Tuesday 25 September 2018

जैन धर्म मे आरती करना कहा तक उपयुक्त - उत्तम जैन ( विद्रोही )

जैन समाज कि- एक कुरीति आरती 

जैन समाज के मुख्य दो घटक है श्वेतांबर व दिगंबर इन दो घटको मे भी कही पंथ है जेसे श्वेतांबर संप्रदाय मे मूर्तिपूजक , तेरापंथी , स्थानकवासी व दिगंबर संप्रदाय मे तेरापंथी , बीसपंथी व अन्य काफी पंथ मुझे ज्ञात नही की इन पंथो की रचना कब व केसे हुई ! मगर स्वाभाविक रूप से पंथो की रचना कुछ धर्म गुरुओ के आपसी विचारधारा मे मतभेद होने से ही हुई होगी ! खेर मुझे इस विषय पर आज चर्चा नही करनी की ये पंथो का विस्तार केसे हुआ ! आज मुख्य मेरी विचारधारा दीपक से आरती की जाती है क्या जैन धर्म जो अहिंसा के मूल सिदान्त को मानता है उपयुक्त है या नही ! मेरी सोच से दीपक से आरती करना जैन सिद्धांत के अनुकूल नहीं है ! आरती के लिए रात्रि में दीपक जलाना पड़ता है ! जो किसी भी तरह से उचित नहीं है ! रात्रि का समय तो सामायिक का है ! सामयिक के समय को टालकर उसको आरती के काम में लगाना किसी शास्त्र से सिद्ध नहीं होता ! मच्छर/कीट/पतंगे इत्यादि चतुरिंद्रिय जीव प्रकाश के व्यसनी होते हैं वे आकर्षित होकर दीपक की लौ की ओर खिंचे चले आते हैं, और मृत्यु को प्राप्त होते हैं !अब कोई कहे कि घर में खाना बनाते हैं, या रौशनी करते हैं, उसमे भी तो जीवों का घात होता है, फिर मंदिर के कार्य में क्यों टोकते हो ?मेरे मंतव्य से 
घर के कार्यों में धर्म का अनुसरण नहीं होता है, किन्तु आरती से जो जीवों का घात होता है वह धर्म के नाम पर होता है ! अतः आरती करना किसी विज्ञ और दयालु पुरुष का ध्येय नहीं हो सकता !
"देव धर्मतपस्विनाम् कार्ये महति सत्यपि !
जीव घातो न कर्तव्यः अभ्रपातक हेतुमान !!

याने,
देव, धर्म और गुरुओं के निम्मित भी महान से महान कार्य पड़ने पर जीव घात नहीं करना चाहिए ! जो इसकी परवाह नहीं करते वे जिनेन्द्र भगवान के वचन रूपी चक्षुओं से रहित हैं !जीव-घात नियम से ही नरकादि गतियों में ले जाने वाला है !और ऊपर से अगर धर्म मान कर ऐसा कार्य किया जाए तो उसमे "मिथ्यात्व' का दोष भी जोड़ लें, जो कि अनंत संसार का मूल कारण है ! अन्य स्थानों में किया गया पाप मंदिरजी जाकर कट जाता है, किन्तु धर्मस्थान में किया हुआ पाप, वज्र लेप समान है ! जिसे कोई नहीं काट सकता !
याद रखें :- आरती का सम्बन्ध दीपक से कदापि नहीं है ! 
आरती का अर्थ केवल स्तुति और गुणगान से ही है, उसके अलावा कुछ भी नहीं !
- अब कोई कहे की मंदिरजी में बड़े-बड़े बल्ब/लाइट/जनरेटर जलते हैं रात में तो उससे भी तो तीव्र हिंसा होती है ! इसके २ समाधान बनते हैं :-
१ - आज के भौतिकवादी हो चुके समाज में श्रावकों की इतनी श्रद्धा नहीं रही जैसी पहले हुआ करती थी ! यह पंचम काल का प्रभाव ही है कि यदि मंदिरों में बल्ब नहीं जलाये तो स्वाध्याय तो दूर मंदिरजी आने-जाने का क्रम भी लुप्त हो जाएगा! 
जबकि विवेकवान पुरुष तो रात्रि के समय में सब आरम्भ-परिग्रहों से विरक्त होकर सामायिक आदि क्रियाओं में लग जाते हैं !
दूसरा और सबसे मुख्य तथ्य 
२ - मंदिरजी में बल्ब/लाइट जलाना धर्म नहीं माना जाता, किन्तु दीपक जलकर आरती करने को लोग धर्म मानते हैं, और उल्टी/विपरीत मान्यता होने के कारण मिथ्यात्व ही है ! हमे विवेक का परिचय करते हुए, इस प्रचलित प्रथा को सही दिशा देने का प्रयास करना चाहिए तथा रूढ़िवाद, अज्ञानता और पक्षपात को छोड़कर जैसा भगवान ने बतलाइं वैसी ही क्रियाएँ करनी चाहिए !
- पर्वों/आयोजनों में 108,1008 दीपकों से महाआरती की जाती है !
- कभी कभी सुनता हु अमुक महाराज जी की 25,000 दीपकों से महाआरती की जाएगी ! कल्पना से परे हैं ऐसे भक्त और ऐसे मुनि ... - जहाँ "अहिंसा परमो धर्म" बताया है, वहां हिंसा का अनुसरण करती हुई किसी क्रिया को कोई साधु या कोई श्रावक कदापि नहीं कर सकता ! किन्तु फिर भी बहुत कर रहे हैं ! पंचम काल प्रभावी हो रहा है ! - अखंड ज्योत जलाना भी मूढ़ता है ! वैष्णव परंपरा की नकल मात्र है ! कृपया विवेक से काम लें !!! जो पहले से होता आ रहा है ज़रूरी तो नहीं कि वो सही ही हो ! वेसे श्वेतांबर परंपरा के तेरापंथ , स्थानकवासी परंपरा मे मूर्ति पुजा को मान्यता नही है ! साधना , स्वाध्याय बिना पुजा के भी संभव है ! जैन समाज के साधू , संतो , आचार्यो , श्रावकों को इस गहन विषय पर विचार करना चाहिए ! क्या आरती , द्रव्य पुजा , अभिषेक आदि से हिंसा तो नही हो रही है जो जैन धर्म का मूल सिदान्त है ! जैन समाज को आज सिर्फ हिंदुस्तान ही नही विश्व मे अहिंसक के रूप मे जाना जाता है ! जहा अहिंसा परमो धर्म का ध्वज फहराया जाता है !
लेखक - उत्तम जैन  ( विद्रोही )

Saturday 15 September 2018

क्षमा याचना - एक सच्ची एवं निष्कपट - उत्तम जैन ( विद्रोही )

क्षमा याचना - एक सच्ची एवं निष्कपट - उत्तम जैन ( विद्रोही ) 

क्षमा मांगना एक यान्त्रिक कर्म नहीं है बल्कि अपनी गलतियों को महसूस कर उस पर पश्चाताप करना है । पश्चाताप में स्वयं को भाव होता है । ताकि हम अपनी आध्यात्मिक यात्रा आगे बढ़ा सकें । भूल करना मानव की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है; हम सभी भूल करते हैं। परंतु उन्हें दोहराने का यह औचित्य नहीं हो सकता। हमे अपनी भूल का अहसास हो गया है यह दिखाने की केवल दो विधियाँ हैं। पहली विधि है कि भूल को ना दोहराएं और दूसरी एक सच्ची क्षमा याचना द्वारा।सही ढंग से क्षमा मांगना कोई विशेष कला या ज्ञान नहीं। यह तो केवल इस पर निर्भर है कि आप स्पष्ट रूप से सत्य बोल पाते हैं कि नहीं। जब हमे वास्तव में अपने कार्य पर पछतावा होता है, तो सही शब्द स्वत: ही बाहर आने लगते हैं और क्षमा मांगना अत्यंत सरल हो जाता है।वास्तव में क्षमा याचना विश्वास का एक पुनःस्थापन है। इस के द्वारा आप यह कह रहे हैं कि मैं ने एक बार आप का विश्वास तोड़ा है किंतु अब आप मुझ पर भरोसा कर सकते हैं और मैं ऐसा फिर कभी नहीं होने दूँगा। जब हम एक भूल करते हैं, तो दूसरे व्यक्ति के विश्वास को झटका लगता है। अधिकतर सकारात्मक भावनाओं की नींव विश्वास ही होती है।जब आप किसी से प्रेम करते हैं, तो आप उन पर विश्वास करते हैं कि वे वास्तव में वैसे ही हैं जैसा वे स्वयं को दर्शाते हैं। किंतु जब वे उसके विपरीत कार्य करते हैं, तो आप का विश्वास टूट जाता है। इस विश्वासघात से आप को बहुत कष्ट होता है और यह दूसरे व्यक्ति के प्रति आप की भावनाओं को भी प्रभावित करता है।यदि आप अपराध को दोहराने का विचार कर रहें हैं, तो ऐसी क्षमा याचना विश्वसनीय नहीं है।इसी प्रकार यदि आप किसी के विश्वास को तोड़ते हैं संभवत: वह आप को एक बार क्षमा कर सकते हैं। परंतु यदि आप ऐसा फिर से करते हैं तो आप उनसे क्षमा की आशा नहीं कर सकते। इसलिए, एक निष्ठाहीन क्षमा याचना सम्पूर्ण रूप से व्यर्थ है। तो आप पूछेंगे कि एक निष्कपट क्षमा याचना क्या है?एक सच्ची क्षमा याचना में “यदि” और “परंतु” जैसे शब्दों का कोई स्थान नहीं होता। यह कहना कि आप ने ऐसा क्यों किया इसका भी कोई अर्थ नहीं। सर्वश्रेष्ठ क्षमा याचना वह है जहाँ आप यह पूर्ण रूप से समझें, महसूस करें तथा स्वीकार करें कि आप के कार्यों ने अन्य व्यक्ति को ठेस पहुँचाया है। एक कारण या औचित्य दे कर अपनी क्षमा याचना को दूषित न करें। यदि आप सच्चे दिल से क्षमा नहीं मांगते हैं तो आप अपनी क्षमा प्रार्थना का नाश कर रहे हैं। इस से दूसरे व्यक्ति को और अधिक कष्ट होगा। आप एक क्षमा याचना अथवा एक बहाने में से केवल एक को ही चुन सकते हैं, दोनों को नहीं।क्षमा याचना विश्वसनीय तभी होती है जब आप यह ठान लें कि आप अपने अपराध को दोहरायेंगे नहीं और जब आप कोई बहाना या औचित्य नहीं देते हैं। आप अपने कार्य का पूरा उत्तरदायित्व लेते हैं और सच्चे दिल से आप क्षमा मांगते हैं। पश्चाताप की भावना से रहित क्षमा याचना व्यर्थ है। वास्तव में, इस से दूसरे व्यक्ति को और अधिक कष्ट होगा। अक्सर लोग कहते हैं, “मुझे क्षमा करें परंतु मैं ने ऐसा सोच कर यह काम किया था…”, अथवा “मुझे क्षमा करें परंतु मैं ने यह कार्य इस कारण किया था…” अथवा “मुझे क्षमा करें यदि मेरे कारण आप को कोई चोट पहुँची हो”। ये क्षमायाचना नहीं केवल बहाने हैं।जैन दर्शन के अनुसार वास्तव में क्षमावाणी के पीछे अपनी कमियां, कमजोरी व मतलब के कारण दूसरों को हानि पंहुचाने की वृति को बदलना है । हम इस तरह की गलतियां बार-बार किन कारणों से करते आये हैं । उनको पहचान कर अपनी आदतों को बदलना है । यह एक तरह से स्वयं का परीक्षण करना है ।

