Tuesday 28 February 2017

68 वा अणुव्रत स्थापना दिवस 1 मार्च 2017 पर विशेष - उत्तम जैन (विद्रोही )

अणुव्रत का प्रारंभ आचार्य तुलसी (तेरापंथ धर्म संघ के नोवें आचार्य) द्वारा 1 मार्च 1949 में राजस्थान के सरदारशहर कस्बे में हुआ। उस समय एक और देश सांप्रदायिक ज्वाला में जल रहा था, वहां दूसरी और सभी प्रमुख लोग देश के भौतिक निर्माण में विशेष अभिरूचि ले रहे थे | अणुव्रत आन्दोलन ने सांप्रदायिक सौहार्द के लिए सभी धर्म-सम्प्रदाय के प्रमुख -पुरुषों को एक मंच पर लाकर यह समझाने की कौशिश की गयी कि धर्म के मौलिक सिदान्त एक हैं। जो भिन्नता दिखाई दे रही है वह या तो एकांत आग्रह कि देन है या फिर सांप्रदायिक स्वार्थों के कारण उसे उभरा जा रहा है। इस द्रष्टि से विशाल सर्व धर्म सदभाव सम्मलेन आयोजित किये गए और अणुव्रत का मंच एक सर्वधर्म सदभाव का प्रतिक बन गया। भारतीय धर्म सम्प्रदायों के अतिरिक्त इसाई तथा मुसलमान सम्प्रदायों के साथ भी एक सार्थक संवाद बना और अनेक ईसाई तथा मुसलमान लोगों ने भी अणुव्रत के प्रचार-प्रसार में रूचि दिखाई। जगद्गुरु शंकराचार्य, दलाई लामा, ईसाई पादरी, मुसलमान संतो ने भी इसमें भाग लिया।
आचार्य तुलसी द्वारा अणुव्रत : आचार संहिता बनाई गयी जो 68 वर्ष पूर्व भविष्य को देखकर जो अणुव्रत : आचार संहिता बनाई वह आज वर्तमान मे देखा जाए सबसे जरूरी है ! ......
मैं किसी भी निरपराध प्राणी का संकल्पुर्वक वध नहीं करूँगा |
आत्म हत्या नहीं करूँगा |
भ्रूण हत्या नहीं करूँगा |
मैं आक्रमण नहीं करूँगा |
आक्रामक नीति का समर्थन नहीं करूँगा |
विश्व शांति तथा निःशस्त्रीकरण के लिए प्रयत्न करूँगा |
मैं हिंसात्मक एवं तोड़-फोड़ -मूलक परवर्तियों में भाग नहीं लूँगा |
मैं मानवीय एकता में विश्वास करूँगा |
जाती, रंग आदि के आधार पर किसी को उंच-नीच नहीं मानूंगा |
अस्पर्श्यता नहीं मानूंगा |
मैं धार्मिक सहिष्णुता रखूँगा |
सांप्रदायिक उतेजना नहीं फेलाऊंगा|
मैं व्यवसाय और व्यवहार में प्रामाणिक रहूँगा|
अपने लाभ के लिए दूसरों को हानि नहीं पहुंचाउंगा |
छलनापूर्ण व्यवहार नहीं करूँगा |
मैं ब्रह्मचर्य की साधना और संग्रह की सीमा का निर्धारण करूँगा |
मैं चुनाव के संबध में अनैतिक आचरण नहीं करूँगा |
मैं सामजिक कुरुढीयों को प्रश्रय नहीं दूंगा |
मैं व्यसन मुक्त जीवन जियूगा |
मादक पदार्थों का ---शराब, गंजा, चरस, हेरोइन, भांग, तंबाकू आदि का सेवन नहीं करूँगा |
मैं पर्यावरण की समस्या के प्रति जागरूक रहूँगा|
हरे-भरे वृक्ष नहीं काटूँगा|
पानी, बिजली, आदि का अपव्यय नहीं करूँगा |(अणुव्रती के लिए सम्बंधित वर्गीय अणु व्रतों का पालन अनिवार्य है)
अणुव्रत आंदोलन के प्रहरी व अणुव्रत अनुशास्ता आचार्य तुलसी द्वारा प्रतिपादित नैतिक मूल्यों से ओत प्रोत जाती सम्प्रदाय से मुक्त छोटे छोटे नियमो से आम जन में कैसे नैतिकता का विकास हो जीवन के नैतिक मूल्यों के हास्य को बचाया जा सके इसके लिये इसकी स्थापना की । साधुओं के व्रत को यदि उत्कृष्ट मार्ग कहा जाए और हिंसा व बुराईयों के मार्ग को अधम मार्ग कहा जाए तो इन दोनों मार्गों पर न चल पाने वाले मानवों के जीवन के लिए अणुव्रत का मध्यम मार्ग बनता है। साधुओं के पांच महाव्रत होते हैं, जिनका पालन साधारण मानव के लिए मुश्किल हो सकता है और आदमी पूर्णतया अधम का मार्ग भी नहीं अपना सकता तो उसके लिए अणुव्रत एक ऐसा माध्यम है जो उसके जीवन को सुख, शांति व समृद्धि की ओर ले जाता है। इसकी एक आदर्श आचार संहिता बनाई आचार्य तुलसी ने। उन्होंने इसका शुभारंभ इस आधार पर किया कि अणुव्रत के नियमों का पालन करने वाले के लिए किसी जाति, धर्म व संप्रदाय का होने कोई मायने नहीं रखता। यहां तक कि जिस व्यक्ति को किसी भी धर्म में आस्था ना हो, वह नास्तिक हो तो अणुव्रत का अनुपालन कर सकता है।आचार्य तुलसी ने अणुव्रत के रूप में एक दीपक जलाया जो आज हजारों दीपकों को जला मानव जीवन को अंधकार से दूर करने का काम कर रहा है। आज आदमी के जीवन में हिंसा, लोभ, मोह, गुस्सा आदि का जो अंधकार फैला हुआ है उसे इस अणुव्रत के छोटे-छोटे नियम से दूर भगाया जा सकता है। सभी नियम एक दीए के समान हैं जो मानव जीवन को प्रकाशित करने का काम कर रहे हैं। जीवन के अंधकार को दूर करने के लिए अणुव्रत की दीप मालाएं सभी को जलानी होगी। अणुव्रत के आधार के तीन संकल्प सद्भावना, नैतिकता व नशामुक्ति में अणुव्रत का सार समाहित हो गया है। क्योंकि हिंसा, चोरी, गुस्सा आदि ही तो आदमी की जीवन की सभी बुराईयों का जड़ है। इन बुराइयों को ही समाप्त करने के लिए अणुव्रत का शुभारंभ हुआ तथा अणुव्रत का सार बन गया सद्भावना, नैतिकता व नशामुक्ति। आचार्य श्री तुलसी के बाद अणुव्रत को जन-जन तक पहुंचाने के लिए आचार्य महाप्रज्ञ जी ने राजस्थान से कन्याकुमारी व राजस्थान से कोलकाता सहित देश के कई राज्यों का भ्रमण कर लोगों में इस दीप प्रज्जवलित किया। अणुव्रत की आवश्यकता इसलिए हुई क्योंकि इस कलियुग में आज हर व्यक्ति में त्याग की चेतना की जगह भोग चेतना, पदार्थ चेतना, स्वार्थ चेतना ही घर कर रही है। व्यक्ति अपने मूल उद्देश्य से भटकता जा रहा है। भारत की आजादी के बाद तो धर्म और देश ती परिस्थितियां काफी बदल चुकी है। देखा जाये तो पूर्व पश्चिम में समा रहा है तो पश्चिम पूरब की तरफ आ रहा है। सभी सुख चाहते है। सुख तो कही भी मिल सकता है। लेकिन लोगों में उसे खोजने का तरीका अलग-अलग है। लोग स्वार्थ में, पदार्थ में या भोग में सुख की खोज करते है जबकि परम सुख है अणुव्रत और संयम। अणुव्रत के नियमों का पालन करके चरित्र निर्माण किया जा सकता है।
जिस देश के नागरिकों का चरित्र अच्छा होता है वह राष्ट्र हमेशा उन्नत रहता है। उन्होंने कहा कि सभी कहते है जियो और जीने दो, लेकिन इसके साथ संयम शब्द को और जोडकर कहना चाहिये कि संयम से जीयो और संयम से जीने दो। अणुव्रत का मतलब है छोटे-छोटे व्रत। श्रावक वह है जिसके जीवन में व्रत होते है। इन व्रतों से व्यक्ति अपनी चेतनाओं को विकसित कर सकता है। जब तक 12 व्रतों की उपासना हम नही करेंगे तब तक जैनी नही कहलायेंगे। यदि हम एक समान तपस्या करेंगे तो सभी एक समान ही बनेंगे। हमें तीर्थंकरों के जीवन से प्रेरणा लेकर कषायमुक्त जीवन जीने की कला सीखनी चाहिये। अणुव्रत का सिद्धान्त लोगों को प्रेरणा देता है और अहिंसक बनाने में सहायक सिद्ध हो सकता है।
लेखक - उत्तम जैन ( विद्रोही )
प्रधान संपादक - विद्रोही आवाज़ 

