दो लोगों के बीच में पारस्परिक हितों का होना, बनना और बढऩा रिश्तों को न केवल जन्म देता है बल्कि एक मजबूत नींव भी प्रदान करता है, लेकिन जैसे ही पारस्परिक हित निजी हित में तब्दील होना शुरु होते हैं रिश्तों को ग्रहण लगाना शुरु हो जाता है। पारस्परिक हित में अपने हित के साथ-साथ दूसरे के हित का भी समान रुप से ध्यान रखा जाता है, जबकि निजी हित में अपने और सिर्फ अपने हित पर ध्यान दिया जाता है।मनुष्य जन्म लेते ही कई तरह के रिश्तों की परिभाषाओं में बंध जाता है, जिनका आधार रक्त सम्बन्ध होता है लेकिन जैसे-जैसे वह बड़ा होता जाता है, वैसे-वैसे कुछ नए रिश्तों की दुनिया भी आकार लेने लगती है। जिनका वह ख़ुद चयन करता है, ऐसे रिश्तों की एक अलग अहमियत होती है। क्योंकि ये विरासत में नहींं मिलते, बल्कि इनका चयन किया जाता है। ऐसे रिश्तों को प्रेम का नाम दिया जाए या दोस्ती का या कोई और नाम दिया जाये, लेकिन ये बनते तभी हैं, जब दोनोंं पक्षों को एक दूसरे से किसी न किसी तरह के सुख या संतुष्टि की अनुभूति होती है यह सुख शारीरिक, मानसिक, आर्थिक या आत्मिक किसी भी तरह का हो सकता है। जब एक पक्ष दूसरे के बिना ख़ुद को अपूर्ण, अधूरा महसूस करता है, तो अपनत्व का भाव पनपता है और जैसे-जैसे यह अपनत्व बढ़ता जाता है, रिश्ता प्रगाढ़ होता जाता है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो किन्हीं दो लोगों के बीच में पारस्परिक हितों का होना, बनना और बढऩा रिश्तों को न केवल जन्म देता है बल्कि एक मजबूत नींव भी प्रदान करता है, लेकिन जैसे ही पारस्परिक हित निजी हित में तब्दील होना शुरु होते हैं रिश्तों को ग्रहण लगाना शुरु हो जाता है। पारस्परिक हित में अपने हित के साथ-साथ दूसरे के हित का भी समान रुप से ध्यान रखा जाता है, जबकि निजी हित में अपने और सिर्फ अपने हित पर ध्यान दिया जाता है।निज हित को प्राथमिकता देने या स्वहित की कामना करने में उस समय तक कुछ भी ग़लत नहींं है जब तक दूसरे के हितों का भी पूरी तरह से ध्यान रखा जाये, लेकिन जब दूसरे के हितों की उपेक्षा करके अपने हित पर जोर दिया जाता है, तो रिश्ते को स्वार्थपरता की दीमक लग जाती है,जो धीरे-धीरे किसी भी रिश्ते को खोखला कर देती है। स्वार्थ की भावना रिश्तों की दुनिया का वह मीठा जहर है, जो रिश्ते को असमय ही कालकवलित कर देती है। स्वार्थ की भावना उस समय और भी खराब रुप धारण कर लेती है, जब दूसरे पक्ष के अहित की कीमत पर भी ख़ुद का स्वार्थ सिद्ध करने की कोशिश की जाती है। किसी भी रिश्ते में एक-दो बार ऐसे प्रयास सफल भी हो सकते हैं, लेकिन जब बार-बार किसी का अहित करके कोई अपना हित साधने की कोशिश करता है, तो रिश्ते जख्मी होने लगते हैं। ये जख्म जितने गहरे होते जाते हैं, रिश्तों की दरार उतनी ही चौड़ी होती जाती है। मन के किसी कोने में या दिल के दर्पण पर स्वार्थ की परत के जमते ही रिश्तों का संसार दरकने लगता है और धीरे-धीरे एक समय ऐसा भी आता है,जब रिश्ता पूरी तरह टूट कर बिखर जाता है।