Monday 29 July 2019

इश्क के बाद होंसला एक कहानी

ट्रैन के ए.सी. कम्पार्टमेंट में मेरे सामने की सीट पर बैठी लड़की ने मुझसे पूछा " हैलो, क्या आपके पास इस मोबाइल की पिन है??"

उसने अपने बैग से एक फोन निकाला था, और नया सिम कार्ड उसमें डालना चाहती थी। लेकिन सिम स्लॉट खोलने के लिए पिन की जरूरत पड़ती है जो उसके पास नहीं थी। मैंने हाँ में गर्दन हिलाई और सीट के नीचे से अपना बैग निकालकर उसके टूल बॉक्स से पिन ढूंढकर लड़की को दे दी। लड़की ने थैंक्स कहते हुए पिन ले ली और सिम डालकर पिन मुझे वापिस कर दी।

थोड़ी देर बाद वो फिर से इधर उधर ताकने लगी, मुझसे रहा नहीं गया.. मैंने पूछ लिया "कोई परेशानी??"

वो बोली सिम स्टार्ट नहीं हो रही है, मैंने मोबाइल मांगा, उसने दिया। मैंने उसे कहा कि सिम अभी एक्टिवेट नहीं हुई है, थोड़ी देर में हो जाएगी। और एक्टिव होने के बाद आईडी वेरिफिकेशन होगा उसके बाद आप इसे इस्तेमाल कर सकेंगी।

लड़की ने पूछा, आईडी वेरिफिकेशन क्यों??

मैंने कहा " आजकल सिम वेरिफिकेशन के बाद एक्टिव होती है, जिस नाम से ये सिम उठाई गई है उसका ब्यौरा पूछा जाएगा बता देना"

लड़की बुदबुदाई "ओह्ह "

मैंने दिलासा देते हुए कहा "इसमे कोई परेशानी की कोई बात नहीं"

वो अपने एक हाथ से दूसरा हाथ दबाती रही, मानो किसी परेशानी में हो। मैंने फिर विन्रमता से कहा "आपको कहीं कॉल करना हो तो मेरा मोबाइल इस्तेमाल कर लीजिए"

लड़की ने कहा "जी फिलहाल नहीं, थैंक्स, लेकिन ये सिम किस नाम से खरीदी गई है मुझे नहीं पता"

मैंने कहा "एक बार एक्टिव होने दीजिए, जिसने आपको सिम दी है उसी के नाम की होगी"

उसने कहा "ओके, कोशिस करते हैं"

मैंने पूछा "आपका स्टेशन कहाँ है??"

लड़की ने कहा "दिल्ली"

और आप?? लड़की ने मुझसे पूछा

मैंने कहा "दिल्ली ही जा रहा हूँ, एक दिन का काम है, आप दिल्ली में रहती हैं या...?"

लड़की बोली "नहीं नहीं, दिल्ली में कोई काम नहीं ना मेरा घर है वहाँ"

तो? मैंने उत्सुकता वश पूछा

वो बोली "दरअसल ये दूसरी ट्रेन है, जिसमे आज मैं हूँ, और दिल्ली से तीसरी गाड़ी पकड़नी है, फिर हमेशा के लिए आज़ाद"

आज़ाद?? लेकिन किस तरह की कैद से?? मुझे फिर जिज्ञासा हुई किस कैद में थी ये कमसिन अल्हड़ सी लड़की..

लड़की बोली, उसी कैद में थी जिसमें हर लड़की होती है। जहाँ घरवाले कहे शादी कर लो, जब जैसा कहे वैसा करो। मैं घर से भाग चुकी हुँ..

मुझे ताज्जुब हुआ मगर अपने ताज्जुब को छुपाते हुए मैंने हंसते हुए पूछा "अकेली भाग रही हैं आप? आपके साथ कोई नजर नहीं आ रहा? "

वो बोली "अकेली नहीं, साथ में है कोई"

कौन? मेरे प्रश्न खत्म नहीं हो रहे थे

दिल्ली से एक और ट्रेन पकड़ूँगी, फिर अगले स्टेशन पर वो मिलेगा, और उसके बाद हम किसी को नहीं मिलेंगे..

ओह्ह, तो ये प्यार का मामला है।

उसने कहा "जी"

मैंने उसे बताया कि 'मैंने भी लव मैरिज की है।'

ये बात सुनकर वो खुश हुई, बोली "वाओ, कैसे कब?" लव मैरिज की बात सुनकर वो मुझसे बात करने में रुचि लेने लगी

मैंने कहा "कब कैसे कहाँ? वो मैं बाद में बताऊंगा पहले आप बताओ आपके घर में कौन कौन है?

उसने होशियारी बरतते हुए कहा " वो मैं आपको क्यों बताऊं? मेरे घर में कोई भी हो सकता है, मेरे पापा माँ भाई बहन, या हो सकता है भाई ना हो सिर्फ बहने हो, या ये भी हो सकता है कि बहने ना हो और 2-4 मुस्टंडे भाई हो"

मतलब मैं आपका नाम भी नहीं पूछ सकता "मैंने काउंटर मारा"

वो बोली, 'कुछ भी नाम हो सकता है मेरा, टीना, मीना, शबीना, अंजली कुछ भी'

बहुत बातूनी लड़की थी वो.. थोड़ी इधर उधर की बातें करने के बाद उसने मुझे ट्रॉफी दी जैसे छोटे बच्चे देते हैं क्लास में, बोली आज मेरा बर्थडे है।

मैंने उसकी हथेली से ट्रॉफी उठाते बधाई दी और पूछा "कितने साल की हुई हो?"

