलाना पसंद जरूर करते हैं, मगर अपनी आत्मा से ही कभी कभार पूछ लिया करें कि हम कितने धार्मिक हैं तो हमारी कलई अपने आप खुल जाएगी। धर्म-कर्म के नाम पर हम जो कुछ करते हैं उसका अधिकांश हिस्सा भगवान को रिझाने या दिखाने के लिए तो शायद ज्यादा कभी नहीं होता बल्कि लोक दिखाऊ संस्कृति का ही हिस्सा माना जा सकता है। हम जो कुछ साधना और धर्म-ध्यान, भजन-पूजन आदि करते हैं वह सब कुछ देवी या देवता के लिए करते हैं मगर प्रायः देखा यह गया है कि हम लोगों को देख कर अपने हाथ-होंठ और जीभ चलाते हैं। कोई हमें नहीं देख रहा हो तब कुछ भी नहीं करते या कि दूसरे-तीसरे विचारों में खोये रहते हैं अथवा अन्य कामों में मन लगाए रहते हैं। धर्म को हमने उपासना पद्धति ही मान लिया है जबकि धर्म का संबंध जीवनचर्या के व्यापक अनुशासन और वैश्विक सोच की उदारता से भरा है।   मन में राग द्वेष रख कर हम चले धर्म करने यह तो एक विडम्बना ही है ! धर्म हमें वसुधैव कुटुम्बकम् के सिदान्त को सिखाता है ! सच में देखा जाए तो  कहा भी गया है कि जो धर्म को धारण करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है।कोई कितना ही साधन, भजन-पूजन, अनुष्ठान आदि कर ले, यज्ञ-यागादि, धार्मिक समारोहों आदि से लेकर मन्दिरों और मूर्तियों की प्रतिष्ठा में लाखों-करोड़ो रुपयों का दान कर दे, इसका कोई मूल्य नहीं है, यदि यह पैसा पवित्र नहीं है।यह मेरा मानना है ! धर्मानुरागी माने या न माने मुझे उससे कोई वास्ता नही! क्यों की
दुर्भाग्य से आजकल धर्म के नाम पर जो कुछ हो रहा है उसमें अधिकांश पैसा दूषित आ रहा है। और साधू संत व् बाबाओं ने भी धर्म के नाम पर गंदे और प्रदूषित पैसे को शुद्ध करने का ऎसा भ्रम बना रखा है कि धर्म और कालेधन, पापधन, दूषित धन सब कुछ एक दूसरे का पर्याय हो गया है। हम सभी लोगों को भ्रम है कि कितनी ही काली कमायी कर लें, रिश्वतखोर बने रहें, भ्रष्टाचार से धन जमा करते रहें, उसका थोड़ा सा अंश धार्मिक कार्यक्रमों, मन्दिरों और पूजा-पाठ या बाबाओं, साधू के इंगित अनुसार उनके चरणों में समर्पित कर देने से उनके पाप धुल जाएंगे और अनाचार, अनीति से धनार्जन का पाप समाप्त हो जाएगा। यही वजह है कि देश में हर तरफ धर्म के नाम पर गतिविधियों की हमेशा धूम मची रहती है, हर दिन कोई न कोई आयोजन होता रहता है, इसके बावजूद न शांति स्थापित हो पा रही है, न संतोष। प्राकृतिक, दैवीय और मानवीय आपदाओं का ग्राफ निरन्तर बढ़ता ही चला जा रहा है। कहीं भूकंप आ रहे हैं, भूस्खलन हो रहा है, कही बाढ़ सूखा और दूसरी सारी समस्याएं बढ़ती ही चली जा रही हैं। इन सभी का मूल कारण यही है कि धर्म के नाम पर जो कुछ हो रहा है उसमें शुचिता समाप्त हो रही है, प्रदूषित और पाप की कमायी लग रही है। जो कर रहे हैं वे भी, और जो करवा रहे हैं उनका भी धर्म से कोई वास्ता नहीं है बल्कि इन लोगों ने धर्म के नाम पर धंधा ही चला रखा है।यही कारण है कि भगवान भी इन लोगों की उपेक्षा कर रहा है और हम सभी मूर्खों को भी उपेक्षित कर रखा है जिन्हें धर्म के मूल मर्म से कोई सरोकार नहीं है।धर्म सदाचार, मानवीय मूल्यों, आदर्शाें और विश्व मंगल के लिए जीने का दूसरा नाम है। असली धर्म वही है जिसे देख, सुन और अनुभव कर हर किसी को प्रसन्नता का अनुभव हो, चाहे वह मनुष्य और, दूसरे कोई से प्राणी या जड़-चेतन जगत ही क्यों न हो। धर्म वह छत है जिसके नीचे कोई भेदभाव नहीं है बल्कि पूरी सृष्टि का भरण-पोषण और रक्षण करता है। हम सभी को चाहिए कि धर्म के मूल मर्म को आत्मसात करें और मानवीय मूल्यों से भरे-पूरे उन विचारों और कर्मों को अपनाएं जहाँ हर कोई एक-दूसरे से प्रसन्नता का अनुभव करे, मनुष्य-मनुष्य और जगत के हर प्राणी के बीच प्रेम, सात्विकता और पारस्परिक विकास की भावनाओं से भरा माहौल हो। 
लेखक - उत्तम जैन ( विद्रोही )
मो -8460783401 

