Sunday, 2 September 2018

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर विशेष - पर्वाें एवं संस्कारों का अद्भुत देश है भारत - उत्तम जैन (विद्रोही )

हमारा देश पर्वाें एवं संस्कारों का अद्भुत देश है 
लेखक - उत्तम जैन ( विद्रोही ) 8460783401   

भारतवर्ष पर्वाें व संस्कारों का देश है। यदि किसी से यह प्रश्न किया जाये कि ऋषियों की मानव जाति को दी देनों में सबसे महत्वपूर्ण चीज क्या है? तो समझदारों का उत्तर होगा- पर्व एवं संस्कार। माँ के गर्भ में आने से लेकर मरणोत्तर जीवन तक की विभिन्न अवस्थाओं को ऋषियों द्वारा संस्कारों से बांधा गया, वहीं जीवन में विविध रंग भरने हेतु अनके पर्वाें एवं त्यौहारों की संरचना की गयी। जहाँ संस्कार साधारण जीवन को असाधारण बना देते हैं, वहीं पर्व मानव जीवन में विभिन्न रसों के साथ उत्साह व उल्लास के अनेक रंग भर देते हैं।
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का पर्व एक ऐसा ही पर्व है। महाबली अर्जुन को भ्रम जंजालों से छुड़ाकर कर्मयोग में प्रवृत्त करने वाले श्रीकृष्ण का जीवन न केवल महाभारत के घटनाक्रमों की दृष्टि से ही, वरन् भारतीय दर्शन में उन दिनों चल रहे अवसाद को तेजी से बदलने की दृष्टि से भी अत्यन्त क्रान्तिकारी कहा जा सकता है। उनका सम्पूर्ण जीवन दुर्घुर्षु संघर्षाें से भरा रहा। शायद ही कोई महापुरुष या अवतार ऐसा आया हो, जिसके जन्म के पहले से ही अनेक शत्रु मौजूद हों। श्रीकृष्ण के जन्म (अवतरण) के पूर्व से महाबली शत्रुओं द्वारा उनको समाप्त करने की प्रतीक्षा की जा रही थी। बालक कृष्ण ने माँ की गोद से ही न केवल उन शत्रुओं के आघातों को झेला, वहीं उन्होंने अपनी दिव्य शक्तियों का परिचय देते हुए लोक के प्रति अपकारी लोगों का विनाश किया। फलतः धरती राक्षसी तत्वों से मुक्त हुई और दैवीय तत्वों की स्थापना हुई। महाभारत का इतिहास प्रसिद्ध प्रकटीकरण उनके इन्हीं संघर्षाें तथा दैवीय वातावरण की वापसी का एक प्रयास था।
आगामी मंगलवार को श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का महापर्व है। भगवान कृष्ण के प्रति श्रद्धाभिव्यक्ति तथा उनसे उनके जीवन से प्रेरणा प्राप्त करने के लिए देश-विदेश में ढेरों सामूहिक आयोजन भाद्रपद, कृष्ण पक्ष-अष्टमी को किये जाते हैं। उधर गीता जयन्ती (मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष-एकादशी) पर भी इसी विधि-विधान से भारतवर्ष का धार्मिक एवं बौद्धिक जगत श्रद्धा-आयोजन करता है। भगवान कृष्ण के व्यक्तित्व और उनके जीवन दर्शन ‘गीता’ को भिन्न-भिन्न मानकर नहीं चला जा सकता है। दोनों एक दूसरे से गुथे हुए हैं। समाज का उत्तरदायित्व है कि इन पर्वाेेेेेें को प्रेरक बनाया जाए। भगवान श्रीकृष्ण के बाल्य जीवन पर बहुत चर्चाएँ हुई हैं और होती हैं, लेकिन उनके द्वारा द्वापर युग में किये गये अनेक कार्याें को सामने नहीं लाया गया। वह मानव जीवन में समग्र सन्तुलन के अनूठे उदाहरण हैं।
जिन दिनों त्याग-वैराग्य की हवा जोरों से चल रही थी और ईश्वर भक्ति व आत्म कल्याण जैसे महान लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए गृह-त्याग, एकांतवास, सन्यांस-धारण, भिक्षाचरण, कायाकष्ट जैसे क्रिया-कलाप ही अपनाये जाने लगे थे और चहुंओर उसी का प्रचलन एक परम्परा बन गया था, जब प्रतिभावान विभूतियाँ सांसारिक एवं सामाजिक कर्तव्यों की उपेक्षा करने और केवल आत्म-लाभ में समय लगाती थीं; फलतः सारा समाज दुर्बल और अस्त-व्यस्त होता चला जा रहा था, तब भगवान कृष्ण ने अर्जुन के माध्यम से समस्त मानव