वो बोली "18"

"मतलब भागकर शादी करने की कानूनी उम्र हो गई आपकी" मैंने काउंटर किया

वो "हंसी"

कुछ ही देर में काफी फ्रैंक हो चुके थे हम दोनों। जैसे बहुत पहले से जानते हो एक दूसरे को..

मैंने उसे बताया कि "मेरी उम्र 28 साल है, यानि 10 साल बड़ा हुँ"

उसने चुटकी लेते हुए कहा "लग भी रहे हो"

मैं मुस्कुरा दिया

मैंने उसे पूछा "तुम घर से भागकर आई हो, तुम्हारे चेहरे पर चिंता के निशान जरा भी नहीं है, इतनी बेफिक्री मैंने पहली बार देखी"

खुद की तारीफ सूनकर वो खुश हुई, बोली "मुझे उसने(प्रेमी ने) पहले से ही समझा दिया था कि जब घर से निकलो तो बिल्कुल बिंदास रहना, घरवालों के बारे में बिल्कुल मत सोचना, बिल्कुल अपना मूड खराब मत करना, सिर्फ मेरे और हम दोनों के बारे में सोचना और मैं वही कर रही हूँ"

मैंने फिर चुटकी ली, कहा "उसने तुम्हे मुझ जैसे अनजान मुसाफिरों से दूर रहने की सलाह नहीं दी?"

उसने हंसकर जवाब दिया "नहीं, शायद वो भूल गया होगा ये बताना"

मैंने उसके प्रेमी की तारीफ करते हुए कहा " वैसे तुम्हारा बॉय फ्रेंड काफी टेलेंटेड है, उसने किस तरह से तुम्हे अकेले घर से रवाना किया, नई सिम और मोबाइल दिया, तीन ट्रेन बदलवाई.. ताकि कोई ट्रेक ना कर सके, वेरी टेलेंटेड पर्सन"

लड़की ने हामी भरी,बोली " बोली बहुत टेलेंटेड है वो, उसके जैसा कोई नहीं"

मैंने उसे बताया कि "मेरी शादी को 5 साल हुए हैं, एक बेटी है 2 साल की, ये देखो उसकी तस्वीर"

मेरे फोन पर बच्ची की तस्वीर देखकर उसके मुंह से निकल गया "सो क्यूट"

मैंने उसे बताया कि "ये जब पैदा हुई, तब मैं कुवैत में था, एक पेट्रो कम्पनी में बहुत अच्छी जॉब थी मेरी, बहुत अच्छी सेलेरी थी.. फिर कुछ महीनों बाद मैंने वो जॉब छोड़ दी, और अपने ही कस्बे में काम करने लगा।"

लड़की ने पूछा जॉब क्यों छोड़ी??

मैंने कहा "बच्ची को पहली बार गोद में उठाया तो ऐसा लगा जैसे जन्नत मेरे हाथों में है, 30 दिन की छुट्टी पर घर आया था, वापस जाना था लेकिन जा ना सका। इधर बच्ची का बचपन खर्च होता रहे उधर मैं पूरी दुनिया कमा लूं, तब भी घाटे का सौदा है। मेरी दो टके की नौकरी, बचपन उसका लाखों का.."

उसने पूछा "क्या बीवी बच्चों को साथ नहीं ले जा सकते थे वहाँ?"

मैंने कहा "काफी टेक्निकल मामलों से गुजरकर एक लंबी अवधि के बाद रख सकते हैं, उस वक्त ये मुमकिन नहीं था.. मुझे दोनों में से एक को चुनना था, आलीशान रहन सहन के साथ नौकरी या परिवार.. मैंने परिवार चुना अपनी बेटी को बड़ा होते देखने के लिए। मैं कुवैत वापस गया था, लेकिन अपना इस्तीफा देकर लौट आया।"

लड़की ने कहा "वेरी इम्प्रेसिव"

मैं मुस्कुराकर खिड़की की तरफ देखने लगा

लड़की ने पूछा "अच्छा आपने तो लव मैरिज की थी न,फिर आप भागकर कहाँ गए?? कैसे रहे और कैसे गुजरा वो वक्त??

उसके हर सवाल और हर बात में मुझे महसूस हो रहा था कि ये लड़की लकड़पन के शिखर पर है, बिल्कुल नासमझ और मासूम।

मैंने उसे बताया कि हमने भागकर शादी नहीं की, और ये भी है कि उसके पापा ने मुझे पहली नजर में सख्ती से रिजेक्ट कर दिया था।"

उन्होंने आपको रिजेक्ट क्यों किया?? लड़की ने पूछा

मैंने कहा "रिजेक्ट करने की कुछ भी वजूहात हो सकती है, मेरी जाति, मेरा धर्म, मेरा कुल कबीला घर परिवार नस्ल या नक्षत्र..इन्ही में से कोई काट होती है जिसके इस्तेमाल से जुड़ते हुए रिश्तों की डोर को काटा जा सकता है"

"बिल्कुल सही", लड़की ने सहमति दर्ज कराई और आगे पूछा "फिर आपने क्या किया?"