Thursday 13 September 2018

संवत्सरी शुद्ध रूप से आध्यात्मिक पर्व

संवत्सरी शुद्ध रूप से आध्यात्मिक पर्व है। यह आत्म-चिंतन आत्म-निरीक्षण, आत्म-मंथन व आत्म शोधन का पर्व है। जैन धर्म की त्याग प्रधान संस्कृति में संवत्सरी पर्व का अपना अपूर्व एवं विशिष्ट आध्यात्मिक महत्व है। यह एकमात्र आत्मशुद्धि का पर्व है, इसीलिए यह पर्व ही नहीं, महापर्व है। जैन लोगों का सर्वमान्य विशिष्टतम पर्व है। संवत्सरी पर्व- त्याग तपस्या, ध्यान, मौन, जप, स्वाध्याय आदि अनेक प्रकार के अनुष्ठानों के द्वारा मनाया जाता है। संवत्सरी अंतरात्मा की आराधना का पर्व है, आत्मशोधन का पर्व है, सोना तपकर निर्खाद बनता है इंसान तपकर भगवान बनता है। यह पर्व अज्ञानरूपी अंधकार से ज्ञानरूपी प्रकाश की ओर ले जाता है।
तप जप ध्यान स्वाध्याय के द्वारा क्रोध, मान, माया, लोभ,राग, द्वेष आदि आंतरिक शत्रुओं का नाश होगा तभी आत्मा अपने स्वरूप में अवस्थित होगी अतः यह आत्मा का आत्मा में निवास करने की प्रेरणा देता है।
संवत्सरी महापर्व आध्यात्मिक पर्व है, इसका जो केंद्रीय तत्व है, वह है- आत्मा। आत्मा के निरामय, ज्योतिर्मय स्वरूप को प्रकट करने में यह महापर्व अहं भूमिका निभाता है। अध्यात्म यानी आत्मा की सन्निकटता। यह संवत्सरी पर्व मानव-मानव को जोड़ने व मानव हृदय को संशोधित करने का महान पर्व है।जिसे त्याग-प्रत्याख्यान, उपवास, पौषध सामायिक, स्वाध्याय और संयम से मनाया जाता है।
वर्षभर में कभी समय नहीं निकाल पाने वाले लोग भी इस दिन जागृत हो जाते हैं। कभी उपवास नहीं करने वाले भी इस दिन धर्मानुष्ठान करते नजर आते हैं।
संवत्सरी महापर्व कषाय शमन का पर्व है। यह पर्व 8 दिनों तक मनाया जाता है जिसमें किसी के भीतर में ताप, उत्ताप पैदा हो गया हो, किसी के प्रति राग-द्वेष की भावना पैदा हो गई हो तो यह उसको शांत करने का पर्व है। संवत्सरी पर्व आदान-प्रदान का पर्व है। इस दिन सभी अपनी मन की उलझी हुई ग्रंथियों को सुलझाते हैं, अपने भीतर की राग-द्वेष की गांठों को खोलते हैं, वे एक- दूसरे से गले मिलते हैं। पूर्व में हुई भूलों को क्षमा द्वारा समाप्त करते हैं व जीवन को पवित्र बनाते हैं।
संवत्सरी महापर्व का समापन क्षमावाणी (मैत्री दिवस) के रूप में आयोजित होता है जिसे क्षमापना दिवस भी कहा जाता है। इस तरह से संवत्सरी महापर्व एवं क्षमापना दिवस- ये एक-दूसरे को निकटता में लाने का पर्व है। ये एक-दूसरे को अपने ही समान समझने का पर्व है। 
मानवीय एकता, शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व, मैत्री, शोषणविहीन सामाजिकता, अंतरराष्ट्रीय नैतिक मूल्यों की स्थापना, अहिंसक जीवन आत्मा की उपासना शैली का समर्थन आदि तत्व संवत्सरी महापर्व के मुख्य आधार हैं।
संवत्सरी पर्व प्रतिक्रमण का प्रयोग है। पीछे मुड़कर स्वयं को देखने का ईमानदार प्रयत्न है। आत्मशोधन व आत्मोत्थान का पर्व है। यह पर्व अहंकार और ममकार के विसर्जन करने का पर्व है। यह पर्व अहिंसा की आराधना का पर्व है। आज पूरे विश्व को सबसे ज्यादा जरूरत है अहिंसा की, मैत्री की। यह पर्व अहिंसा और मैत्री का पर्व है। देश और दुनिया में समय-समय पर रह-रहकर सांप्रदायिक हिंसा और आतंकवादी घटनाएँ ऐसा वीभत्स एवं तांडव नृत्य करती रही हैं, जिससे संपूर्ण मानवता प्रकंपित हो जाती है। इन दिनों काश्मीर में वहां की जनता की सक्रिय भागीदारी से बौखलाए आतंकवादी अपनी गतिविधियों में तेजी लाते हुए वहां हिंसा का माहौल निर्मित कर रहे हंै, अहिंसा की एक बड़ी प्रयोग भूमि भारत में आज साम्प्रदायिक-आतंकवाद की यह आग- खून, आगजनी एवं लाशों की ऐसी कहानी गढ़ रही है, जिससे घना अंधकार छा रहा है। चहूँ ओर भय, अस्थिरता एवं अराजकता का माहौल बना हुआ है। भगवान महावीर हो या गौतम बुद्ध, स्वामी विवेकानंद हो या महात्मा गांधी- समय-समय पर ऐसे अनेक महापुरुषों ने अपने क्रांत चिंतन के द्वारा समाज का समुचित पथदर्शन किया। ऐसे समय में संवत्सरी महापर्व की प्रासंगिकता सहज ही बहुगुणित हो गयी है।  संवत्सरी महापर्व अहिंसा के मूल्यों को पल्लवित एवं पोषित करने का अवसर है। सारे मानवीय-मूल्य अहिंसा की आबोहवा में पल्लवित, विकसित होते हैं एवं जिन्दा रहते हैं। वस्तुतः अहिंसा मनुष्यता की प्राण-वायु (आॅक्सीजन) है। प्रकृति, पर्यावरण, पृथ्वी, पानी और प्राणीमात्र की रक्षा करने वाली अहिंसा ही है। हम अहिंसा का मार्ग नहीं अपनाते हैं तब प्रकृति अपना काम करती है। इसलिए संवत्सरी एक ऐसा अवसर है जो हमें महाविनाश से महानिर्माण की ओर अग्रसर करके जीवन निर्माण की प्रेरणा देता है।   

Monday 10 September 2018

ध्यान दिवस -मन और मस्तिष्क का मौन हो जाना ही ध्यान है-- लेखक उत्तम जैन ( विद्रोही )