जाति को प्रखर सन्देश दिया कि आत्म कल्याण एवं ईश्वर प्राप्ति के लिए सर्वांगपूर्ण साधना ‘कर्मयोग’ से ही हो सकती है। भावनाओं को निस्वार्थी, उदात्त एवं परमार्थपरक बनाते हुए लोकमंगल के लिए किये गये सभी कर्म योग-साधना एवं तपश्चर्या की श्रेणी में उन्होंने न केवल रख दिये, बल्कि बड़ी सुदृढ़ता के साथ स्थापित भी कर दिये। श्रीमदभगवदगीता को दुनिया ने समझा और अपनाया। इससे लोगों का आत्म-कल्याण तो हुआ ही, लोकमंगल का बड़ा व सार्थक उद्देश्य भी पूरा हुआ। भगवान ने यह अवधारणा स्थापित कर दी कि व्यक्तिगत जप-तप तक सीमित न रहकर लोकहित के क्रियाकलापों को पूर्णतः का लक्ष्य प्राप्त करने का माध्यम बनाया जाना चाहिए।
इसलिए मैं कहा करता हूँ कि श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के आयोजनों को और विस्तार देने तथा गीतादर्शन को वर्तमान समाज में प्रतिष्ठित करने की महती आवश्यकता है। गीता में भगवान ने अर्जुन को अपने विराट् रूप का दर्शन कराते हुए बताया कि यह प्रत्यक्ष विश्व ही मेरा साकार रूप है। इस संसार को सुन्दर, सुविकसित, समुन्नत और सुव्यवस्थित बनाने के लिए जो प्रयत्न किसी व्यक्ति द्वारा किये जाते हैं, उन्हें मैं श्रेष्ठतम ईश्वर-आराधना के रूप में मानता और स्वीकार करता हूँ। श्रीकृष्ण ने कर्म करने की उत्कृष्ट मनोवैज्ञानिक शैली को भी उभारा और कहा कि ऊँचा लक्ष्य रखते हुए भी तथा शक्ति भर प्रयत्न करते हुए भी सफलता पूर्णतया निश्चित नहीं रहती। परिस्थितियाँ भी अपना काम करती हैं और कई बार व्यक्ति को असफलता के निकट जा पटकती हैं। कर्मयोगी इस असफलता के आघात को सहकर कहीं उदास न हो जाये एवं अपना साहस व प्रयास न गवाँ दे, इससे बचने के लिए श्रीकृष्ण ने कर्मयोग को एक मनोवैज्ञानिक मोड़ दिया कि मानव श्रेष्ठ कर्म करने भर को सन्तोष, गौरव, उल्लास एवं श्रेय को केन्द्र बिन्दु माने। कर्म को कुशलता के साथ किया गया, उसमें पूरी तत्परता बरती गयी इसी को अपनी मानसिकता एवं साहसिकता की सफल अभिव्यक्ति माना जाये और कर्मफल को गौड़ समझा जाये। उन्होेंने कर्मयोग दर्शन में सफलता की परिभाषा और सन्तोष का कार्य बिन्दु भी बदला, ताकि अनाचारी लोगों द्वारा अनुचित मार्ग पर चलकर प्राप्त की गयी सफलताओं की ओर सदाचारी लोगों का जी न ललचाये। उन्होंने कर्मयोग का ऐसा दर्शन दिया जिससे कर्मयोगी मानसिक असन्तुलन से बच सके।
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के महान पर्व पर गीता के विविध दर्शनों को समझा ही जाना चाहिए। गीता के श्लोकों में ऐसे अनगिनत सन्दर्भ भरे पड़े हैं। भगवान की वे प्रकाश किरणें हमारे अन्तःकरण को थोड़ा सा भी छू सकें, तो हम-सब जीवन रंगमंच के सफल अभिनेता तो बन ही सकते हैं, वरन् दिग्भ्रांत जन-समाज का सशक्त मार्गदर्शन कर सकने वाले अद्भुत लोकनेता भी बन सकते हैं। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के पर्व पर मैं मानव समाज से कहना चाहूँगा कि जीवन का लक्ष्य कभी भी छोटा न बनाना। अपने लक्ष्य को हमेशा बड़ा रखिये। जिस व्यक्ति को जितनी दूर तक यात्रा पर जाना होता है, वह उतनी ही बड़ी सोच और समझ के साथ बड़ी तैयारी करता है। जिस मनुष्य को बहुत आगे पहुँचना होता है वह काफी दिन पहले से ही तैयारी में लग जाता है। उसे अपने समय से लेकर अपनी शक्ति तक अपने मन, बुद्धि से लेकर धन आदि सम्भावित साधन-सुविधाओं तथा सहयोग सभी को नापना व तौलना पड़ता है, क्योंकि परीक्षा के लिए तैयारी पहले से कर ली जाये, तो परीक्षा आसान हो जाती है।

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