मैंने कहा "मैंने कुछ नहीं किया,उसके पिता ने रिजेक्ट कर दिया वहीं से मैंने अपने बारे में अलग से सोचना शुरू कर दिया था। खुशबू ने मुझे कहा कि भाग चलते हैं, मेरी वाइफ का नाम खुशबू है..मैंने दो टूक मना कर दिया। वो दो दिन तक लगातार जोर देती रही, कि भाग चलते हैं। मैं मना करता रहा.. मैंने उसे समझाया कि "भागने वाले जोड़े में लड़के की इज़्ज़त वकार पर कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ता, जबकि लड़की का पूरा कुल धुल जाता है। फिल्मों में नायक ही होता है जो अपनी प्रेमिका को भगा ले जाए और वास्तविक जीवन में भी प्रेमिका को भगाकर शादी करने वाला नायक ही माना जाता है। लड़की भगाने वाले लड़के के दोस्तों में उस लड़के का दर्जा बुलन्द हो जाता है, भगाने वाला लड़का हीरो माना जाता है लेकिन इसके विपरीत जो लड़की प्रेमी संग भाग रही है वो कुल्टा कहलाती है, मुहल्ले के लड़के उसे चालू ठीकरा कहते हैं। बुराइयों के तमाम शब्दकोष लड़की के लिए इस्तेमाल किये जाते हैं। भागने वाली लड़की आगे चलकर 60 साल की वृद्धा भी हो जाएगी तब भी जवानी में किये उस कांड का कलंक उसके माथे पर से नहीं मिटता। मैं मानता हूँ कि लड़का लड़की को तौलने का ये दोहरा मापदंड गलत है, लेकिन है तो सही.. ये नजरिया गलत है मगर अस्तित्व में है, लोगों के अवचेतन में भागने वाली लड़की की भद्दी तस्वीर होती है। मैं तुम्हारी पीठ को छलनी करके सुखी नहीं रह सकता, तुम्हारे माँ बाप को दुखी करके अपनी ख्वाहिशें पूरी नहीं कर सकता।"

वो अपने नीचे का होंठ दांतो तले पीसने लगी, उसने पानी की बोतल का ढक्कन खोलकर एक घूंट अंदर सरकाया।

मैंने कहा अगर मैं उस दिन उसे भगा ले जाता तो उसकी माँ तो शायद कई दिनों तक पानी भी ना पीती। इसलिए मेरी हिम्मत ना हुई कि ऐसा काम करूँ.. मैं जिससे प्रेम करूँ उसके माँ बाप मेरे माँ बाप के समान ही है। चाहे शादी ना हो, तो ना हो।

कुछ पल के लिए वो सोच में पड़ गई , लेकिन मेरे बारे में और अधिक जानना चाहती थी, उसने पूछा "फिर आपकी शादी कैसे हुई???

मैंने बताया कि " खुशबू की सगाई कहीं और कर दी गई थी। धीरे धीरे सबकुछ नॉर्मल होने लगा था। खुशबू और उसके मंगेतर की बातें भी होने लगी थी फोन पर, लेकिन जैसे जैसे शादी नजदीक आने लगी, उन लोगों की डिमांड बढ़ने लगी"

डिमांड मतलब 'लड़की ने पूछा'

डिमांड का एक ही मतलब होता है, दहेज की डिमांड। परिवार में सबको सोने से बने तोहफे दो, दूल्हे को लग्जरी कार चाहिए, सास और ननद को नेकलेस दो वगैरह वगैरह, बोले हमारे यहाँ रीत है। लड़का भी इस रीत की अदायगी का पक्षधर था। वो सगाई मैंने येन केन प्रकरेण तुड़वा डाली.. फिर किसी तरह घरवालों को समझा बुझा कर मैं फ्रंट पर आ गया और हमारी शादी हो गई। ये सब किस्मत की बात थी..

लड़की बोली "चलो अच्छा हुआ आप मिल गए, वरना वो गलत लोगों में फंस जाती"

मैंने कहा "जरूरी नहीं कि माँ पापा का फैसला हमेशा सही हो, और ये भी जरूरी नहीं कि प्रेमी जोड़े की पसन्द सही हो.. दोनों में से कोई भी गलत या सही हो सकता है.. नुक्ते की बात यहाँ ये है कि कौन ज्यादा फरमाबरदार और वफादार है।"

लड़की ने फिर से पानी का घूंट लिया और मैंने भी.. लड़की ने तर्क दिया कि "हमारा फैसला गलत हो जाए तो कोई बात नहीं, उन्हें ग्लानि नहीं होनी चाहिए"

मैंने कहा "फैसला ऐसा हो जो दोनों का हो, औलाद और माता पिता दोनों की सहमति, वो सबसे सही है। बुरा मत मानना मैं कहना चाहूंगा कि तुम्हारा फैसला तुम दोनों का है, जिसमे तुम्हारे पेरेंट्स शामिल नहीं है, ना ही तुम्हे इश्क का असली मतलब पता है अभी"

उसने पूछा "क्या है इश्क़ का सही अर्थ?"