ध्यान एक ऐसी यात्रा है, जिसमें आपको कुछ करना नहीं होता, यह अपने आप होती है जब हम ध्यान करते हैं, चक्रों को जागृत करते हैं तो आपका ध्यान चक्रों पर ही रहता है, इसका मतलब यह होता है कि आप अपने ‘हार्मोन्स एवं ओरा को व्यवस्थित कर रहे हैं। हर आदमी का एक ओरा और एक आभा मंडल है। हमारे शरीर के सभी केन्द्र, ऊर्जा के केन्द्र हैं। 
 ध्यान चार प्रकार के होते हैं भगवान महावीर की साधना के दो अंग तपस्या और ध्यान बताए व आचार्य महाप्रज्ञ ने ध्यान को प्रेक्षाध्यान  बताया  प्रेक्षाध्यान से तनाव मुक्ति व कार्य क्षमता का विकास संभव है। भौतिकवादी युग में तनाव जटिल समस्या है। उन्होंने कहा कि प्रेक्षाध्यान से आत्म साक्षात्कार हो सकता है तथा अपनी सोई शक्ति को जगाया जा सकता है। हमें जीवन  में अधिक से अधिक धर्म आराधना में तप एवं त्याग करके अपने कर्मों का क्षय करना है। मोक्ष में जाने के लिए पहला कदम दान है। जैसा कि सिकंदर कितने धनाढ्य थे, लेकिन उन्होंने कहा था कि मनुष्य खाली हाथ आया और खाली हाथ जाएगा। साथ में यह दानरूपी धर्म ही साथ आने वाला है। दान पुण्य की पूंजी है जो रिजर्व बैंक में जमा हो जाती है
 हमारे मन में एक साथ असंख्य कल्पनाएं और विचार चलते रहते हैं। इससे मन-मस्तिष्क में कोलाहल-सा मचा रहता है। हम नहीं चाहते, फिर भी यह चलता रहता है। इस तरह लगातार सोच-सोचकर हम खुद को कमजोर करते रहते हैं। ध्यान ऐसी गैर जरूरी कल्पनाओं और विचारों को मन से हटाकर शुद्ध और निर्मल मौन में चले जाना है। ध्यान जैसे-जैसे गहराता है, व्यक्ति साक्षी भाव में आने लगता है। उस पर किसी भी भाव, कल्पना और विचारों का प्रभाव नहीं पड़ता।  वास्तव में मन और मस्तिष्क का मौन हो जाना ही ध्यान है। विचार, कल्पना और अतीत के सुख-दुख में जीना ध्यान के खिलाफ है। ध्यान कोई क्रिया नहीं है, इसलिए इसमें करने जैसा कुछ भी नहीं। ध्यान बस हो जाता है और इसके लिए कोशिश करने की जरूरत नहीं। ध्यान की अवस्था में पहुंचने पर ध्यान करने वाला अपने आसपास के वातावरण को और खुद को भी भूल जाता है। बेशक ध्यान करने से आत्मिक तथा मानसिक शक्तियों का विकास होता है।
 ध्यान का अभ्यास शुरू करने वालों के लिए  विशेष  --

1. ध्यान के लिए ऐसा समय और स्थान चुनें, जिसमें आपको कोई परेशान न कर सके। सूर्योदय और सूर्यास्त का समय इसके लिए आदर्श है। 

2. सीधे बैठें और रीढ़ की हड्डी को सीधी रखें। अपने कंधे और गर्दन को आरामदायक स्थिति में रखें और पूरी प्रक्रिया के दौरान आंखें बंद करके रखें। 
3. अगर शाम के समय में ध्यान करने वाले हैं, तो सुनिश्चित करें कि कम से कम तीन घंटे से कुछ न खाया हो। 
4. ध्यान से पहले सूक्ष्म क्रियाएं कर लेनी चाहिए। इससे शरीर की जड़ता और बेचैनी दूर होती है और शरीर हल्का महसूस होता है। ऐसे में स्थिरता के साथ ज्यादा समय बैठ सकेंगे| 
5. ध्यान से पहले अनुलोम-विलोम प्रणायाम करने लेना अच्छा होता है। इससे सांस की लय स्थिर हो जाती है और मन आसानी से ध्यान में चला जाता है।
 6. चेहरे पर सौम्य मुस्कान बनाकर रखें। इससे आप आराम और शांति महसूस करेंगे। इससे आपका ध्यान का अनुभव बेहतर होगा। 
7. नए लोग निर्देशित ध्यान का सहारा ले सकते हैं। आपको सिर्फ आंखों को बंद करके आराम करना है और निर्देशों को सुनकर उनका पालन करते हुए अनुभव का आनंद लेना है।
 8. ध्यान से कब बाहर आना है, इसके लिए अलार्म का प्रयोग न करें। कुछ दिनों के अभ्यास से आप खुद ही तय समय पर ध्यान से बाहर आने लगेंगे। कभी-कभार कुछ समय कम भी रह जाए तो चिंता न करें।
 9. ध्यान के बाद आंखों को धीरे-धीरे खोलें। आखों को खोलने में जल्दबाजी न करें और आंखें खोलने के बाद अपने और वातावरण के प्रति सजग होने के लिए समय लें। 
10. आदर्श स्थिति यह है कि सुबह और शाम दोनों वक्त 20-20 मिनट के लिए ध्यान किया जाए, लेकिन अगर इतना समय नहीं है, तो कम समय के लिए भी ध्यान में बैठा जा सकता है। आप अपने जीवन केा अनुशासित करो, शरीर को अनुशासित और मन को प्रशिक्षित करें, अपनी ऊर्जा को संतुलित कर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ो। एक आसन पर बैठकर जब आप अपने मस्तिष्क को खाली कर लेते हैं, जब आपके दिमाग में विचारों का मेला नहीं रहता है तब आप आनंद की धारा में बहने लगते हैं उसी आनंद को थोड़े समय के लिए रोक दें और एक अच्छे विचार पर आप अपने ध्यान को स्थिर कर दें। तब आप एक ऐसे बिन्दु पर पहुंच जाते हैं जहां कोई विचार नहीं रहता, आप निर्विचार हो जाते हैं। जैसे-जैसे आपका ध्यान पक्का होता जाएगा वैसे-वैसे आप ‘समाधि’ की तरफ पहुंचते जाएगें। ध्यान की प्रगाढ़ अवस्था ही ‘समाधि’ है। 
कै
से उतरें ध्यान में --
1. ध्यान में जाने से पहले सूक्ष्म क्रियाएं करें। शरीर के सभी जोड़ों की बारी-बारी से रोटेशन एक्सरसाइज कर लें। 
2. सुखासन में बैठ जाएं। आंखें बंद कर लें और चेहरे पर मुस्कान बनाए रखें। 
3. अब एक लंबी गहरी सांस लें और जाने दें। तीन बार ओम का जाप करें। 
4. इसके बाद अनुलोम-विलोम प्रणायाम के 9 राउंड करें। इसके फौरन बाद ध्यान में उतर जाएं। इसके लिए कोई कोशिश नहीं करनी है, बस अपनी सांसों पर ध्यान लगाना है। आती-जाती सांसों पर अपने मन को ले जाएं। मन में जो विचार आ रहे हैं, उन्हें आने दें, रोकें नहीं। विचार आएंगे और खुद चले जाएंगे। कुछ देर के लिए मन खाली होगा, फिर विचार आएंगे और चले जाएंगे। 20 मिनट के बाद जब मन करे, सहजता से आंखें खोल सकते हैं। 
5. कुछ दिनों के अभ्सास से धीरे-धीरे अपने आप ही विचार आने कम होने लगेंगे और ध्यान लगने लगेगा। 

आत्मसाक्षात्कार प्रेक्षाध्यान के द्वारा, अर्थात प्रेक्षाध्यान द्वारा खुद को खुद से साक्षात्कार करने का अवसर प्राप्त होता है। आचार्य महाप्रज्ञ ने वर्षों तक अपने ऊपर प्रयोग करके प्रेक्षाध्यान पद्धति को प्रतिपादित किया था। उन्होंने ध्यान के लिए मन को एकाग्र करने को जरूरी बताया। मन और इन्द्रियों को पवित्र और स्थिर करने के लिए सबको ‘प्राणायाम’ और ध्यान करना आवश्यक है। इससे मनुष्य में दिव्यशक्तियों का अभ्युदय होता है। प्राणायाम से रोगी भी निरोगी बन जाता है। प्राणायाम करने से मन और इन्द्रियों के दोष दूर हो जाते हैं और मन निर्मल हो जाता है। मन, शांत और स्थिर हो जाता है, चित्त की वृत्तियों का निरोध हो जाता है। आयुष्य (आयु) की वृद्धि होती है। सूक्ष्म और स्थूल दोनों शरीरों का विकास होता है।

