हमारी वर्तमान दशा व दिशा सिर्फ अपने
कारण से होती है इस दशा मे मुख्य कारण एक चिंता व नकारात्मक भाव है
!चिंताओं का विश्लेषण किया जाए तो ४०%- भूतकाल की, ५०% भविष्यकाल की तथा
१०% वर्त्तमान काल की होती है ! इस स्वीकार भाव से ही हमारे भाव बदलने
शुरू होते हैं। रोग का जन्म ही नकारात्मक भावनाओं में है । विकृत भाव व
चिन्तन रोग के माता-पिता है । हम भावनाओं में जीते है । उन्हे बदल कर ही
हम सुखी हो सकते है । आज अधिकतर लोग चिन्ता से चिन्तित रहते हैं। पिता को
अपनी बेटी की शादी की चिन्ता है। एक गृहिणी को पूरा महीना घर चलाने की
चिन्ता है। एक विद्यार्थी को अच्छे अंक प्राप्त करने की चिन्ता है। एक
मैनेजर को अपने प्रोमोशन की चिन्ता है। एक व्यापारी को अपने व्यापार में
लाभ कमाने की चिन्ता है। एक नेता को चुनाव से पहले वोट लेने और जीतने की
चिन्ता है। किसी को अपनी सफलता की दावत देने की चिन्ता है।न जाने इंसान
कितनी चिंताओ से ग्रसित रहता है लोगों ने जाने-अनजाने में अपनी जिम्मेदारी
के साथ चिन्ता को भी जोड़ दिया है। क्या हर जिम्मेदारी के साथ चिन्ता का
होना आवश्यक है? क्या चिन्ता किए बिना जिम्मेदारी का निभना संभव नहीं है?
एक मां अपने बच्चे से कहती है, 'तुम्हारी परीक्षा सिर पर आ गई है, अब तो
चिन्ता कर लो।' बच्चा शायद समझदार है। वह चिन्ता नहीं करता, पढ़ाई करता है
और अपनी परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाता है। जिम्मेदारी है पॉजिटिव और चिन्ता
करना है नेगेटिव। हम जब जिम्मेदारी को निभाते हैं तो हमारी ऊर्जा पॉजिटिव
काम में लगती है और हमें लाभ देती है। लेकिन जब हम चिन्ता करते हैं तो
हमारी ऊर्जा नेगेटिव काम में लगती है और नष्ट हो जाती है। मान लो यदि हमारी
20 प्रतिशत ऊर्जा चिन्ता में चली जाती है तो जिम्मेदारी को निभाने के लिए
कितनी बची? यदि साधारण हिसाब की बात करें तो बचती है 80 प्रतिशत। लेकिन यदि
हम गहराई में जाएं तो परिणाम कुछ और ही होगा। चिन्ता है नेगेटिव और
जिम्मेदारी है पॉजिटिव। जब दोनों एक साथ होंगे तो एक दूसरे की विपरीत दिशा
में काम करेंगे। जिस तरह 'टग ऑफ वार' खेल में दो विभिन्न समूह एक मोटे
रस्से को दो विपरीत दिशाओं में खींचते हैं तो एक समूह की सामूहिक ऊर्जा,
दूसरे समूह की सामूहिक ऊर्जा के साथ बराबर हो जाती है। उसके बाद जिस समूह
के पास थोड़ी ऊर्जा ज्यादा बचती है, उसका पलड़ा भारी हो जाता है और वह
विजयी घोषित किया जाता है। इसी तरह चिन्ता और जिम्मेदारी के मध्य भी चलता
है 'टग ऑफ वार'। यदि 20 प्रतिशत ऊर्जा चिन्ता के पास है तो उसे बराबर करने
के लिए 20 प्रतिशत ऊर्जा जिम्मेदारी की ओर से खर्च करनी होगी। इस तरह हमारे
पास जिम्मेदारी निभाने के लिए बचती है सिर्फ 60 प्रतिशत ऊर्जा। जितनी
ऊर्जा हम लगाएंगे, परिणाम भी वैसे ही आएंगे। 100 प्रतिशत ऊर्जा लगाने के
परिणाम अधिक और अच्छे होंगे और 60 प्रतिशत ऊर्जा लगाने के परिणाम कम ही
होंगे। लेकिन लोगों को लगता है कि काम चल जाएगा। यदि हमारी 50 प्रतिशत
ऊर्जा चली गई चिन्ता की ओर तो चिन्ता शेष 50 प्रतिशत ऊर्जा भी खींच लेगी
जिम्मेदारी से। और इस तरह हमारे पास अपनी जिम्मेदारी निभाने के लिए कोई
ऊर्जा बचेगी ही नहीं। जब ऊर्जा न हो तो अच्छा से अच्छा उपकरण भी काम नहीं
कर पाता। फिर हमारा दिमाग भी बिना ऊर्जा के काम कैसे कर सकता है। हम बहुत
छोटी-छोटी जिम्मेदारियां भी नहीं निभा सकते और स्वयं से कहते हैं, 'ये मुझे
क्या हो गया है, मेरा दिमाग ही काम नहीं कर रहा।' चिन्ता हमारी ऊर्जा को
नष्ट कर देती है, जिससे हम अपनी जिम्मेदारी को निभाने में अपने आप को
असमर्थ महसूस करते हैं। हम अपनी जिम्मेदारी से नाता नहीं तोड़ सकते। हमें
अपनी जिम्मेदारी को निभाने के लिए ऊर्जा चाहिए। इसलिए यह हमारी सबसे बड़ी
जरूरत है कि हम अपनी ऊर्जा को चिन्ता में नष्ट होने से रोकें। हमें चिन्ता न
करने का अभ्यास करना है। लेकिन कोई भी अभ्यास करने के लिए आवश्यक है
अभ्यास करने का अवसर। प्रतिदिन हमारे पास अनगिनत समस्याएं आती हैं, जिनके
लिए हम चिन्ता करते हैं। तो हर समस्या आने पर स्वयं से बात करें कि चिन्ता
करने पर मेरी मूल्यवान ऊर्जा नष्ट हो रही है, जो मुझे नहीं करनी। सिर्फ
अपने मन को इस बात की याद दिला कर भी हम अपनी काफी ऊर्जा नष्ट होने से बचा
सकते हैं।
यदि आप चिन्ता मुक्त होना चाहते है तो
आपको सकारात्मक विचारों को अपने जीवन में लाना पड़ेगा । चिन्ता जन्मजात नहीं
होती है । ये एक आदत है जो पड़ जाती है । जब हम इस आदत को मजबूत बना लेते
है तो इसको तोड़ना मुश्किल पड़ जाता है । यदि हमको पता चल जायें कि चिन्ता से
डर का जन्म होता है और डर एक बहुत भयानक वस्तु है जो आपको मुर्त्यु का
ग्रास बना सकती है!
उत्तम जैन (विद्रोही )
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