बच्चो मे सुसंस्कार पालक और शिक्षक की साझा जिम्मेदारी- उत्तम जैन ( विद्रोही )

स्कूल  शिक्षा का वो मंदिर होता है, जिसमें बच्चा संस्कार, शिष्टाचार व नैतिकता का पाठ पढ़ता है। शिक्षण के इस दरबार में विध्यार्थी  को किताबी शिक्षा के साथ-साथ एक जिम्मेदार नागरिक बनने के गुर भी सिखाए जाते हैं। वर्तमान दौर में शिक्षा के व्यापक प्रचार-प्रसार व आवश्यकता को देखते हुए हर माता-पिता अपने बच्चों को अच्छे से अच्छे स्कूल में तालीम दिलाने का ख्वाब सँजोते हैं। अपने इस ख्वाब को पूरा करते हुए दिन भर जी तोड़ मेहनत करके वो पाई-पाई बचाकर अपने बच्चों के स्कूल की फीस जुटाते हैं।

बच्चे को अच्छे स्कूल में दाखिला दिलवाने के बाद अपने कर्तव्यो से इतिश्री करते हुए पालकगण बच्चों को संस्कारवान, जिम्मेदार व सभ्य नागरिक बनाने की सारी जिम्मेदारियाँ शिक्षकों पर थोप देते हैं।  यह सत्य है कि बच्चे की प्रथम पाठशाला उसका परिवार होता है। बच्चा जो कुछ भी सीखता है, वो अपने परिवार, परिवेश व संगति से सीखता है।बच्चों को सुधारने या बिगाड़ने में उसके माता-पिता का भी उतना ही हाथ होता है, जितना कि उसके शिक्षकों व सहपाठियों का। बच्चों को संस्कारवान बनाने की सबसे बड़ी व महत्वपूर्ण जिम्मेदारी माता-पिता की है।  निश्चित तौर पर पर कुछ हद तक यह जिम्मेदारी शिक्षकों की भी है

परंतु विडंबना यह है कि वर्तमान में बच्चों को स्कूल व परिवार दोनों ही जगह संस्कार नहीं मिल पा रहे हैं।ऐसा इसलिए क्योंकि बच्चा स्कूल में तो केवल 5 से 6 घंटे बिताता है परंतु अपना शेष समय अपने घर पर बिताता है। ऐसे में माता-पिता व शिक्षक दोनों की बराबरी की जिम्मेदारी होती है कि वे अपने बच्चों को संस्कार व शिष्टाचार का सबक सिखाएँ। अकेले शिक्षकों या स्कूल प्रशासन पर सारी जिम्मेदारियाँ मढ़ना कहाँ तक उचित है?   बच्चों को संस्कारवान बनाने में उसके परिवार का सबसे बड़ा हाथ होता है। वो संस्कार ही हैं, जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तांतरित होते हैं। परिवार से संस्कारों का सबक सीखने के बाद विद्यालय की बारी आती है, जहाँ बच्चों को किताबी शिक्षा के साथ-साथ नैतिक शिक्षा का भी पाठ पढ़ाया जाता है। मेरा मानना है कि स्कूल में बच्चों को संस्कारों के साथ-साथ राष्ट्रवाद का भी पाठ पढ़ाना चाहिए, जिससे कि बच्चा एक संस्कारवान संतान व जिम्मेदार नागरिक बने।  