Sunday 9 September 2018

जप दिवस

जप का बड़ा महत्त्व होता है। माला तो गिनती की सुविधा के लिए एक साधन मात्र है। जप श्वास के साथ भी कर सकते हैं। गीत और भजन भी भक्ति का एक प्रकार होता है। शरीर साथ न दे तो बैठ कर ही नहीं लेट कर भी जप किया जा सकता है बस भाव शुद्ध होना चाहिए मन धर्म ध्यान में एकाग्र रहे। यदि साधु संगति ना हो सके प्रवचन सत्संग में ना जा सकें तो भी घर बैठे जप तो किया ही जा सकता है। जप के लिए नवकार या नमस्कार मन्त्र एक बहु उपयोगी महामंत्र है। ]
जप सबसे सरल एवं सबसे कठिन तप है। स्थूल शरीर की स्थिरता रहे बिना जप सफल नहीं होता। तेजस शरीर जप के साथ सक्रिय होना चाहिए। जप का लक्ष्य है निर्जरा, जप शब्द दो अक्षरों से बना है। जप से जन्म मरण की परम्परा का विच्छेद एवं पाप की वृतियों का नाश होता है। जप मानसिक एवं वाचिक दोनों प्रकार से किया जाता है। जप के मंत्र का शुद्ध उच्चारण, अर्थ का ध्यान, तन्मयता एवं श्रद्धा से किया गया जप फलित होता है।  जन्म-मरण की परंपरा का नाश ही जप है। शब्दों में इतनी ताकत होती है कि शांति को अशांति में बदल सकती है। शब्दों में ताकत नहीं होती तो महाभारत नहीं होता। आचार्य श्री महाप्रज्ञ ने भी बताया कि अपने शरीर के तापमान को शब्दों के उच्चारण से कम अधिक किया जा सकता है। जप करना है लेकिन एकाग्रता से करें। एक माला फेरनी है उसमें भी इतने विचार मन में आते हैं कि एकाग्र नहीं कर सकते। घर में पूजा कक्ष के अलावा उपासक कक्ष होना चाहिए। उत्तर-पूर्व दिशा उर्जा प्राप्त करने के लिहाज से बेहतर है। जप में स्थान, समय, दिशा और आसन बहुत महत्व रखते हैं। आसन बिछाने का और बैठने का दोनों तरह के होते हैं। बैठने के लिए हम सुखासन, वज्रासन, पद्मासन, अर्द्धपद्मासन श्रेष्ठ हैं। बिना आसन बिछाये ध्यान नहीं करना चाहिए। हम जो उर्जा प्राप्त करते हैं तो बिना आसन के वह उर्जा गुरुत्वाकर्षण के कारण धरती में चली जाती है। ध्यान और जप दो ऐसे माध्यम हैं जिनके माध्यम से आत्म उद्धार की दिशा में बढ़ा जा सकता है। जप क्यों किया जाए, यह पहला सवाल होता है। जप के मंत्रों में वह शक्ति होती है जो पारिवारिक-सामाजिक समस्याओं का समाधान करता है। व्यक्ति निराश-हताश होता है तब उसे आलम्बन की की जरूरत होती है। इंसान के भीतर अहंकार का भूत होता है। जब तक उसे पांच बार कहा नहीं जाए तब तक वह झुकने को तैयार नहीं होता। जहां जीवन है, वहां समस्या है। जिस समस्या से व्यक्ति निजात पा सकता है। जाप का महत्व पुरातन ऋषि-मुनियों ने बताया। मंत्र का पुनः पुनः उच्चारण जप है। मंत्र को भावों से परिमित कर दिया जाए तो उसकी शक्ति अपरिसीमित हो जाती है। हालांकि पुस्तकों में हजारों मंत्र हैं लेकिन अगर उनके साथ भाव नहीं जुड़े तो उनका कोई अर्थ नहीं है। मन की पवित्रता जप की आवश्यक सामग्री है। जप जब तक लयबद्ध नहीं होगा, तब तक मंत्र के धार पर नहीं आती है। वह शक्तिशाली नहीं बनता है। मंत्र कर्म काटने का महत्वपूर्ण हथियार है। लयबद्धता उसे धार देती है और मंत्र शक्तिशाली बन जाता है। जप करने की विधि को जानना जरूरी है, तभी वह प्राणवान बनता है। जप करते समय आसन बिछा हुआ होना चाहिए। नौ बार हाथ के पौरों पर जप किया जाए। अंगुलियों के बीच छिद्र न हो, रेखा का स्पर्श न हो। अनामिका अंगुली व अगुष्ट का प्रयोग होना चाहिए। दोनों का योग जीवन एवं रिश्तों को सरस बनता है। उत्तर दिशा चंचलता को नियंत्रित करती है। पूर्व दिशा शक्ति संचार करने वाली है। शक्ति का सही उपयोग जप का लक्ष्य होना चाहिए। शक्ति का सही उपयोग हुए बिना व्यक्ति फिसल जाता है, पथच्युत  हो सकता है। ऐसी अवस्था खतरनाक बन जाती है। जैन धर्म एक महामंत्र है जिसे सभी मंत्र से बड़ा माना गया है  

अणुव्रत चेतना - लेखक उत्तम जैन ( विद्रोही )

                               पर्युषण पर्व का पांचवा दिन अणुव्रत चेतना दिवस 
                   
                       A Way To Innovate Ourself  
अणु अर्थात छोटे, व्रत अर्थात नियम- छोटे-छोटे नियमों को अणुव्रत कहते है। अणुव्रत की आवश्यकता इसलिए हुई क्योंकि इस कलियुग में आज हर व्यक्ति में त्याग की चेतना की जगह भोग चेतना, पदार्थ चेतना, स्वार्थ चेतना ही घर कर रही है। व्यक्ति अपने मूल उद्देश्य से भटकता जा रहा है। भारत की आजादी के बाद तो धर्म और देश ती परिस्थितियां काफी बदल चुकी है। देखा जाये तो पूर्व पश्चिम में समा रहा है तो पश्चिम पूरब की तरफ आ रहा है। सभी सुख चाहते है। सुख तो कही भी मिल सकता है। लेकिन लोगों में उसे खोजने का तरीका अलग-अलग है। लोग स्वार्थ में, पदार्थ में या भोग में सुख की खोज करते है जबकि परम सुख है अणुव्रत और संयम। अणुव्रत के नियमों का पालन करके चरित्र निर्माण किया जा सकता है।      
 श्रावक की पहली भूमिका है - सम्यक्त्व दीक्षा। उसके पश्चात व्रत दीक्षा स्वीकार की जाती है।
व्रत-दीक्षा का अर्थ है असंयम से संयम की ओर प्रस्थान। एक गृहस्थ श्रावक पूरी तरह से संयमी नही हो सकता है। इसी दृष्टि से भगवान महावीर ने उसके लिए बारह व्रत रूप संयम धर्म का निरुपण किया।   इन्ही व्रतों को सर्वग्राही बनाने के लिए आचार्य श्री तुलसी ने असाम्प्रदायिक धर्म के तौर पर अणुव्रत आंदोलन का सूत्रपात किया।

जिस प्रकार अणु का एक कण समूचे ब्रह्मांड में विस्फोट कर सकता है, वैसे ही अणुव्रत के छोटे छोटे नियम हर समस्या को सुलझा सकते हैं। इस सकारात्मक सोच के साथ तेरापंथ धर्मसंघ के नौंवे आचार्य तुलसी ने आज से करीब 70 साल पहले अणुव्रत आंदोलन शुरू किया। जिसकी गूंज गरीब की झोपड़ी से लेकर राष्ट्रपति भवन तक पहुंची अणुव्रत चरित्र निर्माण का आंदोलन है, जीवन विकास का प्रारंभ है, शक्ति को जगाने का दिव्य मंत्र है, आचरण की शुद्धि का उपक्रम यानि मानव धर्म है। अहिंसा, शांति, पवित्रता व चरित्र का उदगम स्थल है, नाश के मार्ग से बचाकर व्यक्ति को मार्ग पर स्थापित करता है। उन्होंने कहा कि अणुव्रत के तीन कार्य हैं। पहला व्यक्ति को चरित्रवान बनाना, दूसरा व्यवहार की शुद्धि करना तथा तीसरा धर्म समन्यव करना है।
चित-अनुचित में हम फर्क नहीं कर पाए तो पषु और मानव में कोई फर्क नहीं रह जाएगा। अच्छे इंसान के लिए दुर्व्यसन का त्याग जरूरी है। जिसे ये दुर्व्यसन लग जाए तो उसका पतन निश्चित है। यम, नियम, योग, प्राणायाम कैसे कर सकते हैं, इस पर विचार करना चाहिए। हर परिस्थिति को समभाव से संभालना है। इंद्रिय संयम व्रत चेतना के साथ जरूरी है। व्रत चेतना जरूरी है अन्यथा स्वार्थवाद टकराता है। स्वार्थों का त्याग जरूरी है नहीं तो परिवार में टकराव-बिखराव हो जाता है।भगवान महावीर ने व्रत, महाव्रत का प्रतिपादन किया। आचार्य तुलसी को अणुव्रत का प्रतिपादक इसलिए कहा जाता है कि उन्होंने इन्हें जीवन के साथ जोड़ने का प्रयास किया। जिस प्रकार तालाब की सुरक्षा के लिए पाल बनाई जाती है ठीक उसी प्रकार अहिंसा अणुव्रत के 5 व्रत दिए जो पाल का काम करते हैं। अधिकार मत छीनो, सत्य मत हड़पो। इन्द्रियों का संयम करो। इच्छाओं को सीमित करो। गृहस्थ के लिए पांचों नियम आवष्यक है। धार्मिकता की ओट में आज नैतिकता छिपा देते हैं। ये धर्म के साथ धोखा है। जहां नैतिकता नहीं, वहां धार्मिकता नहीं हो सकती। आचार्य तुलसी महावीर की वाणी के आधार पर इन अणुव्रत का प्रतिपादन किया। प्रत्येक व्यक्ति में अणुव्रत नैतिकता की चेतना जाग जाए। लोग तो भगवान के साथ भी धोखा कर जाते हैं जीवन में पांच पी पावर, प्रेक्टिस, प्लेजर, पोजीषन एवं पर्सनालिटी की आवष्यकता मानी जाती है लेकिन इस पांच में एक और पी प्योरिटी जुड़ जाए तो जीवन सफल हो जाता है। जो भी हो, पवित्रता के साथ हो। व्रत की चेतना का विकास कैसे हो, इस पर ध्यान जरूरी है। शरीर अनित्य है लेकिन आत्मा अजर अमर है। भगवान महावीर ने बताया कि धर्म आगार और अणगार दो प्रकार के होते हैं। आगार धर्म में पंच महाव्रत का रास्ता है जो साधु जीवन के लिए है वहीं अणगार धर्म श्रावक-श्राविकाओं के लिए है जिसमें 12 व्रतों की पालना जरूरी बताई गई है। अध्यात्म का प्रथम सोपान अणुव्रत है। भगवान महावीर का कहना था कि जैसा तुम्हें ठीक लगे, वही करो लेकिन जल्दी करो। उस काम को करने में देरी मत करो। छोटे छोटे नियमों से व्रतों का उद्धरण होता है, वह अणुव्रत कहलाता है। इच्छाओं का परिष्कार करें, अणुव्रत की चेतना का विकास करें। इच्छाओं का संयम बहुत मुष्किल है। धर्म का प्रगति से कोई विरोध नहीं लेकिन प्रति के साथ आध्यात्मिक भी होना चाहिए। आज जरूरत है अध्यात्म को जानने, समझने और सीखने की।
बदले युग की धारा ,
नई दृष्टि हो ,नई सृष्टी हो अणुुव्रतों के द्वारा
बदले युग की धारा ।।