सुदीर्घ और मजबूत रिश्ते मनुष्य को न केवल भावनात्मक संबल देते हैं, बल्कि आत्मबल बढ़ाने में भी मददगार साबित होते हैं। सदाबहार रिश्तों के हरे-भरे वृक्षों की छाया में मनुष्य ख़ुद को सुरक्षित महसूस करता है, जबकि किसी भी तरह के रिश्ते का बिखरना ऐसे घाव दे जाता है, जिसकी जीवन भर भरपाई नहींं हो पाती। इसलिए जहाँ तक हो सके रिश्तों को टूटने से बचाने की कोशिश करनी चहिये। रिश्तों को बचाने के लिए सबसे जरूरी है कि स्वार्थ के बजाय त्याग और स्वहित के बजाय पारस्परिक हित को प्रधानता दी जाये। दूसरे के अहित की कीमत पर भी अपना हित साधने के बजाए जब अपना अहित होने पर भी दूसरे का हित करने की भावना जन्म लेती है, तो रिश्ते ऐसी चट्टान बन जाते हैं, जिनका टूट पाना असंभव हो जाता है। इस तरह रिश्तों का बंधन इतना मजबूत होता जाता है कि कोई भी इससे बाहर नहींं निकल सकता। रिश्तों की नाव को डूबने से बचाने के लिए यह जरूरी है कि इस नाव में स्वार्थपरता का सुराख न होने पाये, क्योंकि रिश्तों की नाव मझधार में तभी डूबती है जब पारस्परिक हित रुपी पतवार और त्याग रुपी खेवनहार लुप्त हो जाते हैं।कहा जाता है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और सामाजिक है तो रिश्ते भी होंगे ही। वैसे तो प्रेम एक ऐसी भावना है जो मनुष्य तो मनुष्य, मूक पशुओं तक से रिश्ता जोड़ देती है। रिश्ते भी कई प्रकार के होते हैं। इनमें सबसे बड़ा रिश्ता है परिवार का जो आपको कई-कई रिश्तों में बांध देता है। एक बच्चा जब इस दुनिया में आता है तो वह किसी को मां किसी को पिता, भाई, बहन, चाचा, मामा, दादा-दादी या नाना-नानी बनाता है। कुछ रिश्ते केवल कामकाजी होते हैं, और कुछ ऐसे कि जिनका कोई नाम नहींं होता पर वे नामधारी रिश्तों से ज्यादा पक्के होते हैं। कुछ रिश्ते हमें जन्म से मिलते हैं और कुछ हम बनाते हैं, जिनमें सबसे ज्यादा अहम होता है पति-पत्नी का रिश्ता जो कहा जाता है कि सात जन्मों का होता है। कुछ रिश्ते मुंहबोले होते हैं। कुछ रिश्ते केवल विश्वास से बनते हैं, और जैसे ही विश्वास टूटा, रिश्ते भी बिखर जाते हैं। कुल मिलाकर रिश्ते एक ऐसा चक्रव्यूह रचते हैं जिसमें हम में से हर एक कभी न कभी उलझता ही है। हर तरह के रिश्तों में कभी न कभी दरार आ ही जाती है। इस बात से कोई फर्क नहींं पड़ता कि आपका संबंध कितना अंतरंग और मजबूत है। आमतौर पर अलग-अलग विचार और एक दूसरे से अलग-अलग अपेक्षाओं के कारण रिश्तों में खटास पैदा हो जाती है। रिश्तों के शुरुआती दौर में ही यह पनपने लगती है और समय के साथ-साथ रिश्ते में दरारें दिखने लगती हैं। यह महत्वपूर्ण नहींं कि रिश्तों में खटास पैदा होने के बाद बातचीत की शुरुआत कौन करता है। महत्वपूर्ण यह है कि आप एक स्वस्थ बातचीत के जरिए मामले को सुलझा लें। अहम व निज स्वार्थ को त्यागे जीवन सुंदर बन जाएगा ! अहम आपके भविष्य का विनाश ही कर सकता है सन्मान दे ओर सन्मान पाये बिना सन्मान दिये आपको कभी सन्मान प्राप्त नही हो सकता !उत्तम जैन (विद्रोही )
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