स्टेम सेल सेकड़ो रोगों का एक उपचार

स्टेम सेल (Double Stem cell )
पूर्ण रूप से प्राकृतिक चिकित्सा
स्विट्ज़रलैंड के प्राकृतिक जंगलो में २०० साल पुराने एप्पल के पेड़ है जिसके एप्पल पेड़ से निचे गिरने के बाद ३ १/२ महीनो तक पेड़ से अलग होने के बावजूद भी ताज़ा फ्रेश रहते है. इसका कारण जानने के लिए शोध किया गया स्विट्ज़रलैंड मे शोध में पाया गया की इस Malus Domestica Apple में वही Embryonic stem cells है जो गर्भ में पल रहे बच्चे की नाड़ में होता है , जो माता से गर्भ में बच्चे से जुड़ा होता है. नाड़ में वो Embryonic stem cells होते है जिससे गर्भ में पूर्ण बच्चे का विकास और उसके अवयवो का निर्माण होता है .
आज भारत में रिलायंस नवजात बच्चो की stem cells की नाड़ जन्म के बाद सुरक्षित रखने का काम कर रही है.
ताकि उस बच्चे को बड़े होने पर यदि कोई बीमारी होती है तो उस बच्चे की नाड़ जो सुरक्षित रखी गयी है उसमे से Embryonic stem cells निकालकर उसके शरीर में डाल सके क्योकि Embryonic stem cells में इतनी ताकत होती है की उससे उसी व्यक्ति के पूर्ण अवयव या कह सकते है की उसीका पूर्ण शरीर बनाया जा सकता है. आप समज सकते है की बच्चे की नाड़ सुरक्षित रखने का काम रिलायंस कितनी सफलता पूर्वक कर रही है. क्योकि stem cells सुरक्षित preserve करने का खर्च काफी ज्यादा है और इस काम की ब्रांड अम्बेसडर ऐश्वर्या राय बच्चन है उन्होंने अपनी बच्ची आराध्या बच्चन की नाड़ Embryonic stem cells सुरक्षित करके रखी है. हर व्यक्ति की नाड़ सिर्फ उसी के लिए उपयोग में लायी जा सकती है क्योकि सभी का DNA अलग अलग है
अब जिनके पास अपनी नाड़ अम्ब्रियनिक स्टेमसेल्स सुरक्षित करके रखी हुई नहीं है उनके लिए क्या?
इसीलिए Embryonic stem cells का रिसर्च किया गया जो सभी मानव जाती को बिमारिओ से मुक्त कर सके और नतीजा निकला स्विट्ज़रलैंड के Malus Domestica Apple में. इसके स्टेमसेल्स Embryonic stem cells है और इसके पेड़ में खुद को ठीक HEAL करने की अद्भुत क्षमता है. और नयी डबल स्टेमसेल्स थेरेपी सामने आई जिससे खराब हो चुके सेल्स का, अवयवो का पुनः निर्माण होता है. यह आज तक की सबसे बड़ी खोज है जिसका पेटेंट किया गया है.
Malus Domestica Apple से Embryonic stem cells निकालकर साथ में Grape stem cells, Acai berry और Blue berry मिलायी गयी जो Nutrition का नैसर्गिक भण्डार है. इसे मिलाने की वजह यह है की नए सेल की निर्मिति और पोषण के लिए भरपूर Nutrition की आवश्यकता होती है और शोध में यह पाया गया की , Acai berry के निरंतर सेवन से , AMAZON के आदिवासी १२५ से १५० साल तक जीते है . इसी कारण इसका सीधा फायदा आपको आपकी जीवन आयु बढ़ाने में होगा. जो की साइंटिफिक तथ्य है.
Double Stemcell 134 से भी ज्यादा बीमारियो पर पूर्ण रूप से कारगर है उन में से कुछ मुख्य बीमारियो से काफी अधिक संख्या में मानव जाती पीड़ित ह
Double Stemcell द्वारा आपको पूर्ण रूप से इन बीमारियो से निदान मिलेगा .
शोध से पता चला है की       Double Stemcell का सेवन करने से मनुष्य के शरीर के 80% stem cells Activate और Regenerate होते है.
डबल स्टेमसेल्स शरीर को Vitality , त्वचा के cells को सुरक्षा , बाहरी वातावरण और तनाव से बचाव और बढाती उम्र के प्रभाव से बचाता है और स्किन को Younger बनाता है .
यह Anti-aging और पूर्ण रूप से सारे cells का regeneration करता है.
आपके अवयवो के बेकार हो गए सेल्स का पुनः निर्माण करता है. जिससे आपके अवयव पूर्णरूप से ठीक होकर ठीक से काम करने लगते है और बिमारी का नामोनिशान मिट जाता है.
Brain problems, Cancer, Diabetes जैसी अन्य सभी गंभीर बीमारियो से मुक्ति पाने के लिए               Double Stemcell पूर्ण रूप से कारगर है. आप खुद ही इसके सेवन से 72 घंटो में बदलाव महसूस करेंगे. Diabetes से सड़ चुके घाव के कारण पैर काटने पड सकते थे पर               Double Stemcell के सेवन से 48 घंटो में घाव भरने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है और पैर कटवाने से बच Jaate Hain aap तथा Diabetes के कई रोगियों को इन्सुलिन लेने की आवश्यकता ख़त्म हो गयी. जिन्हे Heart disease है उनके Heart मजबूत होकर फिर अच्छी तरह कार्य करने लगे और वे सभी ऑपरेशन से बच गए. अभी वह  Double Stemcell के साथ अपना स्वस्थ जीवन व्यतीत कर रहे है.
अब आपको ही सोचना है की हमेशा महँगी गोलिया और महँगी फीस देकर बिमारी के साथ आपको जीना है या फिर       Double Stemcell के साथ रोगमुक्त होकर आपको स्वस्थ जीवन जीना है.
आज ला इलाज बीमारी जैसे
एड्स
कैंसर
पार्किन्सन
डायबिटीज
सोरोसिस
सफ़ेद दाग
लकवा
पोलियो
सेरिब्रल पाल्सी
हेमी परलायिसेस
अर्थराई टिस
बाँझ पन
नपुंसकता
गंजा पन
बीमारी को ठीक कर रही है
ये दवा आयुर्वेद के सिधान्तो पर आधारित है
तो आपके परिवार में आपके पड़ोस में और आपके समाज में यदि ऐसे मरीज है ।
इसी " double स्टेम सेल " के उपयोग से हम अपना जिवन सुखमय, बिना बिमारी या तकलीफ के जी सकते हैं । अपने खुद के लिए, परिवार के सदस्यों के लिए, मित्र परिवार के सदस्यों को इस  के बारे में जानकारी दे के उनको दुखों से आप बचा सकते हो ।
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Monday 27 February 2017

रात्रि भोजन निषेध क्यों

विचारणीय विषय--

बंदर कभी बीमार नहीं होता

किसी भी चिडिया को डायबिटीस नही होता  है ।

किसी भी बंदर को हार्ट अटैक नहीं आता ।

कोई भी जानवर ना तो आयोडीन नमक खाता है और ना ब्रश करता है फिर भी किसी को थायराइड नहीं होता और ना दांत खराब नहीं होता है । *

बंदर मनुष्य के सबसे नजदीक है, शरीर संरचना में बस बंदर और आप में यही फर्क है की बंदर के पूँछ है आपके नहीं है बाकी अब कुछ समान है ।

तो फिर बंदर को कभी भी हार्ट अटैक, डायबिटीस , high BP , क्यों नहीं होता है ?

एक पुरानी कहावत है बंदर कभी बीमार नहीं होता और यदि वीमार होगा तो जिंदा नहीं बचेगा मर जाएगा ? क्यों बंदर बीमार क्यों नहीं होता?

राजीव भाई बताते हैं कि एक बहुत बडे , प्रोफेसर है, मेडिकल कॉलेज में काम करते है । उन्होंने एक बडा गहरा रिसर्च किया ।की बंदर को बीमार बनाओ ! तो उन्होने तरह - तरह के virus और वैक्टीरिया बंदर के शरीर मे डालना शुरू किया, कभी इंजेक्शन के माध्यम से कभी किसी और माध्यम से । वो कहते है, मैं 15 साल असफल रहा , लेकिन बंदर को कुछ नहीं हुआ ।

राजीव भाई ने प्रोफेसर से कहा की आप यह कैसे कह सकते है की बंदर को कुछ नहीं हो सकता ? तब उन्हांने एक दिन यह रहस्य की बात बताई वो आपको भी बता देता हूँ कि बंदर का जो RH factor दुनिया है वह दुनियाँ में सबसे आदर्श है ।  कोई डॉक्टर जब आपका RH factor नापता है ना ! तो वो बंदर के ही RH Factor से तुलना करता है , वह डॉक्टर आपको बताता नहीं यह अलग बात है ।

उसका कारण यह है कि, उसे कोई बीमारी आ ही नहीं सकती । उसके ब्लड में कभी कॉलेस्टेरॉल नहीं बढता , कभी ट्रायग्लेसाईड नहीं  बढती , ना ही उसे कभी डासबिटीस होती है । शुगर को कितनी भी बाहर से उसके शरीर में इंट्रोडयूस करो, वो टिकती नहीं । तो वह *प्रोफेसर साहब कहते है कि, यार यह यही चक्कर है , की बंदर सवेरे सवेरे ही भरपेट खाता है । जो आदमी नहीं खा पाता है , इसीलिए उसको सारी विमारियां होती है । सूर्य निकलते ही सारी चिड़िया , सारे जानवर खाना खाते हैं । *जबसे मनुष्य इस ब्रेकफास्ट , लंच , डिनर के चक्कर में फंसा तबसे मनुष्य ज्यादा बीमार रहने लगा है ।*

तो वह *प्रोफेसर रवींद्रनाथ शानवागने अपने कुछ मरींजों से कहा की देखो भैया , सुबह सुबह भरपेट खाओ । उनके कई मरीज है तो उन्होंने सबको बताया कि सुबह - सुबह भरपेट भोजन करो ।  उनके मरीज बताते है की, जबसे उन्हांने सुबह भरपेट खाना शुरू किया तबसे उन्हें डासबिटीस यानि शुगर कम हो गयी, किसी का कॉलेस्टेरॉल कम हो गया, किसी के घटनों का दर्द कम हो गया , किसी का कमर का दर्द कम हो गया गैस बनाना बंद हो गई,  पेट मे जलन होना, बंद हो गयी नींद अच्छी आने लगी ….. वगैरह ..वगैरह । और यह बात बागभट्ट जी 3500 साल पहले कहते हैं कि सुबह का किया हुआ भोजन सबसे अच्छा है । माने जो भी स्वाद आपको पसंद लगता है वो सुबह ही खाईए ।