आचार्य तुलसी द्वारा  प्रदत - अणुव्रत के ग्यारह नियम
१. मैं किसी निरपराध प्राणी का संकल्पपूर्वक वध नहीं करूंगा ।
       ° आत्महत्या नही करूंगा
       ° भ्रूणहत्या नहीं करूंगा ।

२.मैं किसी पर आक्रमण नहीँ करूंगा ।
   ° आक्रामक नीति का समर्थन भी नही करूंगा ।
   ° विश्व - शांति तथा निः शस्त्रीकरण के लिए प्रयत्न करूंगा ।
३.मैं हिंसात्मक उपद्रवों एवं तोड़ -फोड़ मूलक प्रवृतियों में भाग नहीं लूंगा ।।
४.मैं मानवीय एकता में विश्वास रखूंगा ।
   ° जाति , रंग आदि के आधार पर किसी को ऊंच -नीच नहीं मानूंगा ।
   ° अस्पृश्य नहीं मानूंगा ।
५. मैं धार्मिक सहिष्णुता का भाव रखूंगा ।
६. मैं व्यवसाय और व्यवहार में प्रामाणिक रहूंगा ।
    ° मैं अपने लाभ के लिए दूसरे को हानि नहीं पहुंचाऊंगा ।।
     °छलनापूर्ण व्यवहार नहीँ करूंगा ।
७.मैं  ब्रह्मचार्य  की साधना और संग्रह की सीमा निर्धारण करूंगा ।
८.मैं चुनाव के संबंध में अनैतिक आचरण नहीं करूंगा ।
९.मै सामाजिक कुरूढियों को प्रश्रय नहीं दूंगा ।
१०.मैं व्यसन -मुक्त जीवन जीऊंगा ।
  °मादक तथा नशीले पदार्थो -जैसे शराब , गांजा ,चरस ,हेरोईन ,भांग , तम्बाकू आदि का सेवन नहीं करूंगा ।
११. मैं पर्यावरण की समस्या के प्रति जागरूक रहूंगा ।
  ° हरे भरे वृक्ष नहीं काटूंगा।
  ° पानी का अपव्यय नहीं करूगां ।

वाणी संयम दिवस - वाणी संयम मनुष्य जीवन का आभूषण

       वाणी संयम मनुष्य जीवन का आभूषण है 

        तेरापंथ  धर्मसंघ  पर्युषण पर्व  का चतुर्थ दिवस - वाणी संयम 

                                 लेखक - उत्तम जैन ( विद्रोही ) 

       
   एक शिक्षक  से शिष्य ने जिज्ञासा वश पूछा सदैव प्रसन्न रहने के लिए क्या करना चाहिए?’
शिक्षक ने कहा, ‘अपनी वाणी से अमृत बिखेरते रहो। सभी से प्रेम करो, निश्चय ही सभी से प्रेम पाते रहोगे।  इससे प्रसन्नता मिलेगी।’
कुछ क्षण रुककर उन्होंने एक कथा सुनानी शुरू की, ‘फारस देश में एक स्त्री थी। वह शहद बेचने का काम करती थी। शहद तो वह बेचती ही थी, उसकी वाणी भी शहद जैसी ही मीठी थी। उसकी दुकान पर खरीददारों की भीड़ लगी रहती थी। एक ओछी प्रवृति वाले व्यक्ति ने देखा कि शहद बेचने से एक महिला इतना लाभ कमा रही है, तो उसने भी उस दुकान के नजदीक एक दुकान में शहद बेचना शुरू कर दिया। उसका स्वभाव कठोर था।एक दिन एक ग्राहक ने सहज में ही उससे पूछ लिया कि शहद मिलावटी तो नहीं! उसने भड़ककर कहा कि जो स्वयं नकली होता है, वही दूसरे के सामान को नकली बताता है। ग्राहक उसकी कड़क आवाज से घबड़ाकर लौट गया। वही आदमी फिर महिला के पास पहुंचा और वही सवाल पूछ बैठा। महिला ने मुस्कराते  हुए कहा कि जब वह खुद असली है, तो वह नकली शहद क्यों बेचेगी! ग्राहक मुस्कुरा उठा और शहद ले गया।कहानी सुनाने के बाद शिक्षक ने शिष्य को  उपदेश देते हुए कहा, ‘विनम्र स्वभाव और मीठी वाणी का हर तरह की सफलता में योगदान रहता है, इसलिए मनुष्य को हमेशा मीठी वाणी बोलनी चाहिए।
हमेशा याद रखिये कि “वाणी में इतनी शक्ति होती है कि कड़वा बोलने वाले का शहद भी नहीं बिकता और मीठा बोलने वाले की मिर्ची भी बिक जाती है।” वास्तव में मीठी वाणी बोलना न सिर्फ अपने, बल्कि दूसरों के कानों को भी सुकून देता है। किसी ने सत्य ही कहा है,
जरूरी नहीं कि आप केवल मिठाई खिलाकर दूसरों का मुंह मीठा करें,
आप मीठा बोलकर भी लोगों का मुंह मीठा कर सकते हैं!
आदमी को कभी भी बिना पूछे नहीं बोलने का प्रयास करना चाहिए। आदमी को बोलने में विवेक रखने का प्रयास करना चाहिए। जब तक कहीं पूछा न जाए आदमी को अपने ज्ञान को उजागर करने का प्रयास नहीं करना चाहिए। मौन को आचार्यश्री ने पंडितों और अपंडितों का विभूषण बताते हुए कहा कि मूखों के बीच में पंडितों को मौन हो जाना चाहिए और पंडितों के बीच मूर्खों को मौन हो जाना चाहिए। इस प्रकार मौन पंडित और अपंडित दोनों का विभूषण होती है। आदमी से जब कुछ पूछा जाए तो आदमी को झूठ नहीं सत्य बोलने का प्रयास करना चाहिए। सत्य बोलना कठिन हो सकता है, किन्तु आदमी को सत्य बोलने का प्रयास करना चाहिए। यदि आदमी सत्य बोलने की हिम्मत न कर सके तो मौन हो जाए तो भी वह अपनी वाणी को संयमित कर सकता है और झूठ बोलने वाले पाप से भी बच सकता है। आदमी को अपने गुस्से को असत्य करने का प्रयास करना चाहिए। मन में कभी गुस्सा भी आए तो वाणी से गाली के रूप में या हाथ से मारपीट में प्रकट करने से रोकने का प्रयास करना चाहिए। ऐसा प्रकार कर आदमी अपने गुस्से को असत्य कर सकता है। गुस्सा कमजोरी को प्रदर्शित कर सकता है। आदमी को ऐसा प्रयास करना चाहिए कि मन में भी गुस्सा न आए।
यहां तक कि विभिन्न वेदों और शास्त्रों में भी वाणी संयम को सर्वश्रेष्ठ तप कहा गया है:
                             या ते जिव्हा मधुमति सुमेधाने देवेषूच्यत उरुचि 
 यानी, तू मीठी और सद्बुद्धि युक्त वाणी का प्रयोग कर, जिसे देव बोलते हैं। शास्त्र में कहा गया है, ‘झूठ बोलना, कटु बोलना, असंगत बात कहना, अहंकारयुक्त शब्द बोलना, निंदा करना आदि वाणी के ऐसे उद्वेग दोष हैं, जिनसे मनुष्य पग-पग पर संकट में पड़ता है। अत: एक-एक शब्द सोच-समझकर बोलना चाहिए।असंयमपूर्ण बोलने की अपेक्षा मौन रहना श्रेयस्कर है। सत्य, प्रिय और धर्मयुक्त वचन ही उच्चारित करने चाहिए। मनमाने ढंग से ऊटपटांग बोल देने वाला पग-पग पर शत्रु पैदा करता है।’ मीठे वचनों में इतनी शक्ति और आकर्षण होता है कि पराया आदमी भी मित्र व हितैषी बन जाता है, जबकि कटु वचन बोलने वाला भाई-बांधवों और मित्रों को भी दुश्मन बना लेता है।संत कबीर  ने भी कहा था ----
ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोय।
औरन को शीतल करै, आपहु शीतल होय। 
तलवार का घाव देर-सबेर भर जाता है, किंतु कटु वाणी से हुआ घाव कभी नहीं भरता। इसलिए हमेशामीठा और उचित बोलिए। खुद भी प्रसन्न होइए और दूसरों को भी प्रसन्न कीजिये।”
वाणी का संयम करने से वचन सिद्धि प्राप्त होती है। व्यक्ति बोली को तोल करके बोले, वाचाल व्यक्ति व अधिक बोलने वाला व्यक्ति इ'जत नहीं पाता, न ही उसकी बात का कोई मोल होता है। बोली के कारण ही महाभारत हुई।मृदुभाषी, मितव्ययी एवं उदारता वाला व्यक्ति विकास कर सकता है।



