जप का बड़ा महत्त्व होता है। माला तो गिनती की सुविधा के लिए एक साधन मात्र है। जप श्वास के साथ भी कर सकते हैं। गीत और भजन भी भक्ति का एक प्रकार होता है। शरीर साथ न दे तो बैठ कर ही नहीं लेट कर भी जप किया जा सकता है बस भाव शुद्ध होना चाहिए मन धर्म ध्यान में एकाग्र रहे। यदि साधु संगति ना हो सके प्रवचन सत्संग में ना जा सकें तो भी घर बैठे जप तो किया ही जा सकता है। जप के लिए नवकार या नमस्कार मन्त्र एक बहु उपयोगी महामंत्र है। ]
जप सबसे सरल एवं सबसे कठिन तप है। स्थूल शरीर की स्थिरता रहे बिना जप सफल नहीं होता। तेजस शरीर जप के साथ सक्रिय होना चाहिए। जप का लक्ष्य है निर्जरा, जप शब्द दो अक्षरों से बना है। जप से जन्म मरण की परम्परा का विच्छेद एवं पाप की वृतियों का नाश होता है। जप मानसिक एवं वाचिक दोनों प्रकार से किया जाता है। जप के मंत्र का शुद्ध उच्चारण, अर्थ का ध्यान, तन्मयता एवं श्रद्धा से किया गया जप फलित होता है। जन्म-मरण की परंपरा का नाश ही जप है। शब्दों में इतनी ताकत होती है कि शांति को अशांति में बदल सकती है। शब्दों में ताकत नहीं होती तो महाभारत नहीं होता। आचार्य श्री महाप्रज्ञ ने भी बताया कि अपने शरीर के तापमान को शब्दों के उच्चारण से कम अधिक किया जा सकता है। जप करना है लेकिन एकाग्रता से करें। एक माला फेरनी है उसमें भी इतने विचार मन में आते हैं कि एकाग्र नहीं कर सकते। घर में पूजा कक्ष के अलावा उपासक कक्ष होना चाहिए। उत्तर-पूर्व दिशा उर्जा प्राप्त करने के लिहाज से बेहतर है। जप में स्थान, समय, दिशा और आसन बहुत महत्व रखते हैं। आसन बिछाने का और बैठने का दोनों तरह के होते हैं। बैठने के लिए हम सुखासन, वज्रासन, पद्मासन, अर्द्धपद्मासन श्रेष्ठ हैं। बिना आसन बिछाये ध्यान नहीं करना चाहिए। हम जो उर्जा प्राप्त करते हैं तो बिना आसन के वह उर्जा गुरुत्वाकर्षण के कारण धरती में चली जाती है। ध्यान और जप दो ऐसे माध्यम हैं जिनके माध्यम से आत्म उद्धार की दिशा में बढ़ा जा सकता है। जप क्यों किया जाए, यह पहला सवाल होता है। जप के मंत्रों में वह शक्ति होती है जो पारिवारिक-सामाजिक समस्याओं का समाधान करता है। व्यक्ति निराश-हताश होता है तब उसे आलम्बन की की जरूरत होती है। इंसान के भीतर अहंकार का भूत होता है। जब तक उसे पांच बार कहा नहीं जाए तब तक वह झुकने को तैयार नहीं होता। जहां जीवन है, वहां समस्या है। जिस समस्या से व्यक्ति निजात पा सकता है। जाप का महत्व पुरातन ऋषि-मुनियों ने बताया। मंत्र का पुनः पुनः उच्चारण जप है। मंत्र को भावों से परिमित कर दिया जाए तो उसकी शक्ति अपरिसीमित हो जाती है। हालांकि पुस्तकों में हजारों मंत्र हैं लेकिन अगर उनके साथ भाव नहीं जुड़े तो उनका कोई अर्थ नहीं है। मन की पवित्रता जप की आवश्यक सामग्री है। जप जब तक लयबद्ध नहीं होगा, तब तक मंत्र के धार पर नहीं आती है। वह शक्तिशाली नहीं बनता है। मंत्र कर्म काटने का महत्वपूर्ण हथियार है। लयबद्धता उसे धार देती है और मंत्र शक्तिशाली बन जाता है। जप करने की विधि को जानना जरूरी है, तभी वह प्राणवान बनता है। जप करते समय आसन बिछा हुआ होना चाहिए। नौ बार हाथ के पौरों पर जप किया जाए। अंगुलियों के बीच छिद्र न हो, रेखा का स्पर्श न हो। अनामिका अंगुली व अगुष्ट का प्रयोग होना चाहिए। दोनों का योग जीवन एवं रिश्तों को सरस बनता है। उत्तर दिशा चंचलता को नियंत्रित करती है। पूर्व दिशा शक्ति संचार करने वाली है। शक्ति का सही उपयोग जप का लक्ष्य होना चाहिए। शक्ति का सही उपयोग हुए बिना व्यक्ति फिसल जाता है, पथच्युत हो सकता है। ऐसी अवस्था खतरनाक बन जाती है। जैन धर्म एक महामंत्र है जिसे सभी मंत्र से बड़ा माना गया है