तो सुबह के खाने का समय तय करिये । तो समय मैने आपका बता दिया कि सूरज निकलने से ढाई घंटे तक यानि 9.30 बजे तक, ज्यादा से ज्यादा 10 बजे तक आपका भरपेट भोजन हो जाना चाहिए । और ये भोजन तभी होगा जब आप नाश्ता बंद करेंगे । यह नास्ता का प्रचलन हिंदुस्थानी नहीं है , ये अंग्रेजो की देन है , और रात्रि का भोजन सूर्य अस्त होने से पहले आधा पेट कर लें । तभी बीमारियों से बचोगे । सुबह सूर्य निकलने से ढाई घंटे तक हमारी जठराग्नि बहुत तीव्र होती है । हमारी जठराग्नि का संबंध सूर्य से है , हमारी जठराग्नि सबसे अधिक तीव्र स्नान के बाद होता है । स्नान के बाद पित्त बढ़ता है इसलिए सुबह स्नान करके भोजन कर लें । तथा एक भोजन से दूसरे भोजन के बीच ४ से ८ घंटे का अंतराल रखें बीच में कुछ ना खाएं । और दिन डूबने के बाद बिल्कुल ना खायें ।

Sunday 26 February 2017

कोनसी माँ -माँ तो अपराधिन की तरह सर झुकाए एक तरफ कटघरे में खड़ी है

कोनसी माँ -माँ तो अपराधिन की तरह सर झुकाए एक तरफ कटघरे में खड़ी है
मे बहुत बार देखता हु फेसबूक , व्हट्स अप पर सुबह से शुभकामना संदेश माँ के लिए स्तुति, गुणगान और श्रद्धांजलियाँ ,कोई अपनी मृत माँ के लिए मिस यू माँ तो कोई खुद श्रवण कुमार साबित करने मे लगा रहता है ! अच्छा भी जन्मदायनी माँ के लिए अपने व्यस्त समय से एक दिन के चंद मिनिट तो माँ के नाम ओर माँ की स्तुति के लिए निकले ! पर उत्तम विद्रोही का एक सवाल का जबाव दीजिये - लेकिन माँ है कहाँ.................. ? माँ शब्द प्रकृति का अनमोल शब्द था ! आज इस मातृत्व प्रेम पर मुझे तो प्रकृति आँसू बहाते नजर आ रही है ! माँ तो अपराधिन की तरह सर झुकाए एक तरफ कटघरे में खड़ी है क्यू की आज की माँ का अपराध भी बहुत बड़ा है ! वह है स्वजाति की भ्रूण हत्या का अपराध , स्वयं के मातृत्व हनन का अपराध लेकिन अपना समाज कितना दरियादिल है, माँ माँ की स्तुति व चीख से मेरे कान बहरे हो गए है आज समाज से मे एक सवाल पूछता हु ! क्यों उस औरत को डायन नहीं कहा जाता...........? क्यों उसका सामाजिक बहिष्कार नहीं किया जाता क्यों उसके लिए दुराचारिणी, व्यभिचारिणी या कुलटा जैसा कोई नाम नहीं गढ़ा जाता ? यह तो एक सामाजिक साजिश है उसको पदच्युत करने की उसके गरिमामई स्थान से जरा सोचकर देखिये -- क्या एक ही दिन में हो जाती है कन्या भ्रूण की हत्या ...................? अत्याधुनिक सोनोग्राफी मशीन भी साढ़े तीन महीने लेती हैं बंधुओ .... अरे ! लोगों की रसोई की छोंक का व दूसरे के परिवार मे होने वाली शर्मसार घटना का भी हिसाब रखने वाला दोगला, हमारा समाज क्या ये जान भी नहीं पता की किस घर में अजन्मा शिशु दस्तक दे रहा फिर अचानक कैसे मार दिया जाता है वह अजन्मा भ्रूण.............कन्या बचाओ, बेटी बचाओ , नारी बचाओ, स्त्री बचाओ के नारे लगाने वाला यह समाज क्यों नहीं धिक्कारता उस माँ को जो स्वयं के मातृत्व की हत्या की जिम्मेदार होती है ? मगर क्योंकि – आज का समाज अच्छी तरह जानता है की उसके सारे आंसू घडियाली हैं ! हमारा दो मुंहा समाज जानता है की जिस दिन वो माँ अपनी बेटी के भविष्य को लेकर कुछ सवाल समाज के मुहं पर करेगी ! यह समाज का मुंह नही खोल पाएगा | पाएगा भी केसे क्यूकी आज समाज नपुसंक जो हो गया है !
क्या ये समाज एक माँ को ये आश्वासन दे सकता है की पार्क में खेल रही उसकी बेटी दरिंदो द्वारा कभी नोंच कर खाई नहीं जाएगी ? क्या उसकी किशोर होती बेटी बस में , ट्रेन में, मेट्रो में और पब्लिक प्लेस पर अनचाही दृष्टि और घिनौने स्पर्श का सामना नहीं करेगी ? कितने नाजों से पली उसकी बेटी विदा करने के बाद अपने अधूरे स्वप्न और डोली सहित चिता दहेज़ की चिता में नहीं झोंक दी जाएगी ? ऐसी अनेक मौते हैं जो सिर्फ बेटियों को ही उनके बड़े होने से पहले दे दी जाती हैं क्या इससे बेहतर नहीं है की उन्हें गर्भ में ही मार दिया जाए? आप ही बताइए ? कितने प्रतिशत बेटियों को मिलता है पिता की सम्पति में हिस्सा? क्यों स्त्रीधन कहकर दहेज़ के नाम पर खर्च किये जाने वाला धन दो परिवारों की झूठी शानो शौकत की भेंट चढ़ जाता है ? एक और छोटी सी पर बहुत बड़ी बात क्यों नहीं बन पायी वह आज तक अपनी संतान का प्रथम अभिभावक ? सवालों की श्रंखला बहुत लम्बी है उत्तम विद्रोही अगर लिखने लगेगा घंटो, महीनो व वर्षो तक लिखता ही रहेगा इस पर | ऐसे अनगिनत प्रश्न हैं जो हत्यारी माँ द्वारा समाज से पूछे जा सकते हैं | तभी तो अपनी बेटी की हत्या कर के भी क्षम्य है वो माँ, हमारे विशाल ह्रदय समाज द्वारा हत्यारी मा की ममता पर कोई सवाल नहीं उठाया जाता मेरा समाज के ठेकेदारों से अनुरोध है की बंद करो घडियाली आंसू, झूठी चिंता और नारेबाजी यह वास्तव में चिंता का नही चिंतन का विषय है, बेटियों को एक भय मुक्त सामाजिक वातावरण देने का विषय है, फिर देखना कैसे खड़ी हो जाती है माँ अपनी बेटियों की हत्या को रोकने के लिए लेकिन तब तक घटने दो स्त्री धन की संख्या | जब इस नर का तथाकथित पुंसत्व खतरे मैं पड़ेगा, जब लगेगा की द्रौपदी की परंपरा पुनर्जीवित करनी पड़ेगी तब समाज की वास्तविक इच्छाशक्ति जागेगी, तब रुकेगा ये महापाप पर परंतु तब तक आप हमें मातृ दिवस पर बधाइयों स्तुतियों और श्रद्धांजलियों के लिए क्षमा करे ये हम में अपराध बोध जगाता है जब तक किसी एक भी माँ के सर पर उसकी अजन्मी बेटी की हत्या का अपराध होगा तब तक मातृ दिवस बेमानी है निरर्थक है |
उत्तम जैन (विद्रोही )

धीरज हो तो गरीबी का दर्द नहीं होता

 
अधम प्रकृत्ति का मनुष्य केवल धन की कामना करता है जबकि मध्यम प्रकृत्ति के धन के साथ मान की तथा उत्तम पुरुष केवल मान की कामना करते हैं।अगर मनुष्य में धीरज हो तो गरीबी की पीड़ा नहीं होती। घटिया वस्त्र धोया जाये तो वह भी पहनने योग्य हो जाता है। बुरा अन्न भी गरम होने पर स्वादिष्ट लगता है। शील स्वभाव हो तो कुरूप व्यक्ति भी सुंदर लगता है।इस विश्व में धन की बहुत महिमा दिखती है पर उसकी भी एक सीमा है। जिन लोगों के अपने चरित्र और व्यवहार में कमी है और उनको इसका आभास स्वयं ही होता है वही धन के पीछे भागते हैं क्योंकि उनको पता होता है कि वह स्वयं किसी के सहायक नहीं है इसलिये विपत्ति होने पर उनका भी कोई भी अन्य व्यक्ति धन के बिना सहायक नहीं होगा। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो अपने ऊपर यकीन तो करते हैं पर फिर भी धन को शक्ति का एक बहुत बड़ा साधन मानते हैं। उत्तम और शक्तिशाली प्रकृत्ति के लोग जिन्हें अपने चरित्र और व्यवहार में विश्वास होता है वह कभी धन की परवाह नहीं करते।धन होना न होना परिस्थितियों पर निर्भर होता है। यह लक्ष्मी तो चंचला है। जिनको तत्व ज्ञान है वह इसकी माया को जानते हैं। आज दूसरी जगह है तो कल हमारे पास भी आयेगी-यह सोचकर जो व्यक्ति धीरज धारण करते हैं उनके लिये धनाभाव कभी संकट का विषय नहीं रहता। जिस तरह पुराना और घटिया वस्त्र धोने के बाद भी स्वच्छ लगता है वैसे ही जिनका आचरण और व्यवहार शुद्ध है वह निर्धन होने पर भी सम्मान पाते हैं। पेट में भूख होने पर गरम खाना हमेशा ही स्वादिष्ट लगता है भले ही वह मनपसंद न हो। इसलिये मन और विचार की शीतलता होना आवश्यक है तभी समाज में सम्मान प्राप्त हो सकता है क्योंकि भले ही समाज अंधा होकर भौतिक उपलब्धियों की तरफ भाग रहा है पर अंततः उसे अपने लिये बुद्धिमानों, विद्वानों और चारित्रिक रूप से दृढ़ व्यक्तियों की सहायता आवश्यक लगती है। यह विचार करते हुए जो लोग धनाभाव होने के बावजूद अपने चरित्र, विचार और व्यवहार में कलुषिता नहीं आने देते वही उत्तम पुरुष हैं। ऐसे ही सज्जन पुरुष समाज में सभी लोगों द्वारा सम्मानित होते हैं।  इसलिए सज्जनता और धीरज  का कभी त्याग नहीं करना चाहिए। .... उत्तम जैन( विद्रोही)  