   

Saturday 8 September 2018

सामायिक दिवस

                                                  लाख खंडी सोनातणी, लाख वर्ष दे दान।  
                                                      सामायिक तुल्‍य नहीं, कहा ग्रन्‍थ दरम्‍यान !  
                     साधना की पहली सीढ़ी सामयिक है 
                                                             लेखक - उत्तम जैन ( विद्रोही )  
एक शुद्ध सामायिक की साधना से अन्तर्मुहूर्त में अनन्त कर्मों की मोटी मोटी शिलाएँ चकनाचूर हो जाती है ।एक शुद्ध सामायिक का फल हम जानते हैं ।पूणिया श्रावक की एक शुद्ध सामायिक की क़ीमत के सामने सम्राट श्रेणिक के पूरे राज्य की सम्पदा , वैभव सब नगण्य - तुच्छ । तभी तो कहा है कि -
लाख खण्डी सोना तणी
लाख बरस दें दान
एक सामायिक ना तुले
भाख गये भगवान
  
सामायिक का फल --एक शुद्ध सामायिक करने से --92 करोड़ ,59 लाख ,25 हजार ,925 पल्योपम नरक गति का अशुभ - बंध टूटता है और देव - गति रुप पुण्य बँधता है ।कोई व्यक्ति अगर कहें कि मैं रोजाना सामायिक करता हूँ , तो वो चिन्तन करें कि - रोजाना सामायिक करने से 
• क्या मेरे कषायों का उद्दीपन कम हुआ ?
• आत्मशुद्धि व व्यवहारशुद्धि हुई ?
• क्या सबको आत्मतुला समझा ?
कथा -एक युवक जंगल में लकड़ी काटने गया । शाम को ख़ाली हाथ लौटा । माँ ने उपालम्भ देते हुए कहा - क्या जंगल में एक भी पेड़ नहीं मिला ?युवक ने बहुत ही मार्मिक उत्तर दिया - माँ अनुभव जरुर मिला । 
मां कुछ समझी नहीं ।  युवक ने कहा - माँ , मैंने जैसे ही पेड़ को कुल्हाड़ी से काटना चाहा , मुझे अनुभव हुआ कि जैसी प्राणधारा मुझमें है वैसी ही इस पेड़ में है । पेड़ को काटने में मेरे हाथ काँप उठे , मैं पेड़ काट न सका ।यह है समता की साधना ,यह है सामायिक की निष्पत्ति । हम भी ऐसी समतामय सामायिक की साधना करके मोक्ष की मंज़िल की ओर तीव्र गति से क़दम आगे और बढ़ायें 
धार्मिक जीवन का सबसे बड़ा सूत्र है - समता का साधना , सामायिक की आराधना  सामायिक साधना तब प्राप्त होती है जब हम मन को निर्विचार कर लेते हैं ।सामायिक संवर की प्रक्रिया है । इससे प्रकम्पन बन्द हो जाते हैं और तब चाहे लाभ अलाभ ,सुख -दुख निन्दा -प्रशंसा हमारे लिए कुछ नहीं है । क्योंकि उन प्रकम्पनों को ग्रहण करने के द्वार हमने बंद कर दिये । खिड़की बंद कर दी , अब चाहे तूफ़ान आये या आँधी , तूफ़ान भीतर नहीं आयेगा । हम सुरक्षित हैंं ।मालिक जाग जाता है ,यानि व्यक्ति में जागरण घटित हो जाता है तब तब चोर घर में नहीं रह सकते । वैसे ही व्यक्ति में समता की लौ जग जाती है तब क्रोध , मान , माया ,लोभ यानि कषायों का लश्कर भी विदाई ले लेते हैं ।समता यानि अमृत की वर्षा ।आत्मिक उन्मेष होना ही सामायिक है ।जागना ही सामायिक है ।निर्विचारता की स्थिति में केवल सामायिक होती है ।सामायिक का होने का मतलब है - समता में होना ।समय का अर्थ है - आत्मा ।आत्मा में होना ही सामायिक है ।
सामायिक करते करते समता के नए अंकुर प्रस्फुटित होने लगते हैं । एक दिन ऐसा आ जाता है कि समता का कल्पवृक्ष हरा - भरा , शीतल छाँव और मनोकामना की पूर्ति करने वाला बन जाता है , जिसकी छाया में आनन्ूपुर्वक जीवन जीया जा सकता है ।यदि हम सही मायने में सामायिक करना जान लें तो कामधेनु हो या चिन्तामणि रत्न हो या समता का कल्पवृक्ष हो सब हमारे हाथ में है ।सम्भव है इसकी प्राप्ति में कुछ समय लगे । किसान भी फ़सल उगाता है तो फ़सल तैयार होने में पुरुषार्थ व समय लगता है ।सामायिक का अभ्यास करते करते समता का कल्पवृक्ष हमारे जीवन में आनन्द ही आनन्द भर देता है ।
सामायिक केवल मुँह बाँध कर बैठ जाना ही नहीं है । सामायिक में १८ पाप का त्याग करते हैं , जैसे - प्राणातिपात पापस्थान है , उस वृत्ति को कैसे मिटाएँ , उस गाँठ को कैसे खोला जाए , यह चिन्तन सामायिक में होना चाहिये ।सामायिक की साधना में एक एक वृत्ति पर चिन्तन ,मंथन ,अनुप्रेक्षा की जाए तो चिन्तन करते- करते चिन्तामणि हाथ में आ जाती है ।सामायिक उसके होती है जो सब प्राणियों के प्रति सम रहता है , जहाँ कषाय आ गया वहाँ सामायिक नहीं होती ।
सामायिक का तो स्वरुप ही है - समभाव ।
एक शब्द में कषाय का शमन ही है - सामायिक ।
यदि यह पूछा जाए -
एक शब्द में भगवान् महावीर का धर्म क्या है ?
तो इसका उत्तर होगा - सामायिक ।
भगवान महावीर ने कहा - पहली आवश्यकता है - सामायिक ।
इसकी साधना किए बिना कोई भी आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रवेश नहीं तर सकता ।सामायिक भगवान महावीर के समूचे धर्म का सार है । समता कोँ छोड़ने पर महावीर के धर्म में शून्यता रहेगी । आदि से अन्त तक सारा धर्म ही सामायिक है ।जीवन में समता का प्रवेश हो जाए तो फिर कुछ पाना शेष नहीं रहता ।सामायिक की साधना बहुत बड़ी साधना है, बहुत पवित्र साधना है , १८ पापों से दूर होने की साधना है ।सावद्य योगों के प्रत्याख्यान का नाम ही है - सामायिक ।जो क्षण हमारे शांति के बीच बीतते हैं , वह सामायिक है। जीवन का कौन सा क्षण हमारे पूरे जीवन को बदल दे , कहा नहीं जा सकता ।अत: हमें रोजाना पूज्यप्रवर महाश्रमण जी द्वारा निर्देशित एक अभिनव - सामायिक जिसमें ध्यान, कायोत्सर्ग , जप , मौन , स्वाध्याय शामिल हो , अवश्य करके मुक्तिपथ पर अग्रसर होने का प्रयास करना चाहिये । दोला़यमान व कर्मों का बंध हो वो नाममात्र व दिखावे की सामायिक हम न करें -
सास - बहू की इस पुरानी कथा से हम अनभिज्ञ नहीं है -
' सामायिक में समता भाव,
गुड़ की भेली कुत्तो खाव ,
बोलूँ तो सामायिक जाव ,
न बोलूँ तो गुड़ की भेली जाव ।।
एक सामायिक का मूल्‍य-   राजा श्रेणिक ने, भगवान महावीर से एक सामायिक का मूल्‍य पूछा, तो भगवान ने उत्तर दिया- ‘हे राजन् ! तुम्‍हारे पास जो चाँदी, सोना व जवाहर राशि हैं, उनकी थैलियों को ढेर यदि सूर्य और चाँद को छू जाएँ, फिर भी एक सामायिक का मूल्‍य तो क्‍या, उसकी दलाली भी पर्याप्‍त नहीं होगी।’ 
सामायिक मन को स्‍थिर रखने की अपूर्व क्रिया है, आत्‍मिक अपूर्व शांति प्राप्‍त करने का संकल्‍प है, परम पद पाने का सरल और सुखद मार्ग है। अखंडानंद प्राप्‍त करने का गुप्‍त मंत्र है, दु:ख समुद्र को तिरने का श्रेष्‍ठ जहाज है। अनेक कर्मों से मलीन हुई आत्‍मा को परमात्‍मा बनाने का सामर्थ्‍य सामायिक क्रिया में ही है। यह क्रिया करने से आत्‍मा में रहे दुर्गुण नष्ट होकर, सद्गुण प्राप्‍त होते हैं और परम शांति का अनुभव होता है एक आत्‍मा प्रतिदिन लाख मुद्राओं का दान करती है और दूसरी मात्र दो घड़ी की शुद्ध सामायिक करती है, तो वह स्‍वर्ण मुद्राओं का दान करने वाली आत्‍मा, सामायिक करने वाले की समानता प्राप्‍त नहीं कर सकती। आर्त और रौद्र ध्‍यान को त्‍याग कर संपूर्ण सावद्य (पापमय) क्रियाओं से निवृत्त होना और एक मुहूर्त पर्यन्‍त मनोवृत्ति को समभाव में रखना- इसका नाम ‘सामायिक व्रत’ है। 
सामायिक के लाभ 
1- सामायिक करने वाला, दो घड़ी के लिए समस्‍त पाप क्रियाओं का परित्‍याग कर देता है, जिससे उसके नए अशुभ कर्मों का बंधन बहुत रुक जाता है। उपरांत पुरानों की निर्जरा होती है तथा उत्तम पुण्‍यों का संचय होता है। 
2- सामायिक से धार्मिक आत्‍म-गुणों का विकास होता है, क्‍योंकि उसमें अशुभ तथा अशुद्ध क्रियाओं के वर्जन और शुभ शुद्ध क्रियाओं के सेवन का शिक्षण = अभ्‍यास किया जाता है। 
3- जैसे- जहाँ रानी मधुमक्‍खी बैठती है, वहाँ दूसरी मधुमक्‍खियाँ छत्ते को बाँधकर, मधु का संचय करती हैं। वैसे ही, सामायिक भी रानी मधुमक्‍खी के समान है। सामायिक की साधना प्रारंभ करने पर उसमें स्‍वाध्‍याय, जप, ध्यान, भावना आदि साधना के कई अंग गतिशील होते हैं और फिर उसमें भावरूप मधु का संचय होता है। 
4- सामायिक धार्मिक-आध्‍यात्‍मिक व्‍यायामशाला के समान है, जिसमें आत्‍मा भाव-व्‍यायाम करके, अपने सद्गुणों को पुष्‍ट करता है। 
5- सामायिक वस्‍तुत: ‘साधुत्‍व का पूर्व अभ्‍यास’ है। आत्‍मा को परमात्‍म-स्‍वरूप में रूपांतरण की प्रक्रिया ‘साधुत्‍व’ है। अत: यह बात सहज में ही सिद्ध हो जाती है कि सामायिक का सच्‍चा आराधक साधु-स्‍वरूप तथा परमात्‍मा-स्‍वरूप पाने के उपाय का सेवन कर रहा है।