इस चर्चा का सार केवल यही है कि यदि शिक्षक और पालक इसी प्रकार एक-दूसरे पर आरोप मढ़ते रहे तो हम कभी किसी ठोस निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाएँगे और बच्चे संस्कारवान के बजाय संस्कारहीन बनते जाएँगे। 

लेखक - उत्तम जैन ( विद्रोही ) 

Monday 21 May 2018

सत्ता लोलुपता न होती तो येदियुरप्पा सीएम पद की शपथ क्यों लेते?

यह सत्ता की भूख ही है जो राजनीतिक दलों को यह जानते हुए भी सरकार बनाने के लिए उकसाती है कि उनके पास स्पष्ट बहुमत नहीं है. वाजपेयी जी भी यह बात जानते थे कि कांग्रेस और अन्य धर्मनिरपेक्ष दलों से उनको समर्थन मिलना नामुमकिन है, फिर भी उन्होंने सरकार बनाई. जबकि भाजपा के अंदर ही वाजपेयी जी की छवि किसी कट्टर राष्ट्रवादी की नहीं थी. उनकी छवि उदार और समावेशी राजनीतिज्ञ की थी. ऐसा भी नहीं है कि तब भाजपा हाथ पर हाथ धरे बैठी थी. टूट-फूट से बचाने के लिए संयुक्त मोर्चा ने तब अपने अधिकतर सांसद गेस्ट हाउसों में छिपा दिए थे और उनके बाहर आने-जाने के लिए चार्टर्ड बसों का इस्तेमाल किया जाता था. इसके बावजूद भाजपा दो हफ्तों के लंबे अरसे में संयुक्त मोर्चा (कांग्रेस+12 अन्य दल) का एक भी सदस्य अपने पाले में नहीं कर सकी थी.


आज हिमालय की चोटी पर चढ़ कर नैतिकता की दुहाई देने वाली कांग्रेस की सत्ता लोलुपता के उदाहरणों से भी इतिहास भरा पड़ा है. पुराने लोगों को याद होगा कि मई 1982 में कांग्रेस की कठपुतली बने हरियाणा के राज्यपाल गणपतराव देवजी तपासे ने अधिक संख्या बल वाले चौधरी देवीलाल को धोखा देते हुए किसी रोमांचक फिल्मी घटनाक्रम की तरह कम संख्या बल वाले चौधरी भजनलाल को सीएम पद की शपथ दिलवा दी थी. बावजूद इसके कि देवीलाल ने कांग्रेस का शिकार होने से बचाने के लिए अपने समर्थक विधायकों को हिमाचल प्रदेश के परवाणू स्थित होटल शिवालिक में छिपा दिया था और उनके अकाली मित्र प्रकाश सिंह बादल के निहंग सिख तथा अन्य अंगरक्षक होटल के बाहर सुरक्षा में बिना पलक झपकाए डटे हुए थे. देवीलाल द्वारा विधायकों की परेड कराने से पहले ही सारा खेल दिल्ली और राजभवन में हो गया था!


अगर सत्ता लोलुपता न होती तो संख्या बल जुटाना असंभव जानते हुए भी येदियुरप्पा सीएम पद की शपथ क्यों लेते? और शपथ लेते ही बिना कोई मंत्रिमंडल गठित किए ही किसानों की कर्जमाफी जैसी बड़ी घोषणा क्यों करते? कांग्रेस+जेडीएस गठबंधन जब 115 विधायकों के समर्थन की सूची राज्यपाल को सौंप चुका था, तो भाजपा सिर्फ असंवैधानिक तरीकों से ही बहुमत का आंकड़ा जुटा सकती थी. पिछले तीन-चार दिनों से कर्नाटक में जारी टॉम एंड जेरी का खेल इसी जुगाड़-संस्कृति का नतीजा था.