Wednesday 22 February 2017

उत्तरप्रदेश जी राजनीति .... समझ से परे

हरेक महल से कहो कि झोपड़ियों में दिये जलाये !
छोटों और बड़ों में अब कोई फ़र्क नहीं रह जाये !
भारत माता की इस धरती पर हो प्यार का !
घर-घर उजियारा यही पैगाम हमारा…
नोटबंदी का शायद यही पैगाम और उद्देश्य था, जो कब पूरा होगा, पता नहीं. नोटबंदी करने वाले और ‘सबका साथ-सबका विकास’ जैसा लोकप्रिय नारा देने वाले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अब यूपी की चुनावी सभाओं में श्मशान और कब्रिस्तान की बात भी करने लगे हैं. कुछ रोज पहले फतेहपुर की चुनावी रैली में भाषण देते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा, ”गांव में अगर कब्रिस्तान बनता है तो श्मशान भी बनना चाहिए, रमज़ान में बिजली मिलती है तो दिवाली में भी मिलनी चाहिए, होली में बिजली आती है तो ईद पर भी आनी चाहिए.” उन्होंने कहा कि सरकार का काम है कि वह भेदभाव मुक्त शासन चलाए. प्रधानमंत्री की कही हुई बातों पर गौर करें तो इसका सीधा सा अर्थ है कि यूपी में समाजवादी पार्टी की सरकार ने धर्म, जाति और क्षेत्रीयता के आधार पर काफी हद तक भेदभाव किया है. बात काफी हद तक सही भी लगती है. सपा ने पिछले कई सालों में जिनके लिए सबसे ज्यादा कार्य किया है, अब उसी मुस्लिम-यादव फैक्टर पर ही उसे पूरा भरोसा है. यह बात किसी से छिपी नहीं है, सब जानते हैं. इसी बात को लेकर यूपी की बहुसंख्यक, खासकर दलित और सवर्ण जनता का जो आक्रोश है, वो न्यूज चैनलों द्वारा आयोजित होने वाले चुनावी बहस के कार्यक्रमों में अक्सर देखने को मिल जाता है.! प्रधानमंत्री मोदी को MY फैक्टर की मजबूत काट के लिए इसके उलट जमीन तलाशनी पड़ रही है. इसलिए वो श्मशान और कब्रिस्तान की बात कहने के बहाने सपा पर ‘मुस्लिम तुष्टिकरण’ करने का अप्रत्यक्ष रूप से आरोप लगाकर बीजेपी के परंपरागत हिन्दू वोटर्स को अपने साथ जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं. इसके साथ ही वो समाजवादी पार्टी के MY समीकरण से इतर दलित, कुर्मी और ब्राह्मण वोटर्स को भाजपा की तरफ खींचने में लगे हैं. मोदी कर्ज से दबे किसानों और गरीबों की बात भी कर रहे हैं, क्योंकि इनकी तादात भी यूपी में बहुत बड़ी है !
पीएम मोदी ने लगभग एक हफ्ते पहले हरदोई में रैली को संबोधित करते हुए कहा था कि यूपी ने मुझे गोद लिया है. यूपी मेरा माईबाप है. मैं माईबाप को नहीं छोड़ूगा. यूपी की चिंता है मुझे. यहां की स्थिति बदलना मेरा कर्तव्य है. जब मोदी ने खुद को यूपी का गोद लिया बेटा बताया तो हंगामा खड़ा हो गया था. एक तरफ जहाँ बाल अधिकार संरक्षण आयोग ने मोदी को नोटिस भेजा तो दूसरी तरफ अखिलेश, राहुल, प्रियंका गांधी और डिंपल यादव सबने मोदी को बाहरी कहकर घेर लिया. कांग्रेस की स्टार प्रचारक प्रियंका गांधी वाड्रा ने मोदी पर हमला करते हुए कहा कि यूपी को किसी बाहरी को गोद लेने की जरूरत नहीं है. राहुल जी के दिल में,उनकी जान में उत्तर प्रदेश है. मजेदार बात ये है कि राहुल और प्रिंयका के पूर्वज यानि नेहरू परिवार कश्मीर से आकर उत्तर प्रदेश में बसे थे. फिरोज गांधी गुजरात से यूपी में आये थे. सोनिया गांधी इटली से यूपी में आईं. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी विशुद्ध भारतीय होते हुए भी यूपी के लिए बाहरी कैसे हैं, यह न सिर्फ सोचने वाली बात है, बल्कि ‘उलटा चोर कोतवाल को डाँटे’ वाली बात है.
उत्तम जैन (विद्रोही )

नैतिकता के प्रतिष्ठाता आचार्य तुलसी ओर अवदान

मेरे जीवन मे गणाधिपति गुरुदेव आचार्य तुलसी तेरापंथ के नवमाचार्य के प्रथम बार दर्शन राणावास चातुर्मास मे किए ! उसके बाद तो बहुत बार दर्शन का लाभ मिला ! गुरुदेव तुलसी के प्रथम दर्शन मे अपनी दादी शोभाग बाई के साथ हुए थे ! जब मे कक्षा 4 मे पढ़ता था ! राणावास चातुर्मास के समय मेरी दादी जो बड़ी धार्मिक प्रवृति की थी ! प्रतिवर्ष चातुर्मास मे 1 से 2 माह गुरुदेव के दर्शन को जाया करती थी ! आज मुझे वह क्षण याद है जब मे गुरुदेव तुलसी के दर्शन कर चरण स्पर्श को लालायित था ! मेरी दादी ने गुरुदेव को कहा ये मेरा पोता है ! गुरुदेव ने मुस्कराते हुए मेरे सर पर आशीर्वाद रूपी हाथ रखा ! गणाधिपति गुरुदेव आचार्य तुलसी के बारे मे जितना लिखे उतना कम होगा ! संक्षिप्त मे जीवन परिचय से अवदान ——
श्री तुलसी ने राजस्थान के चंदेरी (लाडनूं) शहर में प्रसिद्ध खटेड़ परिवार में सन् 1914 में कार्तिक शुक्ल दूज(2 ) को जन्म लिया। माता वंदनाजी ने आप में ऐसे संस्कारों का बीजरोपण किया कि अल्पवय में ही आपके जीवन में अध्यात्म के अंकुर प्रस्फुटित हो गये। आचार्य तुलसी ने 11 वर्ष की उम्र में भागवती दीक्षा स्वीकार कर जैन आगमों का एवं भारतीय दर्शनों का गहन अध्ययन किया। अपने 11 वर्षीय मुनिकाल में 20 हजार पदों को कंठस्थ कर लेना, 16 वर्ष की उम्र में अध्यापन कौशल में पारंगत हो जाना। 22 वर्ष में तेरापंथ जैसे विशाल धर्म संघ के दायित्व की चादर ओढ़कर 61 वर्षों तक उसे बखूबी से निभाई।
लघुता से प्रभुता मिले, प्रभुता से प्रभु दूरी।
चींटी ले शक्कर चली, हाथी के शिर धूरी॥
कवि की इन पंक्तियों का जीवन दर्शन है आचार्य तुलसी का जीवन। लघुता से प्रभुता के पायदानों का स्पर्श करते हुए चिरंतरन विराटता के उत्तुंग चैत्य शिखर का आरोहण कर गणपति से गणाधिपति गुरुदेव तुलसी के रूप में विख्यात नमन उस गण गौरीशंकर को, जिसने गुरुता का विसर्जन कर.वस्तुतः गुरुता के उस गौरव शिखर का आरोहण कर लिया, जहां पद, मद और कद की समस्त सरहदें सिमटकर लघुता से प्रभुता में विलीन हो गईं। सचमुच कितना महान था वह मस्ताना फकीर। जब नेतृत्व की संपूर्ण क्षमताओं के बावजूद अपने उत्तराधिकारी आचार्य महाप्रज्ञ में आचार्य पद संक्रांत कर आचार्य तुलसी ने पद विसर्जन का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया।
आचार्य तुलसी ने अपने जीवनकाल में कई अवदान दिए। चाहे वे अणुव्रत के हों, प्रेक्षाध्यान हों या ज्ञानशाला के। इन सबको अगर अपने जीवन में व्यक्ति अपना ले तो निश्चय ही उसका जीवन सफल है। आचार्य तुलसी ने नैतिक जागरण के लिए काम किया। उन्होंने मानववाद को अपनाया। उन्होंने न सिर्फ तेरापंथ बल्कि समस्त मानव जाति को नए आयाम दिए। 11 का आंकड़ा आचार्य श्री तुलसी के जीवन में बहुत महत्वपूर्ण रहा। 11 वर्ष की आयु में दीक्षित होकर 22 वर्ष की आयु में वे आचार्य पद पर आसीन हुए। फिर साधु-साध्वी संघ में शिक्षा का स्रोत बनाया। आचार्य महाप्रज्ञ के रूप में उन्हें सहयोगी मिला। बाहर से लेकर अंदर तक का विरोध झेला और शिवशंकर बनकर जहर पीते रहे। आचार्य तुलसी ने भविष्य की नब्ज टटोलते हुए अणुव्रत आंदोलन का सूत्रपात किया। छोटे कदमों से लम्बे डग भरते हुए निरंतर सकारात्मक सोच के साथ गरीब की झोंपड़ी से राष्ट्रपति भवन तक अपनी बात पहुंचाई। आचार्य ने श्रमण श्रेणी की स्थापना की। आत्म कल्याण से जीव कल्याण की बातें कहीं। श्रमण शक्ति का विकास किया।
नेतिकता के बिना कोई धार्मिक नहीं हो सकता। व्यक्ति धार्मिक है पर नैतिक नहीं, यह विरोधाभास है। आचार्य श्री तुलसी एक महान् संत थे। जिन्होनें अणुव्रत आन्दोलन के माध्यम से राष्ट्रीय चरित्र के उत्थान के लिए महत्वपूर्ण काम किया। आचार्य श्री तुलसी ने पुरे जीवन में इस बात को स्थापित किया की ” धर्म केवल उपासना की नहीं, यह हमारे आचरण की चीज है।” हमें जागरूकता से धर्म के मर्म को जानना चाहिए। हम जानेंगे तो मानेंगे व तभी इसे हम अंगीकार कर सकेंगे। अणुव्रत के नियमो को स्वीकार करने से व्यक्ति का चरित्र एवं मनोबल उच्च बनता है। अणुव्रत में भ्रष्टाचार व राष्ट्रीय समस्याओं का समाधान निहित है।
आज आचार्य श्री तुलसी के व्यक्तित्व, कृतित्व, आयामों व उनके आदर्शों एवं संदेशों को गहराई से समझना चाहिए। आचार्य श्री तुलसी जैसे महान् व्यक्ति सदियों से जन्म लेते हैं। आचार्य तुलसी ने नारी जागृति, जाति प्रथा को समाप्त करने व छुआछूत हटाने के लिए अभियान चलाया तथा सफलता प्राप्त भी की. करूढ़ियों के निवारण हेतु नया मोड़, नैतिकता की स्थापना के लिए अणुव्रत आन्दोलन आनोदालन प्रारम्भ किया !.जिससे लाखों- करोड़ों व्यक्ति जुड़े उन्होंने संकल्प पत्र भरे . आचार्य तुलसी ने . अणुव्रत के नियम हर वर्ग के लिए बनाये , व्यापारी , विधार्थी , राजनेता , शिक्षक , किसान , धार्मिक संत इत्यादी सभी ने अणुव्रतो को स्वीकार किया ! तुलसी के ’निज पर शासन फिर अनुशाासन’ व ’सुधरे व्यक्ति समाज व्यक्ति से, राष्ट्र स्वयं सुधरेगा’ आदि व्यक्ति व्यक्ति के लिए नैतिक उत्थान व मर्यादा का संदेश देने वाले बोध वाक्य निश्चय ही बहुत सारगर्भित है। जैन व भारतीय संस्कृति का पुरे विश्व में प्रचार प्रसार करने का अद्भुत कार्य आचार्य तुलसी ने ही किया .समण श्रेणी बनाकर इनको यातायात की सुविधा प्रदान करके विदेशों में संस्क्रती की रक्षा व प्रचार -प्रसार का जोरदार कार्य शुरू किया जिसको हमेशा -हमेशा के लिए याद किया जायेगा यह इसलिए महत्वपूर्ण बन गया की अन्य जैन साधुओं ने वहां का प्रयोग शुरू नहीं किया . आचार्य तुलसी के इस निर्णय से साधुओं की मर्यादा भी सुरक्षित रही तो जैन धर्म को संसार के केनवास पर उकेरने का कार्य भी किया! आचार्य श्री तुलसी अपने आयामों व अवदानों से हमेशा हमेशा के लिए जिन्दा रहेंगे ! वसुन्धरा के विलक्षण महापुरुष थे आचार्य श्री तुलसी। वे मानवता के मसीहा थे। उनका प्रत्येक कार्य मानव कल्याण से जुड़ा हुआ था।
उनका चिंतन और दृष्टिकोण साम्प्रदायिक संकीर्णताओं से ऊपर था। बिहार की पदयात्रा में किसी व्यक्ति ने उनसे पूछा, ”आप हिन्दू हैं या मुसलमान?” उत्तर में आचार्य श्री तुलसी ने कहा, “”मेरे सिर में चोटी नहीं है, इसलिए मैं हिन्दू नहीं हूं। इस्लाम परम्परा में जन्मा नहीं हूं अतः मुसलमान भी नहीं हूँ। सबसे पहले मैं मानव हूं, उसके बाद एक धार्मिक हूं, फिर एक जैन मुनि हूं, उसके पश्र्चात् तेरापंथ का आचार्य हूं।” राष्ट्रसंघ तुलसी के इसी असाम्प्रदायिक व व्यापक दृष्टिकोण ने उन्हें मानवतावादी धर्माचार्य के रूप में प्रतिष्ठित किया ! संत श्री तुलसी कभी पीछे नहीं मुड़े, कभी रुके नहीं, आगे बढ़ते गये, कारवां बनता गया। संघर्षों के हर चौराहे पर शूलों ने फूल बनकर आपका स्वागत किया। उनके व्यक्तित्व व कर्त्तव्य की गौरव-गाथा आज इतिहास की धरोहर बन गयी है। उनके द्वारा प्रदत्त संदेश प्रकाशपुंज बनकर देश, समाज, राष्ट्र को प्रकाशित करता रहेगा।
लेखक – उत्तम जैन (विद्रोही )
प्रधान संपादक – विद्रोही आवाज़ 