स्वाध्याय का महत्व जैन साधना में -- स्वाध्याय दिवस - उत्तम जैन ( विद्रोही )

                                                 Study Of The Self =  स्वाध्याय 
                                                    लेखक - उत्तम जैन ( विद्रोही )   
         शब्द से अर्थ की ओर तथा अर्थ से भाव की ओर बढ़ना ही स्वाध्याय का मूल लक्ष्य  है 

स्वाध्याय का शाब्दिक अर्थ है- 'स्वयं का अध्ययन करना'। यह एक वृहद संकल्पना है जिसके अनेक अर्थ होते हैं। विभिन्न हिन्दू दर्शनों में स्वाध्याय एक 'नियम' है। स्वाध्याय का अर्थ 'स्वयं अध्ययन करना' तथा वेद एवं अन्य साहित्यों का पाठ करना भी है। जीवन-निर्माण और सुधार संबंधी पुस्तकों का पढ़ना, परमात्मा और मुक्ति की ओर ले जाने वाले ग्रंथों का अध्ययन, श्रवण, मनन, चिंतन आदि करना स्वाध्याय कहलाता है। आत्मचिंतन का नाम भी स्वाध्याय है। अपने बारे में जानना और अपने दोषों को देखना भी स्वाध्याय है। स्वाध्याय के बल से अनेक महापुरुषों के जीवन बदल गए हैं। शुद्ध, पवित्र और सुखी जीवन जीने के लिए सत्संग और स्वाध्याय दोनों आधार स्तंभ हैं। सत्संग से ही मनुष्य के अंदर स्वाध्याय की भावना जाग्रत होती है। स्वाध्याय का जीवन निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान है। स्वाध्याय से व्यक्ति का जीवन, व्यवहार, सोच और स्वभाव बदलने लगता है।
प्राचीनकाल से ही भारत में स्वाध्याय की परम्परा चली आ रही है। स्वाध्याय शब्द की व्युत्पत्ति स्व अधि आया के रूप में हुई है जिसका अर्थ है अपने आपको अपनी आत्मा का अध्ययन व अपने आत्मस्वरूप का बोध। ऐसा होने में शास्त्र अवलम्बन है अत: शास्त्राध्ययन भी इसका आशय है। प्राचीन काल में भारत में गुरुकुलों में ज्ञान प्रदान किया जाता था। उस समय विद्यार्थी की शिक्षा समाप्त होने पर आचार्य शिष्य को विदा करने के समय कहते थे, 'वत्स!' तुमने अब अपना अध्ययन सम्पूर्ण किया। अब तुम जीवन के क्षेत्र में इस सीखे हुए ज्ञान को चरितार्थ करने के लिये प्रवेश कर रहे हो। मैं तुम्हारी सफलता की कामना करता हूं। तुम जीवन में तीन बातों को हमेशा याद रखना  अर्थात् तुम जीवन में सत्य का अनुसरण करना, धर्म का आचरण करना और स्वाध्याय में कभी प्रमाद मत करना। उस समय स्वाध्याय करने पर बहुत जोर दिया जाता था 
स्वाध्याय क्या है ? 
हम साहित्य को  दो श्रेणियों में विभक्त कर सकते हैं। श्रेयसकारी और प्रेयसकारी।  श्रेयसकारी साहित्य जीवन का कल्याण करने वाला, उसे ऊंचा उठाने वाला होता है, प्रेयसकारी साहित्य मनुष्य का मनोरंजन करने वाला होता है। स्वाध्याय के अंतर्गत वह सब साहित्य आता है जो मनुष्य की उदात्त भावनाओं को जागृत करता है तथा उसे सत्कर्म करने की प्रेरणा देता है। स्वाध्याय का अर्थ केवल करना नहीं, आत्म चिंतन, विचारशीलता व जागरुकता भी है। जिस व्यक्ति में जागरुकता है वही अपने स्वयं का व अपने समाज का उत्थान कर सकता है। स्वाध्याय का लक्ष्य स्वाध्याय में हमारा लक्ष्य क्या है, यह समझना अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि केवल मात्र कुछ पुस्तकों को कुछ समय के लिये पढ़ लेना वास्तविक रूप में स्वाध्याय नहीं है। स्वाध्यय का लक्ष्य है 'स्व' अर्थात् अपने आत्म-स्वरूप की जानकारी। मैं कौन हूं। मेरे जीवन का लक्ष्य क्या है, मुझे क्या कर्म करने चाहिये और क्या नहीं करने चाहिये, इन सब का ठीक प्रकार से ज्ञान प्राप्त करना स्वाध्यायी का उद्देश्य है। मेने एक जैन आचार्य द्वारा लिखित शास्त्र मे पढ़ा था जैन धर्म में इसे भेद विज्ञान कहते हैं अर्थात् यह अनुभव करना कि शरीर और आत्मा अलग-अलग हैं। नश्वर शरीर के भीतर जो अविनश्वर चिरंतन आत्म-तत्व है, उसका चिंतन व बोध प्राप्त करना। भगवान महावीर ने कहा......
, 'जे एगे जाणन से सव्वं जाणई।' 
अर्थात् जो एक (आत्मा) को जानता है वह सब (जगत) को जानता है। इसी बात को आधुनिक युग में स्वामी विवेकानंद ने अभिव्यक्त किया है। उन्होंने कहा कि शिक्षा मात्र विभिन्न सूचनाओं का संग्रह नहीं है जो हमारे मस्तिष्क में ठूंस ठूंस कर भर दिये जाते हैं और जो बिना आत्मसात् हुए वहां हमेशा गड़बड़ मचाते रहते हैं। हमें उन विचारों की आवश्यकता है जो 'जीवन निर्माण', 'मनुष्य निर्माण' तथा 'चरित्र निर्माण' में सहायक हों। इस प्रकार की 'मनुष्यत्व' का ज्ञान प्रदान करने वाली शिक्षा प्राप्त करना ही स्वाध्याय का लक्षण है। स्वाध्याय का महत्व जैन साधना में स्वाध्याय को बहुत महत्व दिया गया। भगवान महावीर ने कहा कि स्वाध्याय महान तप है। बारह प्रकार के आंतरिक के बाह्य तपों में स्वाध्याय के समान तप न तो है, न हुआ है और न होगाश्री उत्तराध्ययन सूत्र में भगवान से पूछा गया, 'हे भगवान! स्वाध्याय करने से जीव किस बात का लाभ प्राप्त करता है?' भगवान ने उत्तर दिया, 'सज्झाएणं नाणावर णिज्जं कम्मं खवेई।' अर्थात स्वाध्याय से जीव ज्ञानावरणीय (ज्ञान को रोकने वाले) कर्मों का नाश करता है। भगवती सूत्र में प्रभु महावीर ने बतलाया कि सही प्रकार से स्वाध्याय करने से मनुष्य अपने जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य अर्थात् परमात्म-स्वरूप को प्राप्त कर सकता है। स्वाध्याय के अंग जैन शास्त्रों में स्वाध्याय के बारे में विशद विवेचना मिलती है। प्राचीन काल में जब पुस्तकों का प्रचलन नहीं था, तब भी स्वाध्याय किया जाता था। उस समय ज्ञान को कंठस्थ रखने का रिवाज था। शिष्य गुरुजनों से शास्त्र श्रवण कर उन्हें अपनी स्मृति में संजो कर रखते थे। वेदों को 'श्रुति' और आगम की श्रुत कहा गया, यह इसी तथ्य का सूचक है। आचार्य कुदकुंद ने लिखा है  अन्य सभी व्यक्ति इंद्रियों की आंख वाले हैं पर साधु आगम की आंख वाला है। कहने का तात्पर्य यह है कि साधक निरंतर आगम ज्ञान पर चिंतन मनन करता रहे तथा आगम के आधार पर ही अपने जीवन का संचालन करें। स्वाध्याय कैसे करें सत्साहित्य का अध्ययन करना स्वाध्याय कहलाता है लेकिन यह स्वाध्याय किस प्रकार से किया जाए इस पर विचार करने की आवश्यकता है। स्वाध्याय में पूरा मन लगाना चाहिए। आचार्य विनोबा भावे के अनुसार स्वाध्याय गंभीरता पूर्वक करना चाहिये। उन्होंने लिखा है, अध्ययन में महत्व लम्बाई, चौड़ाई का नहीं गंभीरता का है। बहुत देर तक घंटों भांति-भांति के विषयों के अध्ययन करने को मैं लम्बा-चौड़ा अध्ययन कहता हूं। समाधिस्थ होकर नित्य थोड़ी देर किसी एक निश्चित विषय के अध्ययन को मैं गंभीर अध्ययन कहता हूं। दस-बारह घंटे सोना पर करवटें बदलते रहना-ऐसी नींद में विश्रांति नहीं मिलती बल्कि पांच छह घंटे सोयें, किंतु गाढ़ी और नि:स्वप्न निद्रा हो, तो उतनी नींद से पूर्ण विश्रांति मिल सकती है। यही बात अध्ययन की भी है। गंभीरता अध्ययन का मुख्य तत्व है।