मैंने कहा "तुम इश्क में हो, तुम अपना सबकुछ छोड़कर चली आई ये इश्क़ है, तुमने अक़्ल का दखल नहीं दिया ये इश्क है, नफा नुकसान नहीं सोचा ये इश्क है...तुम्हारा दिमाग़ दुनियादारी के फितूर से बिल्कुल खाली था, उस खाली स्पेस में इश्क इनस्टॉल कर दिया गया। जिसने इश्क को इनस्टॉल किया वो इश्क में नहीं है.. यानि तुम जिसके साथ जा रही हो वो इश्क में नहीं, बल्कि होशियारी हीरोगिरी में है। जो इश्क में होता है वो इतनी प्लानिंग नहीं कर पाता है, तीन ट्रेनें नहीं बदलवा पाता है, उसका दिमाग इतना काम ही नहीं कर पाता.. कोई कहे मैं आशिक हुँ, और वो शातिर भी हो ये नामुमकिन है। मजनू इश्क में पागल हो गया था, लोग पत्थर मारते थे उसे, इश्क में उसकी पहचान तक मिट गई। उसे दुनिया मजून के नाम से जानती है जबकि उसका असली नाम कैस था जो नहीं इस्तेमाल किया जाता। वो शातिर होता तो कैस से मजनू ना बन पाता। फरहाद ने शीरीं के लिए पहाड़ों को खोदकर नहर निकाल डाली थी और उसी नहर में उसका लहू बहा था, वो इश्क़ था। इश्क़ में कोई फकीर हो गया, कोई जोगी हो गया, किसी मांझी ने पहाड़ तोड़कर रास्ता निकाल लिया..किसी ने अतिरिक्त दिमाग़ नहीं लगाया.. लालच हिर्स और हासिल करने का नाम इश्क़ नहीं है.. इश्क समर्पण करने को कहते हैं जिसमें इंसान सबसे पहले खुद का समर्पण करता है, जैसे तुमने किया, लेकिन तुम्हारा समर्पण हासिल करने के लिए था, यानि तुम्हारे इश्क में हिर्स की मिलावट हो गई । डॉ इकबाल का शेर है
"अक़्ल अय्यार है सौ भेष बदल लेती है
इश्क बेचारा ना मुल्ला है, ना ज़ाहिद, ना हकीम"

लकड़ी अचानक से खो सी गई.. उसकी खिलख़िलाहट और लपड़ापन एकदम से खमोशी में बदल गया.. मुझे लगा मैं कुछ ज्यादा बोल गया, फिर भी मैंने जारी रखा, मैंने कहा " प्यार तुम्हारे पापा तुमसे करते हैं, कुछ दिनों बाद उनका वजन आधा हो जाएगा, तुम्हारी माँ कई दिनों तक खाना नहीं खाएगी ना पानी पियेगी.. जबकि आपको अपने प्रेमी को आजमा कर देख लेना था, ना तो उसकी सेहत पर फर्क पड़ता, ना दिमाग़ पर, वो अक्लमंद है, अपने लिए अच्छा सोच लेता। आजकल गली मोहल्ले के हर तीसरे लौंडे लपाडे को जो इश्क हो जाता है, वो इश्क नहीं है, वो सिनेमा जैसा कुछ है। एक तरह की स्टंटबाजी, डेरिंग, अलग कुछ करने का फितूर..और कुछ नहीं।

लड़की का चेहरे का रंग बदल गया, ऐसा लग रहा था वो अब यहाँ नहीं है, उसका दिमाग़ किसी अतीत में टहलने निकल गया है। मैं अपने फोन को स्क्रॉल करने लगा.. लेकिन मन की इंद्री उसकी तरफ थी।

थोड़ी ही देर में उसका और मेरा स्टेशन आ गया.. बात कहाँ से निकली थी और कहाँ पहुँच गई.. उसके मोबाइल पर मैसेज टोन बजी, देखा, सिम एक्टिवेट हो चुकी थी.. उसने चुपचाप बैग में से आगे का टिकट निकाला और फाड़ दिया.. मुझे कहा एक कॉल करना है, मैंने मोबाइल दिया.. उसने नम्बर डायल करके कहा "सोरी पापा, और सिसक सिसक कर रोने लगी, सामने से पापा फोन पर बेटी को संभालने की कोशिश करने लगे.. उसने कहा पापा आप बिल्कुल चिंता मत कीजिए मैं घर आ रही हूँ..दोनों तरफ से भावनाओ का सागर उमड़ पड़ा"

हम ट्रेन से उतरे, उसने फिर से पिन मांगी, मैंने पिन दी.. उसने मोबाइल से सिम निकालकर तोड़ दी और पिन मुझे वापस कर दी