राजनीति का धर्म या धर्म की राजनीति- एक विचारणीय विषय

वर्तमान समय में और विशेषकर भारत के धार्मिक, राजनीतिक और सामाजिक नेतागण, इस बात की आवश्यकता महसूस कर रहे हैं कि धर्म को राजनीति से नहीं जोड़ना चाहिए. यह इस लिए प्रबल समस्या बन गई है कि राजनीति के काम में सब जगह धर्मों के अनुयायी अपने-अपने धर्म को राजनीति से जोड़ने की कोशिश करते हैं. ऐसा करने से उनके धर्म को बल मिलता है. और शक्ति से लोगों को विवश किया जाता है कि उनके धर्मों में अधिक से अधिक लोग आएं ताकि उस धर्म के अनुयायी अपनी इच्छा के अनुसार सरकार बना लें ! भारत धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है यहाँ विभिन्न प्रकार के धर्म पाये जाते है और उन धर्मों के अनुसार भारतीय समाज में नाना प्रकार की परम्पराएं और प्रथाऐं प्रचलित हैं, इन सबमें भारतीय समाज, भारतीय साहित्य, सभ्यता और संस्कृति, भारतीय अर्थव्यवस्था और राजनीति को एक बड़े पैमाने तक प्रभावित किया है। इस प्रभाव की विचित्रताओं, विशिष्टताओं और विभिन्नताओं को दृष्टिगत रखते हुए यदि यह कहा जाये कि भारत विभिन्न धर्मों का अजायबघर है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। लोकतान्त्रिक देश की राजनीती की और आपको लेकर चलू तो ‘धर्म और राजनीति के दायरे अलग-अलग हैं, पर दोनों की जड़ें एक हैं,और धर्म व् राजनीती का मूल सिद्दांत है - धर्म दीर्घकालीन राजनीति है, राजनीति अल्पकालीन धर्म है। धर्म का काम है, अच्छाई करे और उसकी स्तुति करे। राजनीति का काम है बुराई से लड़े और उसकी निन्दा करे। अब क्युकी हमारे देश मे दो प्रकार के भ्रम फल-फूल रहे हैं। कुछ लोग धर्म को गलत अर्थ निकालते हुये उसे सिर्फ और सिर्फ उपासना पद्धति से जोड़ते हैं। कुछ लोग राजनीति को गंदे लोगों के लिए सुरक्षित छोड़ देते हैं। धर्म का गलत अर्थ लेने की वजह से राजनीति भी गलत अर्थों मे ली जाती है परिणाम यह है कि राजनीति भी ‘धर्म’ की ही भांति गलत लोगों के हाथों मे पहुँच गई है। देश-हित,समाज-हित की बातें न होकर कुछ लोगों के मात्र आर्थिक-हितों का संरक्षण ही आज की राजनीति का उद्देश्य बन गया है। नेता का अर्थ है जो समाज, देश या वर्ग समूह का नेतृत्व करता है वह नहीं जो खुद का नेतृत्व करता है और सत्ता की कुर्सी पर बैठकर अपनी महत्वकांक्षा साधता हो। देश का नेतृत्व किसके हाथ में हो अब जनता तय करती है भ्रष्ट्राचारी, अपराधी , विश्वासघाती लोग ही इस देश का नेतृत्व करे, यही जनता चाहती है तो इनका चुनाव करने के लिए वह स्वतन्त्र है।धर्म गुरूओं द्वारा धर्म का जो वर्तमान स्वरूप बदला जा रहा है या कहे तो शब्दों का ताना-बुना कर अनुयायी के मन मे धर्म का जो बीजारोपण किया जा रहा है उस पर शायद ही किसी सच्चे अनुयायी को गर्व होना चाहिए। रही सही कसर हमारे राजनेताओं ने पूरी कर दी है। परिणामतः धर्म का अस्तित्व खतरे में नहीं है, वस्तुतः धर्म के कारण मानव समुदाय का अस्तित्व ही खतरे में है। यह बात किसी से छिपी नहीं है। दुनिया का कोई ऐसा देश नहीं है जहाँ धर्म के कारण अस्थिरता, अराजकता एवं भय का वातावरण नहीं हो फिर भी बहुत कम लोग इस संबंध में बोलने का दुस्साहस करता है।आज राजनीती की स्थिति को हर कोई जानता है । सब के मुंह से एक ही बात सुनने को मिलती है की , राजनीती बड़ी गन्दी हो गई है। आज कोई राजनीती की और जाना पसंद नही करता ! अगर यह बात सत्य है तो हमारे देश की व्यवस्था को , हमारे समाज को इस गन्दी नीती से क्यो चलाया जाय ? इस नीति को साफ़ स्वच्छ एवं पारदर्शी बनाया जाय या फ़िर देश की व्यवस्था को किसी दूसरी व्यवस्था से चलाया जाय। राजनीती को कोसने या नेताओ को गालिया देने से क्या होगा ? अगर बात राजनीती को साफ स्वच्छ एवं पारदर्शी बनने की करे तो प्रश्न उपस्थित होता है की , यह शुभ कार्य करेगा कौन ? अगर कोई करेगा नहीं तो हमे यह साफ-सुंदर स्वच्छ लोकतांत्रिक परिकल्पना को भी भुला देने की जरूरत है और हमे यह कहने का भी अधिकार नहीं की राजनीत बहुत गंदी हो गयी है। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने कहा था, ‘मेरे लिए धर्म से अलग कोई राजनीति नहीं है। मेरा धर्म सार्वभौम और सहनशील धर्म है, अंधविश्वासो और ढकोसलों का धर्म नहीं। वह धर्म भी नहीं, जो घृणा कराता है और लड़ाता है। नैतिकता से विरक्त राजनीति को त्याग देना चाहिए.’ उनका यह विचार आज भी प्रासंगिक है, पर उनके नाम का इस्तेमाल करके सत्ता-सुख भोगने वालों ने इसे बहुत पहले त्याग दिया था. आज उनकी राजनीति अनैतिकता से भरपूर है। गांधी जी का यह विचार अब अप्रासांगिक हो गया है आज का धर्म ने अपना मूल स्वरूप त्याग कर समाज मे गलत व्यसन, कुकृत्य और धर्म को अधर्म मे परिवर्तन करने का स्वरूप बन कर रह गया है। अब धर्म राजनीति और राजनीति समाज देश को दिशा तो नही देता परंतु दोनों चेले-गुरु का दामन थाम अपनी अपनी स्वार्थ की रोटियाँ जरूर पक्का रहे है।यह तो जनता का सरोकार है अधिकार है बोलने की आज़ादी है राजनेताओं को चुनने का हक़ है आख़िर बार-बार हर बार जनता एक मौक़ा और क्यों दे ताकि वह अपनी रही-सही महत्वकांक्षा भी पूर्ण कर सकें। अब तो अपने सरोकार के लिए, अपने आने वाले भविष्य के लिए आवाज़ बुलंद करनी होगी और कहना होगा, ‘अब यह नहीं चलेगा’ ।हम जिस दौर में जी रहे है, उस दौर मे हंस के टाल देने वाली बातो पर हमारा खून खौल उठता है और जिन बातो पर वाकई हमारा खून खौलना चाहिए, उन्हें हम बेशर्मी से हंस के टाल देते है।आज जरुरत है धर्म और राजनीति एक दूसरे से सम्पर्क न तोड़ें, मर्यादा निभाते रहें।’’ धर्म और राजनीति के अविवेकी मिलन से दोनों भ्रष्ट होते हैं, इस अविवेकपूर्ण मिलन से साम्प्रदायिक कट्टरता जन्म लेती है। धर्म और राजनीति को अलग रखने का सबसे बड़ा मतलब यही है कि साम्प्रदायिक कट्टरता से बचा जाय। राजनीति के दण्ड और धर्म की व्यवस्थाओं को अलग रखना चाहिए नहीं तो, दकियानूसी बढ़ सकती है और अत्याचार भी। लेकिन फिर भी जरूरी है कि धर्म और राजनीति सम्पर्क न तोड़े बल्कि मर्यादा निभाते हुए परस्पर सहयोग करें। तभी धर्म एवं राजनीति के विवेकपूर्ण मिलन से एक आदर्श व् उन्नत समाज और उज्जवल राष्ट्र का निर्माण होगा !
उत्तम जैन ( विद्रोही )
मो-8460783401