Friday 7 September 2018

खाद्य संयम दिवस - निरोगी जीवन जीने का महत्वपूर्ण रहस्य - उत्तम जैन ( विद्रोही )



खाद्य संयम दिवस - लेखक - उत्तम जैन (विद्रोही )
जब-तब खाने का भाव मिटायें |
कैसे कितना कब खाएं |
नियमित भोजन शुद्ध हवा है |
भोजन को सात्विक करना होगा |
भोजन करते समय नहीं हो,
ईर्ष्या, क्रोध, घृणा के भाव |
इनसे होते आँतों में घाव |
' संयम से खाना जीवन '
इस "वीर" वचन को रखना याद ||

तेरापंथ धर्मसंघ मे पर्युषण का प्रथम दिवस खाद्य संयम दिवस दिवस के रूप मे मनाया जाता है !  खाध्य संयम का अर्थ है खाने का संयम वेसे हमे सिर्फ इस दिन ही खाने का संयम नहीं रखना है निरोगी रहने के लिए जीवन मे खाने का संयम बहुत जरूरी है! हमे जब ही खाना खाना चाहिए जब  हमे भूख लगे   तब हम खाना खाते है तो पाचन अच्छे से होता है छोटी आंत , बड़ी आंत , पक्वाशय ,लीवर पर अतिरिक्त भार  नहीं पड़ता है फलस्वरूप हमे गेस , आम्लपित , अपचन की शिकायत नहीं होती है ! आज विज्ञान भी इससे सहमति व्यक्त करता है 
श्रावण मास में आहार संयम का महत्व:  आहार संयम निश्चित ही एक करने योग्य तप है। उपवास और बेला (दो दिन का, तीन दिन का उपवास) आदि तपस्याएं उसके अंतर्गत हैं। श्रावण-भाद्र मास में जैन लोग विशेष रूप से इस तप का प्रयोग करते हैं। यथाशक्ति, यथास्थिति वह होना भी चाहिए। कुछ लोग शारीरिक दुर्बलता अथवा अन्य व्यस्तताओं के कारण तपस्या नहीं कर पाते। उन्हें निरुत्साह होने की जरूरत नहीं। उन्हें 'ऊनोदरी' पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। निर्जरा के बारह भेदों में दूसरा भेद है ऊनोदरी। 'ऊन' का अर्थ है न्यून, कम। उदर का अर्थ है पेट। उदर को ऊन रखना, खाने में कमी करना ऊनोदरी तप है। ऊनोदरी का यही अर्थ अधिक प्रचलित है। जैन धर्म में ऊनोदरी के दो प्रकार बतलाए गए हैैैं -पहला द्रव्य अवमोदरिका एवं दूसरा भाव अवमोदरिका। यहां अवमोदरिका का भी तात्पर्य है अल्पीकरण अथवा संयम। द्रव्य अवमोदरिका का अर्थ है उपभोग में आने वाले द्रव्यों -भौतिक पदार्थों का संयम करना। भाव अवमोदरिका का संबंध हमारे अंतर्जगत से है, भावों (इमोशन्स) से है, निषेधात्मक भावों (नेगेटिव एटिच्यूड्स) के नियंत्रण से है। यह अवमोदरिका जहां जैन तपोयोग का एक अंग है, वहीं अनेक व्यावहारिक समस्याओं का समाधान भी है। कुछ लोग अनावश्यक खाते हैं, मौज उड़ाते हैं और बीमारियों को अपने घर (शरीर) में लाकर उन्हें रहने का निमंत्रण देते हैं। कुछ लोग ऐसे हैं जिन्हें क्षुधा शांति के लिए पर्याप्त खाद्य सामग्री भी नहीं मिलती। वे कष्ट का जीवन जीते हैं। अति भाव और अभाव की इस स्थिति में संतुलन हो जाए, तो दोनों ओर की समस्या का समाधान हो सकता है। इसी प्रकार वस्त्र, मकान, यान-वाहन आदि की बहुलता और अभाव की स्थितियां हैं। लड़का भर पेट भोजन कर उठा ही था कि मित्र के घर से प्रीतिभोज में भाग लेने के लिए निमंत्रण मिला। वह अपने वृद्ध पिता के पास जाकर बोला , पिता जी ! खाना इतना खा लिया है कि सांस भी नहीं ली जा रही। अब और भोजन के लिए निमंत्रण है। आप बताएं क्या करूं ? पिता ने कहा , पुत्र ! प्राणों की चिंता मत करो , जाओ भोजन करो। मुफ्त का भोजन कभी कभी  मिलता है ? शरीर तो अगले जन्म में फिर मिल जाएगा। पिता की यह व्यंग्य प्रेरणा उपभोक्तावादी संस्कृति में पलने वालों के लिए एक बोध - पाठ है। भाव अवमोदरिका , द्रव्य अवमोदरिका से कहीं अधिक मूल्यवान है। उसके उतने ही प्रकार हो सकते हैं , जितने मनुष्य के निषेधात्मक भाव होते हैं , जैसे क्रोध , लोभ , अहंकार आदि। एक बहुभोजी व्यक्ति संत के पास गया और बोला , आप अनुभवी हैं , बताइए मैं कौनसी दवा लूं जिससे भोजन ठीक तरह से पच जाए ? संत ने कहा , जब तक एक दवा नहीं लोगे ,और दवा क्या काम करेगी ? वह दवा है ऊनोदरी। तुम ज्यादा खाते हो और पाचन - क्रिया को खराब करते हो। ऊनोदरी करो , कम खाओ , पाचन के लिए यह सर्वश्रेष्ठ दवा है। ऊनोदरी जहां शारीरिक स्वास्थ्य के लिए लाभदायक है , वहीं आध्यात्मिक साधना में भी सहायक है। दिगंबर साहित्य में कहा गया है - क्षमा , मुक्ति आदि दस धर्मों की साधना , आराधना , योग , स्वाध्याय और इंद्रिय नियंत्रण में ऊनोदरी तप सहायक बनता है। साधु का जीवन निश्चिंतता और अनिश्चितता का जीवन है। निश्चित इस रूप में कि वहां कोई चिंता नहीं होती। भिक्षा में कल क्या मिलेगा ? यह चिंता साधु नहीं करता। आज जो उपलब्ध है , उसी में संतुष्ट रहता है। अनिश्चितता इस रूप में कि मुनि को कभी सरस , कभी विरस , कभी ठंडा और कभी गरम , कभी पर्याप्त और कभी अपर्याप्त भोजन मिलता है। मुझे स्मरण है , भिक्षा में आहार कम उपलब्ध होने पर एक हमारे स्थविर संत बहुधा एक सूत्र दोहराया करते थे , थोड़े में गुण घणां - कम में बहुत गुण होते हैं। आहार कम होगा तो ऊनोदरी तप होगा , पाचन क्रिया ठीक रहेगी। वस्त्र कम हैं तो उसके साज - संभाल में समय कम लगेगा। बातों की आदत कम है तो स्वाध्याय और ध्यान में अधिक संलग्नता होगी। द्रव्य अवमोदरिका के भी दो प्रकार हैं - पहला है उपकरण द्रव्य अवमोदरिका एवं दूसरा भक्तपान अवमोदरिका। वस्त्र , पात्र आदि उपकरणों का संयम करना उपकरण द्रव्य अवमोदरिका है। एवं खान - पान में संयम करना भक्तपान द्रव्य अवमोदरिका है।खाद्य का हमारे मन मस्तिष्क पर भी असर होता है एक कहावत है " जेसा खाये अन्न वेसा होइए मन
अर्थात खाना भी हमे सात्विक  खाना ही खाना चाहिए सात्विक खाने के साथ हमे यह भी ध्यान रखना चाहिए हमे जितनी भूख हो उससे कुछ कम खाये जिससे खाने के कम से कम 1 घंटे बाद पानी के लिए जगह बची हुई रहे साथ मे खाना हमे एक जगह बेठकर खाने के बीच मे पानी  नहीं पीना व खाते समय यह ध्यान रहे मोनव्रत रखते हुए खाने को इतना चबाये की जेसे हम खा नहीं पी रहे है अर्थार्त खाने को पियो ओर पानी को खाओ ( पानी बेठकर एक एक घूंट पीना चाहिए इन सभी संयम को हम खाध्य संयम के रूप मे ले सकते है