Saturday 27 July 2019

कडवे घूंट जीवन के --

कडवे घूंट जीवन के --

कडवे घूंट जीवन के ---
हमारी वर्तमान दशा व दिशा सिर्फ अपने कारण से होती है इस दशा मे मुख्य कारण एक चिंता व नकारात्मक भाव है !चिंताओं का विश्लेषण किया जाए तो ४०%- भूतकाल की, ५०% भविष्यकाल की तथा १०% वर्त्तमान काल की होती है ! इस स्वीकार भाव से ही हमारे भाव बदलने शुरू होते हैं। रोग का जन्म ही नकारात्मक भावनाओं में है । विकृत भाव व चिन्तन रोग के माता-पिता है । हम भावनाओं में जीते है । उन्हे बदल कर ही हम सुखी हो सकते है । आज अधिकतर लोग चिन्ता से चिन्तित रहते हैं। पिता को अपनी बेटी की शादी की चिन्ता है। एक गृहिणी को पूरा महीना घर चलाने की चिन्ता है। एक विद्यार्थी को अच्छे अंक प्राप्त करने की चिन्ता है। एक मैनेजर को अपने प्रोमोशन की चिन्ता है। एक व्यापारी को अपने व्यापार में लाभ कमाने की चिन्ता है। एक नेता को चुनाव से पहले वोट लेने और जीतने की चिन्ता है। किसी को अपनी सफलता की दावत देने की चिन्ता है।न जाने इंसान कितनी चिंताओ से ग्रसित रहता है लोगों ने जाने-अनजाने में अपनी जिम्मेदारी के साथ चिन्ता को भी जोड़ दिया है। क्या हर जिम्मेदारी के साथ चिन्ता का होना आवश्यक है? क्या चिन्ता किए बिना जिम्मेदारी का निभना संभव नहीं है? एक मां अपने बच्चे से कहती है, 'तुम्हारी परीक्षा सिर पर आ गई है, अब तो चिन्ता कर लो।' बच्चा शायद समझदार है। वह चिन्ता नहीं करता, पढ़ाई करता है और अपनी परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाता है। जिम्मेदारी है पॉजिटिव और चिन्ता करना है नेगेटिव। हम जब जिम्मेदारी को निभाते हैं तो हमारी ऊर्जा पॉजिटिव काम में लगती है और हमें लाभ देती है। लेकिन जब हम चिन्ता करते हैं तो हमारी ऊर्जा नेगेटिव काम में लगती है और नष्ट हो जाती है। मान लो यदि हमारी 20 प्रतिशत ऊर्जा चिन्ता में चली जाती है तो जिम्मेदारी को निभाने के लिए कितनी बची? यदि साधारण हिसाब की बात करें तो बचती है 80 प्रतिशत। लेकिन यदि हम गहराई में जाएं तो परिणाम कुछ और ही होगा। चिन्ता है नेगेटिव और जिम्मेदारी है पॉजिटिव। जब दोनों एक साथ होंगे तो एक दूसरे की विपरीत दिशा में काम करेंगे। जिस तरह 'टग ऑफ वार' खेल में दो विभिन्न समूह एक मोटे रस्से को दो विपरीत दिशाओं में खींचते हैं तो एक समूह की सामूहिक ऊर्जा, दूसरे समूह की सामूहिक ऊर्जा के साथ बराबर हो जाती है। उसके बाद जिस समूह के पास थोड़ी ऊर्जा ज्यादा बचती है, उसका पलड़ा भारी हो जाता है और वह विजयी घोषित किया जाता है। इसी तरह चिन्ता और जिम्मेदारी के मध्य भी चलता है 'टग ऑफ वार'। यदि 20 प्रतिशत ऊर्जा चिन्ता के पास है तो उसे बराबर करने के लिए 20 प्रतिशत ऊर्जा जिम्मेदारी की ओर से खर्च करनी होगी। इस तरह हमारे पास जिम्मेदारी निभाने के लिए बचती है सिर्फ 60 प्रतिशत ऊर्जा। जितनी ऊर्जा हम लगाएंगे, परिणाम भी वैसे ही आएंगे। 100 प्रतिशत ऊर्जा लगाने के परिणाम अधिक और अच्छे होंगे और 60 प्रतिशत ऊर्जा लगाने के परिणाम कम ही होंगे। लेकिन लोगों को लगता है कि काम चल जाएगा। यदि हमारी 50 प्रतिशत ऊर्जा चली गई चिन्ता की ओर तो चिन्ता शेष 50 प्रतिशत ऊर्जा भी खींच लेगी जिम्मेदारी से। और इस तरह हमारे पास अपनी जिम्मेदारी निभाने के लिए कोई ऊर्जा बचेगी ही नहीं। जब ऊर्जा न हो तो अच्छा से अच्छा उपकरण भी काम नहीं कर पाता। फिर हमारा दिमाग भी बिना ऊर्जा के काम कैसे कर सकता है। हम बहुत छोटी-छोटी जिम्मेदारियां भी नहीं निभा सकते और स्वयं से कहते हैं, 'ये मुझे क्या हो गया है, मेरा दिमाग ही काम नहीं कर रहा।' चिन्ता हमारी ऊर्जा को नष्ट कर देती है, जिससे हम अपनी जिम्मेदारी को निभाने में अपने आप को असमर्थ महसूस करते हैं। हम अपनी जिम्मेदारी से नाता नहीं तोड़ सकते। हमें अपनी जिम्मेदारी को निभाने के लिए ऊर्जा चाहिए। इसलिए यह हमारी सबसे बड़ी जरूरत है कि हम अपनी ऊर्जा को चिन्ता में नष्ट होने से रोकें। हमें चिन्ता न करने का अभ्यास करना है। लेकिन कोई भी अभ्यास करने के लिए आवश्यक है अभ्यास करने का अवसर। प्रतिदिन हमारे पास अनगिनत समस्याएं आती हैं, जिनके लिए हम चिन्ता करते हैं। तो हर समस्या आने पर स्वयं से बात करें कि चिन्ता करने पर मेरी मूल्यवान ऊर्जा नष्ट हो रही है, जो मुझे नहीं करनी। सिर्फ अपने मन को इस बात की याद दिला कर भी हम अपनी काफी ऊर्जा नष्ट होने से बचा सकते हैं।
यदि आप चिन्ता मुक्त होना चाहते है तो आपको सकारात्मक विचारों को अपने जीवन में लाना पड़ेगा । चिन्ता जन्मजात नहीं होती है । ये एक आदत है जो पड़ जाती है । जब हम इस आदत को मजबूत बना लेते है तो इसको तोड़ना मुश्किल पड़ जाता है । यदि हमको पता चल जायें कि चिन्ता से डर का जन्म होता है और डर एक बहुत भयानक वस्तु है जो आपको मुर्त्यु का ग्रास बना सकती है!
उत्तम जैन (विद्रोही )

Sunday 7 July 2019

आदर्श जीवन यापन करने के साथ न्यायोपार्जित धन का संग्रह करे और विवेकपूर्वक परोपकारर्थ व्यय करे

सुखी और सन्तुलित जीवन के लिए मनुष्य धर्माचरण पूर्वक आदर्श जीवन यापन करने के साथ न्यायोपार्जित धन का संग्रह करे और विवेकपूर्वक परोपकारर्थ व्यय करे।
लेखक - उत्तम जैन ( विद्रोही ) संपादक – विद्रोही आवाज