Tuesday 21 February 2017

महिलाओं के संस्कारी होने की मांग करना क्या स्त्रीयों की स्वतंत्रता में बाधक है ??

मानव जाति के इतिहास में विभिन्न प्रकार की विभिन्नता की कहानी जुड़ी हुयी है, इस इतिहास में हमने बहुत प्रकार के वर्ग निर्मित किए, जैसे गरीब का, अमीर का, धन के पद के अभाव पर और आश्चर्य की बात यह है कि इस समाज ने जो स्त्री और पुरुष के बीच जो वर्ग का निर्माण किया यह एक अनोखा और अद्भुत रहा और इस भिन्नता को वर्ग बनाना मनुष्य की शेतानी कही जा सकती है। क्योंकि हजारों वर्ष पहले से ही स्त्री का शोषण का इतिहास रहा है। क्योकि पुरुष ने ही सारे कानून निर्मित किये है और शुरु से ही पूरुष शक्तिशाली था उसने स्त्री पर जो भी थोपना चाहा थोप दिया । और जब तक स्त्री पर से गुलामी नही उठती दुनिया से गुलामी नही मिट सकती चाहे कहने की बात क्यो न हो की भारत 68 साल पहले ही आजाद हो गया। ये अलग बात है कि हमारी सरकार गरीबी और अमीरी के फासले मिटाने मे सक्षम हो जाए लेकिन स्त्री और पुरुष के बीच शोषण का जाल और इनके बीच फासलो की कहानी इतनी लम्बी हो गयी है कि स्वयं स्त्री और पुरुष दोनो ही भूल गये है। पुरुष और स्त्री के बीच फासले और असमानता किस-किस रुप में खड़ी हुई है? भिन्नता सुनिश्चित है भिन्न होनी ही चाहिए क्योंकि यही ही स्त्री,पुरुष को अलग-अलग व्यक्तित्व देते है लेकिन भिन्नता असमानता में बदल गया है। इसीलिए सारी स्त्रीयाँ भिन्नता को तोड़ने में लग गयी है ताकी वे ठीक पुरुषों जैसी दिखने लगे शायद वह इस सोच में है कि इस भाती असमानता भी टूट जाएगी धीरे-धीरे कपड़े एक जैसे होते चले गये। लेकिन कपड़ो के फासले से भिन्नता नही मिट जाएगीं यह एक गहरी बात है कपड़ो से कुछ फर्क नही पड़ने वाला नही है क्योंकि भेद मिटाने से समाज द्वारा निर्माण किया गया स्त्री और पुरुष का वर्ग नही मिट सकता क्योकि पुरुष इस का आदि हो गया है। भारत में आज तक स्त्री पुरुषो में बराबरी का स्तर नहीं आ पाया , स्त्रीयों को आज भी असमानता की भावना का सामना करना पड़ रहा है आज भी स्त्रीयों को समाज में दोयम दर्जे का स्थान ही प्राप्त है. अधिकाँश स्थानों पर महिलाओं का यही हाल है , महिलाओं के स्वास्थ्य एवं शिक्षा की स्थिति बहुत ही खराब है घरेलु वातावरण में रोज़ ही वो किसी न किसी दुर्व्यवहार का सामना करती ही रहती हैं. आज भी महिलाओं को घर से बाहर जाकर काम करने में एक बड़े पुरुष वर्ग को आपत्ति है. पर बढ़ते वैश्वीकरण के दबाव में इन सब शोषित और कुपोषित मातृत्व वर्ग के बीच एक ऐसा महिला वर्ग भी उपजा जो की इन सब असमानताओ , कुपरिस्थितियो और समस्याओं से पूर्णतया मुक्त था अब इनमे भी दो तरह की महिलाए थी एक जो पारिवारिक संस्कार , सद्चरित्रता और सदभावना से ओत प्रोत थीं वही दूसरी जो की पारिवारिक संस्कार , सद्चरित्र इत्यादि बातो से पूर्णतया दूर एवं इन सुसंस्कारो को अपना बंधन मात्र मानती थी. पहला वर्ग तो अपने सदभावना के कारण अपने अन्य शोषित बहनों के मुक्ति का मार्ग ढूढ़ने लगी और अपने परिवार को भी संस्कारी बनाये रखा अतः उन परिवार से निकलने वाले संस्कारी बालक , बालिकाए उनके सुविचारो के वाहक बन गए और महिला मुक्ति के मार्ग भी.दूसरी तरफ वे महिलाए थी जो की न तो संस्कार जानती थी न ही सद्चरित्र उनके लिए अपने संस्कृति अपनी परम्पराओं को तोड़ना ही स्वतंत्रता हो गया और ये भी आंकलन नहीं की की क्या सही है क्या गलत ? जो भी पश्चिम से मिला सब सर्वश्रेष्ठ है इस भावना से अपना विरोध और दूसरो को गले लगाने का एक नया परंपरा शुरू हो गया ये महिलाए स्वयं तो संस्कारी थी ही नहीं सो इनके बच्चे को भी इन्ही के रास्ते पर जाना तय था.
ऐसी कुविचारी , निकृष्ट ,कुचरित्र महिलाओं ने कभी भी अपने महिला समाज का उठाने में कोई भूमिका नहीं अपनाई बल्कि अपने परिवार में असंस्कारी बालक बालिकाओं को रोपित कर समाज की स्थिति और खराब करने में जिम्मेदारी निभायी. पुरुषो से ज्यादा महिलाओं को संस्कार की जरुरत होती है पुरुषो से ज्यादा महिलाओं को नैतिक होने की जरुरत होती है, क्योकि महिलाए ही परिवार की आधार होती है. वो ही बच्चो की प्रथम गुरु होती है, वही बच्चो को संस्कारी बनाती है. और यह एक सामान्य दृष्टि की बात है की हम बहुधा देखते है की जिस घर में पिता निकृष्ट , शराबी या नीच कोटि का निकल जाता है वह यदि माता ठीक होती है तो बच्चे अपने पिता के दुर्गुणों से दूर गुणी और बुद्धिमान ही होते है जबकि किसी परिवार के सभी पुरुष ठीक हो लेकिन महिला खराब हो गयी तो निश्चित ही उस परिवार की पूरी अगली पीढीयां खराब हो जाती है.यदि प्रकृति ने माँ को परिवार का आधार बनाया है तो , उस माँ को संस्कारी होने की मांग करना क्या स्त्रीयों की स्वतंत्रता में बाधक है ?? बहुत सारी पश्चिमी मानसिकता से ग्रसित महिलाए इसे एक घटिया सोच करार देती है और पूछती है की आखिर संस्कार की जिम्मेवारी महिलाओं पर पुरुषो से ज्यादा क्यों ?? क्या इस प्रश्न का कोई जबाब है??
जो प्रश्न प्रकृति से पूछा जाना चाहिए वो प्रश्न ये महिलाए पुरुषो से जानना चाहती हैं.
अब कोई पुरुष यदि यह पूछे की बच्चे ज्यादा प्रेम माँ से क्यों करते है पिता से क्यों नहीं , स्नेह दिखाने की जीतनी कला स्त्रीयों को प्राप्त है उतनी पुरुषो को क्यों नहीं ??? बच्चो को गर्भ धारण करने की शक्ति सिर्फ महिलाओं को पुरुषो को क्यों नहीं ?? बच्चो के शुरूआती भरण पोषण की शक्ति केवल महिलाओ को क्यों प्राप्त है पुरुषो को क्यों नहीं ??
क्या हम प्रकृति प्रदत्त गुणों पर टकराकर कुछ प्राप्त कर सकते है?
कुछ लोगों ने कहा की स्त्रीयों को मर्यादित कपडे पहनना चाहिए मीडिया में भयंकर विरोध इस मुद्दे पर होता ही रहता है. स्त्री आखिर अपने आप को क्या समझती है यह बात हम उसके वस्त्रो से ही निर्धारित करते है , हमारे देश की परंपरा और संस्कृति में उसे भी आत्मा का दर्ज़ा प्राप्त है न की केवल नीरा शरीर का. जबकि पश्चिम में और अरब की कुसंस्कृति में उन्हें केवल शरीर का ही दर्ज़ा प्राप्त है एक उसे दिखाने में लगा रहता है तो दूसरा उसे ढकने में. पर क्या यही सोच हमारे समाज में आज नहीं फ़ैल गयी कुछ लोग है जो पर्दा प्रथा को जारी रखना चाहते है तो कुछ उसे नग्नता के उस स्तर पर ले जाने की फिराक में है जहाँ सभ्यों का सर नीचा करके जमीन देखना ही बचाव के एक मात्र लगता है. क्या ये दोनों मार्ग उचित है??
निश्चित ही मेरे मत से नहीं …. यदि स्त्री केवल शरीर नहीं तो उसे क्यों ढकना और क्यों दिखाना? उसे मर्यादित ढंग से रहना ही चाहिए. स्त्रीयों से मर्यादित कपडे की उम्मीद करने पर , पश्चिमी विचारों से ओत प्रोत महिलाए कहने लगती हैं की ये महिलाओं की स्वतंत्रता का हनन है. आखिर वो कौन सी मानसिकता है जिसके कारण महिलाए जब मर्यादित कपडे पहनती है तो उन्हें ऐसा लगता है मानो उनकी स्वतंत्रता हर ली गयी हो. क्या नग्नता के उचाई पर ही पहुच कर स्वतंत्रता का बोध हो सकता है. कुचरित्र और असंस्कारी महिलाए ही नग्नता में स्वतंत्रता का अनुभव प्राप्त करती है. इसको समझने के लिए एक उदाहरण लेते है ऐसी कल्पना करते है की एक संस्कारी परिवार की बालिका को एक अलग स्थान पर ले जाकर उसे यह कह दिया जाय की तुम जो करना चाहो कर लो जैसा पहनना चाहो पहन लो तुम्हे कोई कुछ नहीं कहेगा तो क्या वह नग्नता का प्रदर्शन करेगी… क्या वो निर्लाज्ज़ता को अपना ध्येय चुनेगी?? निश्चित ही नहीं क्योकि उसके दिमाग में ये गन्दगी डाली ही नहीं गयी की स्त्री की स्वतंत्रता का मतलब नग्नता. हम पहले ये घटिया सोच बच्चो में रोपित करते है की शरीर का प्रदर्शन ही स्वतंत्रता है जिस कारण बाद में यह समस्या आती है की मर्यादित कपड़ो में महिलाओं को परतंत्रता का बोध होता है.
यदि वास्तव में भारत वर्ष में स्त्रीयों का विकास करना है तो उन्हें संस्कारी सद्चरित्र और मर्यादित बनाना ही पड़ेगा , क्योकि स्त्रीयां ही समाज की आधार है यदि उनका पतन होगा तो समाज जरुर अधोगति को प्राप्त होगा. ऐसी सोच भी हमारे सामने चुनौती बनकर खडी है जो की महिलाओं के स्वतंत्रता के मुख्य आन्दोलन को जिसमे उनको समाज में बराबरी का हक दिलाना ध्येय को खीच कर ऐसे निकृष्ट मार्ग पर ले जा रहा है जहा पर महिलाए खुद अपने आपको और ज्यादा खराब स्थिति में पाएंगी ......उत्तम जैन (विद्रोही )