यहां हम राज्यपाल की भूमिका का जिक्र नहीं कर रहे, क्योंकि विषयांतर हो जाएगा. लेकिन जिस तरह पिंजरे में बंद पशुओं की भांति कांग्रेस+जेडीएस विधायकों को विधानसौदा में प्रस्तुत करना पड़ा, उससे स्पष्ट हो जाता है कि यह अटल जी के दौर की भाजपा नहीं है, जिसे राज्यपाल ने एकल सबसे बड़ा दल होने के नाते पहले मौका दे दिया. अब कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी खुले आम कह रहे हैं कि कर्नाटक में विधायकों की खरीद-फरोख्त को पीएम मोदी ने स्वीकृति दी थी और नया राज्यपाल आएगा भी तो मोदी-आरएसएस के दबाव में वह इसी लाइन पर काम करेगा!


भाजपा ने सिर्फ सत्तालोलुपता ही नहीं, बल्कि अधीरता प्रदर्शित करके मुफ्त की बदनामी भी मोल ले ली है. अगर वह कांग्रेस+जेडीएस के तथाकथित अपवित्र गठबंधन को पहले ही सरकार बना लेने देती तो हॉर्स ट्रेडिंग, विधायकों के अपहरण, उनके परिवारजनों को धमकियां और कई तरह के अन्य अनर्गल आरोपों से बच जाती. दूसरा लाभ यह होता कि कुछ समय बाद कांग्रेस और जेडीएस के बीच संभावित रस्साकशी तथा सरकार की विभिन्न मोर्चों पर विफलता को वह अपना हथियार बना सकती थी. लेकिन बहुमत के बगैर सरकार बनाकर वह खुद कटघरे में खड़ी हो गई है.


एक संयोग यह भी देखिए कि तब वाजपेयी जी की सरकार गिरने के बाद एच.डी. देवगौड़ा पीएम बने थे और अब येदियुरप्पा की सरकार गिरने के बाद उनके पुत्र एच.डी. कुमारस्वामी सीएम बनने जा रहे हैं. देवगौड़ा धर्मनिरपेक्षता के नाम पर गठित संयुक्त मोर्चे के मात्र 11 महीने पीएम रह पाए थे. अब यह देखना दिलचस्प होगा कि कर्नाटक में धर्मनिरपेक्षता के नाम पर ही चुनाव बाद बने कांग्रेस+जेडीएस गठबंधन में उनके पुत्र कुमारस्वामी कितने दिन के सीएम रह पाते हैं.
लेखक - उत्तम जैन ( विद्रोही ) 
मो -8460783401 