‘‘यतोऽभ्युदयनिश्रेयससिद्धि: स धर्म:।’’
अपने पारलौकिक धर्म की क्षति/हानि न करता हुआ लौकिक सुख को न्यायपूर्वक व्यवहार करे। जैनधर्म में संग्रहप्रवृत्ति पर अंकुश है। आवश्यकता से अधिक संग्रह पापबन्ध का कारण माना गया हैं परोपकार और धार्मिक कृत्यों में धन का सदुपयोग अपेक्षित है। यद्यपि संयमी साधु जीवन के लिए पूर्ण धन का त्याग आवश्यक है; परन्तु गृहस्थ जीवन में न्यायनीति से अर्जित किया हुआ धन ही सार्थक हैवह गृहस्थ जो कोड़ी न रखे तो कोड़ी का है; वह श्रमण जो कोड़ी रखे तो कोड़ी का है। एक की शोभा माया और रागरंग और एक की शोभा नग्न काया त्याग संग।
मनुष्य अपने भविष्य की सुरक्षा परिवार के पालनपोषण और सामाजिक दायित्व निभाने के लिए धन संचय करे। जैन धर्मानुसार व्यक्ति अपनी सम्पत्ति का परिसीमन करके अतिरिक्त धन को लोक कल्याण में लगाये। परिग्रह की मर्यादा का सर्वप्रथम सन्देश भगवान महावीर ने दिया। जिसका प्रयोजन व्यक्ति संयम से लेकर समाज में सम वितरण था। सामाजिक शक्ति के महत्त्व को समझने एवं समानवादी अर्थव्यवस्था का विचारों में सूत्रपात करने वाले महावीर पहले ऐतिहासिक महापुरुष थे।
समाजवादी अर्थव्यवस्था के सन्दर्भ में जैनधर्म के अपरिग्रहवाद को समझना होगा। स्थूलरूप में परिग्रह में धनधान्य, चलअचल, सम्पत्ति आदि है। महावीर के मौलिक और सूक्ष्म चिन्तन ने स्थूल (बाह्य) परिग्रह से आगे बढ़कर उसके अन्तरंग प्रभाव को आंका। उन्होंने आन्तरिक परिग्रह के नियंत्रण पर जोर दिया उन्होंने परिग्रह की सूक्ष्म व्याख्या कीमूच्र्छा परिग्रह: अर्थात् मूच्र्छा (आसक्ति) परिग्रह है। परिग्रह की सूक्ष्म परिभाषा में उन्होंने सम्पत्ति के प्रति आसक्ति को परिग्रह का मूल कारण कहा।
यदि मनुष्य के मन में ममत्व प्रमाद है तो वास्तव में सम्पत्ति पास में न होते हुए भी सम्पत्ति पाने की लालसा तीव्र होगी। तदर्थ उसके प्रयास आक्रामक होंगे। आधुनिक भाषा में वह पूंजीपति नहीं होते हुए भी पूंजीवादी होगा। दूसरी ओर एक मनुष्य के पास अपार सम्पत्ति होते हुए भी यदि उसका उसमें ममत्व नहीं है तो उसका जीवन कीचड़ में रहते हुए कमल के समान हो सकता है, जिससे वह उदार मन होगा। महात्मा गाँधी की भाषा में वह समाज की सम्पत्ति का ट्रस्टी मात्र होगा। इस प्रकार सम्पत्ति के स्वामित्व का प्रश्न परिग्रह में मूच्र्छा की भावना पर निर्भर है। भगवान महावीर ने कहा व्यक्ति सम्पत्ति के प्रति आसक्ति मिटावे और त्याग/दान की प्रवृत्ति अपनावे। परिग्रहपरिमाण व्रत के द्वारा उपभोग्य पदार्थों को समाज में समान रूप से वितरण करे। वस्तुत: महावीर के अपरिग्रहवाद की मूल प्रेरणा में व्यक्तिगत के साथ सामाजिक हित भी समाविष्ट है; जिसमें गृहस्थ में रहते हुए भी व्यक्ति की सामाजिक निष्ठा जागृत रहे।
यहाँ यह विशेष उल्लेखनीय है कि जैनधर्म के अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह के सिद्धान्त स्वयं समाजवादी अर्थव्यवस्था की दार्शनिक रूपरेखा है। इन सिद्धान्तों के परिपाश्र्व में ही आधुनिक समाजवादी दर्शन को भी नवीन रूप देकर सर्वप्रिय बनाया जा सकता है। भगवान महावीर के सिद्धान्तों ने सामाजिक शक्ति की सम्यक् व्यवस्था के अभ्युदय को प्रेरणा दी है। अत: तीर्थंकर वर्धमान महावीर को समाजवादी अर्थव्यवस्था का प्रवर्तक कहा जा सकता है। महावीर के सिद्धान्तों में वह क्षमता विद्यमान है। जो समाजवादी अर्थव्यवस्था को समन्वित रूप प्रदान कर समाज में सामंजस्य पैदा करती है। जैनधर्म के परिप्रेक्ष्य में समाजवादी अर्थव्यवस्था इस प्रकार है
१.परिग्रह और उसके ममत्व का त्यागसमाजवादी अर्थव्यवस्था के लिए यह सर्वाधिक प्रेरणाप्रद है। आसक्ति या ममत्व घटाने या मिटाने का भावनामूलक उपाय तो समाजवादी अर्थव्यवस्था का मूल आधार है। इसमें व्यक्तिगत स्वामित्व का स्वेच्छापूर्वक त्याग महत्त्वपूर्ण है। व्यक्तिगत स्वामित्व में मोह की सत्ता रहती है। जबकि सामाजिक सम्पत्ति में व्यक्ति का मोह नहीं होता। जब समाजगत अर्थव्यवस्था होती है तो उसमें व्यक्ति का कत्र्तव्य समाज के प्रति सजग रहता है। जैसेएक सेठ का नौकर सेठ की सम्पत्ति संभालते हुए भी उसका मालिक नहीं है। धर्मशाला की सम्पत्ति मैनेजर के अधीन होती है, किन्तु उसमें उसका ममत्व नहीं होता। अत: उसके उपयोग में समानता का व्यवहार होता है।