Monday 20 February 2017

कडवे घूंट जीवन के ---

हमारी वर्तमान दशा व दिशा सिर्फ अपने कारण से होती है इस दशा मे मुख्य कारण एक चिंता व नकारात्मक भाव है !चिंताओं का विश्लेषण किया जाए तो ४०%- भूतकाल की, ५०% भविष्यकाल की तथा १०% वर्त्तमान काल की होती है ! इस स्वीकार भाव से ही हमारे भाव बदलने शुरू होते हैं। रोग का जन्म ही नकारात्मक भावनाओं में है । विकृत भाव व चिन्तन रोग के माता-पिता है । हम भावनाओं में जीते है । उन्हे बदल कर ही हम सुखी हो सकते है । आज अधिकतर लोग चिन्ता से चिन्तित रहते हैं। पिता को अपनी बेटी की शादी की चिन्ता है। एक गृहिणी को पूरा महीना घर चलाने की चिन्ता है। एक विद्यार्थी को अच्छे अंक प्राप्त करने की चिन्ता है। एक मैनेजर को अपने प्रोमोशन की चिन्ता है। एक व्यापारी को अपने व्यापार में लाभ कमाने की चिन्ता है। एक नेता को चुनाव से पहले वोट लेने और जीतने की चिन्ता है। किसी को अपनी सफलता की दावत देने की चिन्ता है।न जाने इंसान कितनी चिंताओ से ग्रसित रहता है लोगों ने जाने-अनजाने में अपनी जिम्मेदारी के साथ चिन्ता को भी जोड़ दिया है। क्या हर जिम्मेदारी के साथ चिन्ता का होना आवश्यक है? क्या चिन्ता किए बिना जिम्मेदारी का निभना संभव नहीं है? एक मां अपने बच्चे से कहती है, 'तुम्हारी परीक्षा सिर पर आ गई है, अब तो चिन्ता कर लो।' बच्चा शायद समझदार है। वह चिन्ता नहीं करता, पढ़ाई करता है और अपनी परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाता है। जिम्मेदारी है पॉजिटिव और चिन्ता करना है नेगेटिव। हम जब जिम्मेदारी को निभाते हैं तो हमारी ऊर्जा पॉजिटिव काम में लगती है और हमें लाभ देती है। लेकिन जब हम चिन्ता करते हैं तो हमारी ऊर्जा नेगेटिव काम में लगती है और नष्ट हो जाती है। मान लो यदि हमारी 20 प्रतिशत ऊर्जा चिन्ता में चली जाती है तो जिम्मेदारी को निभाने के लिए कितनी बची? यदि साधारण हिसाब की बात करें तो बचती है 80 प्रतिशत। लेकिन यदि हम गहराई में जाएं तो परिणाम कुछ और ही होगा। चिन्ता है नेगेटिव और जिम्मेदारी है पॉजिटिव। जब दोनों एक साथ होंगे तो एक दूसरे की विपरीत दिशा में काम करेंगे। जिस तरह 'टग ऑफ वार' खेल में दो विभिन्न समूह एक मोटे रस्से को दो विपरीत दिशाओं में खींचते हैं तो एक समूह की सामूहिक ऊर्जा, दूसरे समूह की सामूहिक ऊर्जा के साथ बराबर हो जाती है। उसके बाद जिस समूह के पास थोड़ी ऊर्जा ज्यादा बचती है, उसका पलड़ा भारी हो जाता है और वह विजयी घोषित किया जाता है। इसी तरह चिन्ता और जिम्मेदारी के मध्य भी चलता है 'टग ऑफ वार'। यदि 20 प्रतिशत ऊर्जा चिन्ता के पास है तो उसे बराबर करने के लिए 20 प्रतिशत ऊर्जा जिम्मेदारी की ओर से खर्च करनी होगी। इस तरह हमारे पास जिम्मेदारी निभाने के लिए बचती है सिर्फ 60 प्रतिशत ऊर्जा। जितनी ऊर्जा हम लगाएंगे, परिणाम भी वैसे ही आएंगे। 100 प्रतिशत ऊर्जा लगाने के परिणाम अधिक और अच्छे होंगे और 60 प्रतिशत ऊर्जा लगाने के परिणाम कम ही होंगे। लेकिन लोगों को लगता है कि काम चल जाएगा। यदि हमारी 50 प्रतिशत ऊर्जा चली गई चिन्ता की ओर तो चिन्ता शेष 50 प्रतिशत ऊर्जा भी खींच लेगी जिम्मेदारी से। और इस तरह हमारे पास अपनी जिम्मेदारी निभाने के लिए कोई ऊर्जा बचेगी ही नहीं। जब ऊर्जा न हो तो अच्छा से अच्छा उपकरण भी काम नहीं कर पाता। फिर हमारा दिमाग भी बिना ऊर्जा के काम कैसे कर सकता है। हम बहुत छोटी-छोटी जिम्मेदारियां भी नहीं निभा सकते और स्वयं से कहते हैं, 'ये मुझे क्या हो गया है, मेरा दिमाग ही काम नहीं कर रहा।' चिन्ता हमारी ऊर्जा को नष्ट कर देती है, जिससे हम अपनी जिम्मेदारी को निभाने में अपने आप को असमर्थ महसूस करते हैं। हम अपनी जिम्मेदारी से नाता नहीं तोड़ सकते। हमें अपनी जिम्मेदारी को निभाने के लिए ऊर्जा चाहिए। इसलिए यह हमारी सबसे बड़ी जरूरत है कि हम अपनी ऊर्जा को चिन्ता में नष्ट होने से रोकें। हमें चिन्ता न करने का अभ्यास करना है। लेकिन कोई भी अभ्यास करने के लिए आवश्यक है अभ्यास करने का अवसर। प्रतिदिन हमारे पास अनगिनत समस्याएं आती हैं, जिनके लिए हम चिन्ता करते हैं। तो हर समस्या आने पर स्वयं से बात करें कि चिन्ता करने पर मेरी मूल्यवान ऊर्जा नष्ट हो रही है, जो मुझे नहीं करनी। सिर्फ अपने मन को इस बात की याद दिला कर भी हम अपनी काफी ऊर्जा नष्ट होने से बचा सकते हैं।
यदि आप चिन्ता मुक्त होना चाहते है तो आपको सकारात्मक विचारों को अपने जीवन में लाना पड़ेगा । चिन्ता जन्मजात नहीं होती है । ये एक आदत है जो पड़ जाती है । जब हम इस आदत को मजबूत बना लेते है तो इसको तोड़ना मुश्किल पड़ जाता है । यदि हमको पता चल जायें कि चिन्ता से डर का जन्म होता है और डर एक बहुत भयानक वस्तु है जो आपको मुर्त्यु का ग्रास बना सकती है!