Monday 14 May 2018

हर चुनाव में प्रधानमंत्री झूठ का नायाब उदाहरण पेश करते हैं

आज जंहा आम जनता हमारे प्रधानमंत्री के भाषणो से प्रभावित होती है वही तथ्यो को   कैसे तोड़ा मरोड़ा जाता है, आप प्रधानमंत्री से सीख सकते हैं। क्योंकि ये खास तरीके से डिजाइन किए जाते हैं और फिर रैलियों में बोला जाता है। गुजरात चुनावों के समय मणिशंकर अय्यर के घर की बैठक वाला बयान भी इसी श्रेणी का था जिसे लेकर बाद में राज्य सभा में चुपचाप माफी मांगी गई थी। 1948 की घटना का ज़िक्र कर रहे हैं तो ज़ाहिर है टीम ने सारे तथ्य निकाल कर दिए ही होंगे, फिर उन तथ्यों के आधार पर एक झूठ बनाया गया होगा।
कर्नाटक के कलबुर्गी में प्रधानमंत्री ने कहा कि फिल्ड मार्श के एम करिअप्पा और जनरल के थिमाया का कांग्रेस सरकार ने अपमान किया था। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है। जनरल थिमाया के नेतृत्व में हमने 1948 की लड़ाई जीती थी। जिस आदमी ने कश्मीर को बचाया उसका प्रधानमंत्री नेहरू और रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन ने अपमान किया। क्या अपमान किया, कैसे अपमान किया, इस पर कुछ नहीं कहा।
1947-48 की लड़ाई में भारतीय सेना के जनरल सर फ्रांसिस बुचर थे न कि जनरल थिमाया। युद्ध के दौरान जनरल थिमाया कश्मीर में सेना के आपरेशन का नेतृत्व कर रहे थे। 1957 में सेनाध्यक्ष बने। 1959 में जनरल थिम्माया सेनाध्यक्ष थे। तब चीन की सैनिक गोलबंदी को लेकर रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन ने उनका मत मानने से इंकार कर दिया था। इसके बाद जनरल थिम्माया ने इस्तीफा देने की पेशकश कर दी जिसे प्रधानमंत्री नेहरू ने रिजेक्ट कर दिया।
भारत का प्रधानमंत्री चुनावी जीत के लिए कुछ भी बोल देते हैं। जरूर इस बात को कहने के लिए पुराना इतिहास खंगाला गया होगा। इसके लिए टीम होगी और बहुत चालाकी से इसे 2018 के चुनाव में मुद्दा बनाया गया। खुद बता देते कि जनरल थिमाया के लिए क्या किया है।
आलोचना हो रही है कि बेल्लारी के रेड्डी बंधुओं के परिवार के सात सदस्यों को बीजेपी ने टिकट दिया है। अमित शाह रेड्डी बंधु से किनारा करते हैं, रेड्डी बंधु बीजेपी का प्रचार कर रहे हैं। येदुरप्पा इंडियन एक्सप्रेस से कहते हैं कि अमित शाह का फैसला था।
अब प्रधानमंत्री बेल्लारी गए। रेड्डी बंधुओं पर अवैध खनन के तमाम मामले चल रहे हैं। प्रधानमंत्री की आलोचना भी हो रही थी इस बात को लेकर। जिनके अभियान की शुरूआत न खाऊंगा न खाने दूंगा से शुरू हुआ था, वो प्रधानमंत्री अब रेड्डी बंधुओं का बचाव कर रहे हैं।
बेल्लारी जाकर वे अपनी भाषण कला(?) का इस्तेमाल करते हैं और बात को घुमा देते हैं। कहते हैं कि कांग्रेस ने बेल्लारी का अपमान किया है। कांग्रेस कहती है कि बेल्लारी में चोर और लुटेरे रहते हैं। जबकि 14 वीं से 17वीं सदी के बीच विजयनगरम साम्राज्य के समय गुड गवर्नेंस था। भला हो प्रधानमंत्री का जिन्होंने विजयनमगर के महान दौर को बीजेपी सरकार का दौर नहीं कहा। मगर किस चालाकी और खूबी से उन्होंने बेल्लारी के रेड्डी बंधुओं का बचाव किया। वे बेल्लारी की जनता के अपमान के बहाने रेड्डी बंधुओं का खुलेआम बचाव कर गए। तालियां। पहली बार प्रधानमंत्री ने रेड्डी बंधुओं को क्लिन चिट दे दिया है। अब सीबीआई भी चुप ही रहेगी।
हर चुनाव में प्रधानमंत्री झूठ का नायाब उदाहरण पेश करते हैं। अभी तक के किसी भी प्रधानमंत्री ने झूठ को लेकर इतने रचनात्मक प्रयोग नहीं किए हैं। चुनाव जीतना बड़ी कामयाबी होती है मगर यह कामयाबी इस कीमत पर हासिल कर रहे हैं, वही बता सकते हैं कि इसका क्या मोल है। इसलिए उनका हर झूठ हीरा है, इन हीरों का एक कंगन बना लेना चाहिए। उसे राष्ट्रीय स्मारक की तरह संजो कर किसी म्यूज़ियम में रख दिया जाए।