२. सम्पत्ति के संचय का विरोधसंचयवृत्ति ने समाज की प्रगति में सर्वाधिक प्रभाव डाला है। इस कारण अर्थसंग्रह के आधिक्य को रोकना समाजवादी अर्थव्यवस्था का प्रथम कर्तव्य है। भगवान महावीर ने सम्पत्ति के संचय का विरोध करके आर्थिक विकेन्द्रीकरण का मार्ग प्रशस्त किया है। संचय को पदार्थ के प्रति आसक्ति माना। आसक्ति को आत्मपतन की सूचिका बताया। साधु तो सम्पत्ति का सर्वांशत: त्याग करता ही है। वह सम्पत्ति को किसी रूप में स्पर्श तक नहीं करता। परन्तु गृहस्थ श्रावक को भी सम्पत्ति के सम्बन्ध में अधिकाधिक मर्यादा पूर्वक जीवन व्यतीत करने का निर्देश जैनधर्म में दिया गया है, जो व्यक्ति व समाज के सुख का कारण है।
३. मर्यादा से पदार्थों के सम वितरण की उदात्त भावनागृहस्थ व्यक्ति सम्पत्ति के सहयोग से अपने गृहस्थ जीवन का निर्वाह करता है। परिग्रह परिमाण व्रत का एक उद्देश्य तो यह है कि सम्पूर्ण समाज में पदार्थों का समान रूप से वितरण हो सके, क्योंकि मर्यादा परिग्रहपरिमाण से सीमित हाथों में सीमित पदार्थों का केन्द्रीकरण नहीं हो सकेगा। महावीर को यह मान्य नहीं था कि एक व्यक्ति तो असीम मात्रा में सुखसुविधा के पदार्थों का संग्रह करे और दूसरा उनके अभाव में पीड़ित होता रहे। वितरण के विकेन्द्रीकरण की विचारणा उस समय ही महावीर ने कर ली थी, जो आज समाजवादी अर्थव्यवस्था की दृष्टि से श्रेष्ठ विधि है।
४. स्वैच्छिक अनुशासनसामाजिक अर्थव्यवस्था वही स्थिर हो सकेगी, जो स्वैच्छिक अनुशासन के बल पर जीवित रहेगी ऊपर से थोपी गई श्रेष्ठ बात को भी हृदय सहज में ग्रहण नहीं करता। अत: आधुनिक समाजवादी दर्शन में स्वैच्छिक अनुशासन (निज पर शासन फिर अनुशासन) को अपना लिया जावे, तो समाजवादी अर्थव्यवस्था अधिक स्थिर हो सकेगी।
५. विचार और आचार में समनव्यकिसी भी समाजवादी अर्थव्यवस्था के लिए यह आवश्यक है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने आचारविचार को दूसरे के साथ समन्वित करने की चेष्टा करे। यह समन्वय जितना गहरा होगा, उतना ही व्यवस्था का संचालन सहज होगा। अनेकान्त और अहिंसा के सिद्धान्त ऐसे ही समन्वय के प्रतीक हैं। आचरण में अहिंसा, विचारों में अनेकान्त, वाणी में स्याद्वाद और समाज में अपरिग्रहवादइन्हीं चार मणिस्तम्भों पर जैनधर्म का सर्वोदयी प्रासाद अवस्थित है। जैनाचार्यों ने समयसमय पर इसी प्रासाद की सुरक्षा की हैं
समाजवादी अर्थव्यवस्था के सन्दर्भ में महावीर से माक्र्स तक जो दार्शनिक विचारधारा प्रवाहित हुई, उसमें अधिक विभेद नहीं है, अपितु इस धारा को प्रवाहित करने का अधिक श्रेय महावीर को ही है। यह श्रेय इसलिए भी अधिक महत्त्वपूर्ण है कि ढाई हजार वर्ष पूर्व जिस समय समाजवादी शक्ति का कल्पना में भी आविर्भाव नहीं था, उस समय महावीर ने इस समाजवादी अर्थव्यवस्था के प्रेरक सूत्रों को अपने सिद्धान्तों में समाविष्ट किया। वस्तुत: महावीर के अनेकान्त (स्याद्वाद) अहिंसा और अपरिग्रह के सिद्धान्त समाजवादी अर्थव्यवस्था की दार्शनिक रूपरेखा है, जिनके आलोक में इस अर्थव्यवस्था को सर्वप्रिय बनाया जा सकता है। महावीर द्वारा उपदिष्ट ये सिद्धान्त जैनधर्म के सिद्धान्त समाजवादी अर्थव्यवस्था के सुचारू रूप से निर्धारण की दृष्टि से आज भी प्रभावशाली और प्रासंगिक हैं। ये सिद्धान्त व्यष्टि और समष्टि के हितार्थ पूर्णत: सार्थक हैं। जैनधर्म के श्रावकाचार के पांच अणुव्रतों का अनुपालन सुखमय जीवन निर्वाह का प्रशस्तीकरण है। जैनधर्म का सन्देश है कि सुखी जीवन के लिए संयमाचरण भोगोपभोग की वस्तुओं का नियंत्रण और अल्प आरम्भ परिग्रह मनुष्य जीवन की सार्थकता है।
जैन गृहस्थ अपनी आय में से आहार, औषध, अभय और ज्ञान दान के निमित्त राशि निकालना अपना परम कर्तव्य समझता है। इस प्रकार के दानों से समाज में सन्तुलन रहता है जो समाजवादी विचारधारा का महत्त्वपूर्ण बिन्दु है। समाज के सभी लोकोपकारी कार्यों में अपने अर्जित धन में से वितरण समाज की अर्थव्यवस्था को सन्तुलन देता है। जैनधर्म की यह समाजवादी अर्थव्यवस्था परिग्रहपरिमाण व्रत से पुष्ट होती है जो व्यक्तिगत और समाजगत दोनों के लिए सुखी व्यवस्था का प्रमुख आधार है। मगर समाजवादी अर्थ व्यवस्था जैन समाज की विघटन की ओर जा रही है 