जप सबसे सरल एवं सबसे कठिन तप है। स्थूल शरीर की स्थिरता रहे बिना जप सफल नहीं होता। तेजस शरीर जप के साथ सक्रिय होना चाहिए। जप का लक्ष्य है निर्जरा, जप शब्द दो अक्षरों से बना है। जप से जन्म मरण की परम्परा का विच्छेद एवं पाप की वृतियों का नाश होता है। जप मानसिक एवं वाचिक दोनों प्रकार से किया जाता है। जप के मंत्र का शुद्ध उच्चारण, अर्थ का ध्यान, तन्मयता एवं श्रद्धा से किया गया जप फलित होता है। जन्म-मरण की परंपरा का नाश ही जप है। शब्दों में इतनी ताकत होती है कि शांति को अशांति में बदल सकती है। शब्दों में ताकत नहीं होती तो महाभारत नहीं होता। आचार्य श्री महाप्रज्ञ ने भी बताया कि अपने शरीर के तापमान को शब्दों के उच्चारण से कम अधिक किया जा सकता है। जप करना है लेकिन एकाग्रता से करें। एक माला फेरनी है उसमें भी इतने विचार मन में आते हैं कि एकाग्र नहीं कर सकते। घर में पूजा कक्ष के अलावा उपासक कक्ष होना चाहिए। उत्तर-पूर्व दिशा उर्जा प्राप्त करने के लिहाज से बेहतर है। जप में स्थान, समय, दिशा और आसन बहुत महत्व रखते हैं। आसन बिछाने का और बैठने का दोनों तरह के होते हैं। बैठने के लिए हम सुखासन, वज्रासन, पद्मासन, अर्द्धपद्मासन श्रेष्ठ हैं। बिना आसन बिछाये ध्यान नहीं करना चाहिए। हम जो उर्जा प्राप्त करते हैं तो बिना आसन के वह उर्जा गुरुत्वाकर्षण के कारण धरती में चली जाती है। ध्यान और जप दो ऐसे माध्यम हैं जिनके माध्यम से आत्म उद्धार की दिशा में बढ़ा जा सकता है। जप क्यों किया जाए, यह पहला सवाल होता है। जप के मंत्रों में वह शक्ति होती है जो पारिवारिक-सामाजिक समस्याओं का समाधान करता है। व्यक्ति निराश-हताश होता है तब उसे आलम्बन की की जरूरत होती है। इंसान के भीतर अहंकार का भूत होता है। जब तक उसे पांच बार कहा नहीं जाए तब तक वह झुकने को तैयार नहीं होता। जहां जीवन है, वहां समस्या है। जिस समस्या से व्यक्ति निजात पा सकता है। जाप का महत्व पुरातन ऋषि-मुनियों ने बताया। मंत्र का पुनः पुनः उच्चारण जप है। मंत्र को भावों से परिमित कर दिया जाए तो उसकी शक्ति अपरिसीमित हो जाती है। हालांकि पुस्तकों में हजारों मंत्र हैं लेकिन अगर उनके साथ भाव नहीं जुड़े तो उनका कोई अर्थ नहीं है। मन की पवित्रता जप की आवश्यक सामग्री है। जप जब तक लयबद्ध नहीं होगा, तब तक मंत्र के धार पर नहीं आती है। वह शक्तिशाली नहीं बनता है। मंत्र कर्म काटने का महत्वपूर्ण हथियार है। लयबद्धता उसे धार देती है और मंत्र शक्तिशाली बन जाता है। जप करने की विधि को जानना जरूरी है, तभी वह प्राणवान बनता है। जप करते समय आसन बिछा हुआ होना चाहिए। नौ बार हाथ के पौरों पर जप किया जाए। अंगुलियों के बीच छिद्र न हो, रेखा का स्पर्श न हो। अनामिका अंगुली व अगुष्ट का प्रयोग होना चाहिए। दोनों का योग जीवन एवं रिश्तों को सरस बनता है। उत्तर दिशा चंचलता को नियंत्रित करती है। पूर्व दिशा शक्ति संचार करने वाली है। शक्ति का सही उपयोग जप का लक्ष्य होना चाहिए। शक्ति का सही उपयोग हुए बिना व्यक्ति फिसल जाता है, पथच्युत हो सकता है। ऐसी अवस्था खतरनाक बन जाती है। जैन धर्म एक महामंत्र है जिसे सभी मंत्र से बड़ा माना गया है
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