उत्तम जैन (विद्रोही )

आज की नारी का वास्तविक स्वरूप

सदियों से ही भारतीय समाज में नारी की अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका रही है । उसी के बलबूते पर भारतीय समाज खड़ा है । नारी ने भिन्न-भिन्न रूपों में अत्यधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है । चाहे वह सीता हो, झांसी की रानी, इन्दिरा गाँधी हो, सरोजनी नायडू हो । सदियों से समय की धार पर चलती हुई नारी अनेक विडम्बनाओं और विसंगतियों के बीच जीती रही है । पूज्जा, भोग्या, सहचरी, सहधर्मिणी, माँ, बहन एवं अर्धांगिनी इन सभी रूपों में उसका शोषित और दमित स्वरूप । जीवन के हर क्षेत्र में पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने वाली नारी की सामाजिक स्थिति में फिर भी परिवर्तन ‘ना’ के बराबर हुआ है । घर बाहर की दोहरी जिम्मेदारी निभाने वाली महिलाओं से यह पुरुष प्रधान समाज चाहता है कि वह अपने को पुरुषो के सामने दूसरे दर्जे पर समझें ।
आज की संघर्षशील नारी इन परस्पर विरोधी अपेक्षाओ को आसानी से नहीं स्वीकारती । आज की नारी के सामने जब सीता या गांधारी के आदर्शो का उदाहरण दिया जाता है तब वह इन चरित्रों के हर पहलू को ज्यों का त्यों स्वीकारने में असमर्थ रहती है । देश, काल, परिवेश और आवश्यकताओ का व्यक्ति के जीवन में बहुत महत्व है, समाज इनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता ! जैसे-जैसे समय आगे बढ़ रहा है वैसे-वैसे भारतीय नारी के भी कदम आगे बढ़ रहे हैं । आज वह ‘देवी’ नहीं बनना चाहतीं, वह सही और सच्चे अर्थों में अच्छा इंसान बनना चाहती है । नैतिक मूल्यों और मानवीय मूल्यों को नकारा नहीं जा सकता । हमारे पारम्परिक चरित्र नैतिक मूल्यों की धरोहर हैं । नारी घी का कुआँ है और पुरुष जलता हुआ अंगार। दोनों के संयोग से ज्वाला प्रज्वलित हो उठती है, यानी नारी और पुरुष एक दूसरे के पूरक हैं। नारी के बिना पुरुष का कोई अस्तित्व नहीं। पुरुष के अभाव में नारी का कोई मूल्य नहीं। दोनों का सम्बन्ध अभिन्न अखण्ड और अनादि है। आदिकाल से लेकर आज तक का भारतीय इतिहास इस बात का साक्षी है कि नारी किस प्रकार जीवन के क्षेत्र में पुरुष की अभिन्न सहयोगिनी के रूप में अपने नारीत्व को दीपित करती आयी है। नारी के सहयोग के अभाव में पुरुष ने सदा एकाकीपन अनुभव किया है और जहाँ भी सहयोगिनी के रूप में नारी प्राप्त हुई है वहाँ उसने अभिनव से अभिनव सृष्टि की है। नारी की इसी प्रतिभा से पराजित हो हमारी श्रद्धा फूट पडी।
नारी तुम केवल श्रद्धा हो,
विश्वास रजत नग पग तल में ।
पीयूष स्रोत सी बहा करो,

जीवन के सुन्दर समतल में ।...... उत्तम विद्रोही 

भारतीय युवा भटकाव की राह पर ....

आज कल युवा वर्ग जो उच्च मध्यम वर्ग का है जो आज अपनी शिक्षा के बल पर उड़ना चाहता है । उसे परिवार से यही सीखने को मिल रहा है कि चार किताबें पढ़ कर अपने career (भविष्य ) को बनाओ, यह युवा अपनी सारी ऊर्जा केवल अपने स्वार्थ या उज्जवल भविष्य के लिए लगा देता है । यदि कभी भूले भटके उसका विचार देश या समाज की तरफ जाने लगता है तो घर परिवार और समाज उसे सब भूल कर अपने भविष्य के बारे में सोचने पर मजबूर कर देता है । यह वर्ग भी अपने आप को देश और समाज से अलग ही अनुभव या यूं कहें की अपने आपको को समाज से श्रेष्ठ समझने लगता है और सामाजिक विषमता का होना उसके अहम को पुष्ट करता है ।ओर कभी आज के युवा हताशा में गलत कदम उठा लेते है ! युवा वर्ग की हताशा देश का दुर्भाग्य है क्योंकि न तो इस वर्ग मे हम उत्साह भर सके न ही समाज के प्रति संवेदनशीलता । एक प्रकार से यह वर्ग विद्रोही हो जाता है समाज के प्रति, परिवार के प्रति और अंत में राष्ट्र के प्रति । क्या हमने सोचा है कि ऐसा क्यों हो रहा है मुझे लगता है इसके पीछे कई वजह है , आज दुनिया भौतिकता वादी हो गयी है और लोगो की जरूरते उनकी हद से बाहर निकल रही है इसलिए उनके अंदर तनाव और फ़्रस्ट्रेशन बढ़ता जाता है , दूसरी बात पहले सयुंक्त परिवार थे तो अपनी कठिनाइया और तनाव घर में किसी ना किसी सदस्य के साथ बातचीत कर कम कर लेते थे घर में अगर कोई अकस्मात दुर्घटना हो जाती थी तो परिवार के बीच बच्चे बड़े हो जाते थे लेकिन आज न्यूक्लिअर फैमिली हो गयी है व्यक्ति को यही समझ में नहीं आता कि अपने दुःख-दर्द किसके साथ बांटे, पुरानी कहावत है कि पैर उतने ही पसारो जितनी बड़ी चादर हो लेकिन आज दूसरो की बराबरी करने के चक्कर में हम कर्ज लेकर भी अपनी हैसियत बढ़ाने की कोशिश करते है, आज के युवा वर्ग में जोश तो है पर आज के युवा को बहुत जल्दी बहुत सारा चाहिए और वो सब हासिल ना कर पाने पर डिप्रेशन में चले जाते है मेरा तो यही मानना है कि विपरीत समय और ख़राब हालात हमें जितना सिखाते है उतना हम अच्छे समय में नहीं सीख पाते इसलिए विपरीत समय को हमेशा ख़राब नहीं मानना चाहिए बल्कि विपरीत परिस्थितियों में हमें धैर्य रखना चाहिए और अच्छे समय का इंतज़ार करना चाहिए क्योंकि जिंदगी में अगर अँधेरा आया है तो उजाला भी आएगा अगर रात हुयी है तो सुबह भी होगी .....उत्तम जैन (विद्रोही)

Sunday 19 February 2017

शक नामक बीमारी----

शक नामक बीमारी जो स्त्री, पुरूषों में प्रायः होती है लाइलाज है। ऊपर वाला न करे कि यह बीमारी किसी में हो। शक यानि संदेह जिसे डाउट भीं कहते हैं एक ऐसी बीमारी है जो स्त्री-पुरूष के रिश्तों में दरार डालकर दोनों का जीवन दुःखद बनाती है। इसी शक पर पिछले दिनों मेरी एक लम्बी चौड़ी बहस पुराने मित्र से हुई। शक की बात चली तो उन्होंने कहा कि यह झूठ बोलने की वजह से होता है। झूठ तो सभीं बोलते हैं तो क्या सभीं पर शक किया जाए, इस पर वह बोले नहीं व्यापार में झूठ बोला जाता है। यदि सत्यवादी बन गए तो एक दिन कटोरा लेकर भीख मांगोगे। समय और परिस्थितियो के अनुसार ही झूठ-सच बोला जाता है। इस समय शक की बीमारी ने हर तरह की घातक बीमारियों को भीं काफी पीछे छोड़ दिया है। वो क्या है पति अपनी पत्नी पर, पत्नी अपने पति पर प्रेमी अपनी प्रेमिका और प्रेमिका अपने प्रेमी पर ‘शक’ करने लगे हैं। यार यह कोई नई बीमारी नहीं है सदियों से चलती आई रही है, और इन फ्यूचर चलती रहेगी। देखो भाई जी लोग एक दूसरे को बेहद प्यार करते हैं वे नहीं चाहते कि उनके प्यार के बीच कोई दूसरा आए। वैसे तुमसे कुछ भीं अनजान नहीं है, ऐसा करो विषय वस्तु पर कुछ भी बोलने का ‘मूड’ नहीं हो रहा है। यार शक ‘डाउट’ संदेह आदि सब गुड़ गोबर कर देता है। इसका इलाज भीं नहीं है। कई लोग अपसेट हो चुके हैं। हमने देखा है कि शक्की मिजाज के कई स्वथ्य लोग और नवजवान स्त्री व पुरुष डिप्रेशन का शिकार होकर अच्छा खासा जीवन कष्टकारी बना डाला है। इन बेचारे कालीदासों को कौन कहे कि ‘शक’ करने की आदत को छोड़ दो मजे में रहोगे। रिश्ते वह भीं स्त्री-पुरूष के बहुत ही नाजुक होते हैं, इनको परखने के लिए मन की आंखे और दिमाग चाहिए। ‘शक’ की बीमारी से दूर रहकर ही प्रेम, प्यार का रिश्ता मजबूर रहेगा वर्ना.....। बस अब तो मेरा प्रवचन समाप्त नही तो शकी लोग बोेल उठेंगे नहीं डियर कलमघसीट विद्रोही यह साधारण बात नहीं है। तुम सीरियसली नहीं ले रहे हो, मेरी मानों और इस विषय पर इतना ‘प्रवचन’ मत कहो। बी सीरियस, एण्ड टेक इट सीरियसली। वर्ना कहीं तुम्हारे (तुम-दोनों के) बीच ‘शक’ की बीमारी आ गई तब तो सब खेल चौपट, जिन्दगी तबाह, बरबाद।
डियर उपदेशक ऐसा नहीं है कि हमारे बीच ‘शक’ है। हम लोग रूठने-मनाने के लिए ड्रामा किया करते हैं और सच्चे प्यार को कसौटी पर कसकर उसकी मजबूती को देखते हैं। क्या समझे-यदि नहीं समझे तो हम क्या करें। तुम अपना काम कर रहे हो और हम हमारा। करते रहो, यही तो जिन्दगी है। बन्धु मगर यह मत सोचों कि हमारे प्यार के बीच किसी प्रकार के ‘शक’ की गुंजाइश है। बस ठण्ड रखो मजे करो हमे हमारे हाल पर रहने दो। ..... उत्तम जैन विद्रोही
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