जैन विद्या के आकर्षण मे केसे बंधे भावी पीढ़ी

जैन विद्या के आकर्षण मे केसे बंधे भावी पीढ़ी
         लेखक – उत्तम जैन ( विद्रोही ) संपादक – विद्रोही आवाज

जैन विद्या  ज्ञान का अथाह सागर है क्योंकि इसके द्वारा जीवन का सार, सृष्टि के सकल जीवों की विस्तृत जानकारी सहित अन्य महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है। जैन विद्या मे अनुशासन का बड़ा महत्व है बांध बनाकर एकत्रित किया गया, और नहरों के कूल-किनारों में अनुशासित करके बहाया गया वह पानी जिस तरह रेगिस्तान को भी हराभरा कर देता है। परन्तु जब कभी वही पानी बाढ़ का प्रकोप बनकर, एकदम अनियन्त्रित होकर लक्ष्यविहिन और दिशा विहिन प्रवाहित होने लगता है तब उसी जल से प्रलय का दृश्य उपस्थित हो जाता है। चारों ओर विनाश ही विनाश दिखाई देने लगता है। नियन्त्रण के अभाव में किया गया विकास प्रगति समृद्धि का कारण न होकर विनाश का कारण बन जाता है। जीवन के सारे स्वप्न उसमें विलीन हो जाते हैं। अनुशासित शिक्षा वह जल का प्रवाह है जो शक्ति संपन्न होता है। परन्तु उस शक्ति का उपयोग यदि अनुशासन के साथ होगा तो वह सृजन का कारण होगा और यदि लक्ष्य विहीन होकर अनियंत्रित ढंग से बहता है तो वही विनाश का कारण भी बन सकता है। अपने आप पर नियंत्रण करना ही सबसे बड़ा अनुशासन हैअपने आप पर नियंत्रण किये बिना इन्द्रिय संयम नहीं होता और इंन्द्रिय संयम के बिना जीव स्वयं की स्वाधीनता मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकते  !
बस ऐसे ही आज अनुशासन विहिन शिक्षा की स्थिति है। इस अनुशासन मे हमारी देश व समाज की भावी पीढ़ी आधुनिकता की चकाचोंध मे धूमिल न हो जाए हमारे समाज व देश की भावी पीढ़ी को अनुशासन मे रहने की शिक्षा की जरूरत है ओर यह शिक्षा जैन विद्या मे प्राप्त हो सकती है ! अनुशासन बहुत ही जरूरी है। अश्व को लगाम, हाथी को अंकुश, ऊँट को नकील और साइकिल के लिए ब्रेक जरूरी है। ब्रेक है तो सुरक्षा, नहीं तो एक्सीडेन्ट । लगाम है तो हार्सपावर (अश्व) नियंत्रित अन्यथा अनियन्त्रित। अंकुश है तो हाथी राह पर नहीं तो उन्मत्त स्वच्छन्द। सच ही तो कहा है कि ब्रेक है तो कार नहीं तो बेकार। ऐसी स्थिति में जीवन की गाड़ी का क्या होगा ? यह हर परिवार को समझ कर अपने भावी पीढ़ी को जैन विद्या के प्रति जागरूक करना चाहिए माता पिता स्वयं जैन विद्या के प्रति जागरूक रहेंगे तो उनकी भावी पीढ़ी उनका अनुसरण करेगी तभी जैन विद्या के प्रति उनका आकर्षण होगा उनमे संस्कार निर्माण होगा आचार्य श्री तुलसी ने एक नारा दिया मुझे ज्ञात है उस समय छोटे छोटे गांवो मे दीवारों पर खूब लिखा जाता था निज पर शासन फिर अनुशासन गुरुदेव आचार्य तुलसी की दुरद्रष्टि ही थी उनकी भावी पीढ़ी  के प्रति चिंता ही थी की संस्कार व अनुशासन से  अगर भावी पीढ़ी भ्रमित हो गयी तो हमारे समाज का अस्तित्व खतरे मे आ जाएगा ओर जैन विद्या का मूल सारांश ही यही है अहिंसा अनुशासन ओर संस्कार जिसे हमारी भावी पीढ़ी को देने है हमारे परिवार व समाज का दायित्व है हमारी भावी पीढ़ी को जैन विद्या के गहन अध्ययन की ओर प्रेरित करे