पर्युषण पर्व का पांचवा दिन अणुव्रत चेतना दिवस
A Way To Innovate Ourself
अणु अर्थात छोटे, व्रत अर्थात नियम- छोटे-छोटे नियमों को अणुव्रत कहते है। अणुव्रत की आवश्यकता इसलिए हुई क्योंकि इस कलियुग में आज हर व्यक्ति में त्याग की चेतना की जगह भोग चेतना, पदार्थ चेतना, स्वार्थ चेतना ही घर कर रही है। व्यक्ति अपने मूल उद्देश्य से भटकता जा रहा है। भारत की आजादी के बाद तो धर्म और देश ती परिस्थितियां काफी बदल चुकी है। देखा जाये तो पूर्व पश्चिम में समा रहा है तो पश्चिम पूरब की तरफ आ रहा है। सभी सुख चाहते है। सुख तो कही भी मिल सकता है। लेकिन लोगों में उसे खोजने का तरीका अलग-अलग है। लोग स्वार्थ में, पदार्थ में या भोग में सुख की खोज करते है जबकि परम सुख है अणुव्रत और संयम। अणुव्रत के नियमों का पालन करके चरित्र निर्माण किया जा सकता है।
श्रावक की पहली भूमिका है - सम्यक्त्व दीक्षा। उसके पश्चात व्रत दीक्षा स्वीकार की जाती है।
व्रत-दीक्षा का अर्थ है असंयम से संयम की ओर प्रस्थान। एक गृहस्थ श्रावक पूरी तरह से संयमी नही हो सकता है। इसी दृष्टि से भगवान महावीर ने उसके लिए बारह व्रत रूप संयम धर्म का निरुपण किया। इन्ही व्रतों को सर्वग्राही बनाने के लिए आचार्य श्री तुलसी ने असाम्प्रदायिक धर्म के तौर पर अणुव्रत आंदोलन का सूत्रपात किया।
जिस प्रकार अणु का एक कण समूचे ब्रह्मांड में विस्फोट कर सकता है, वैसे ही अणुव्रत के छोटे छोटे नियम हर समस्या को सुलझा सकते हैं। इस सकारात्मक सोच के साथ तेरापंथ धर्मसंघ के नौंवे आचार्य तुलसी ने आज से करीब 70 साल पहले अणुव्रत आंदोलन शुरू किया। जिसकी गूंज गरीब की झोपड़ी से लेकर राष्ट्रपति भवन तक पहुंची अणुव्रत चरित्र निर्माण का आंदोलन है, जीवन विकास का प्रारंभ है, शक्ति को जगाने का दिव्य मंत्र है, आचरण की शुद्धि का उपक्रम यानि मानव धर्म है। अहिंसा, शांति, पवित्रता व चरित्र का उदगम स्थल है, नाश के मार्ग से बचाकर व्यक्ति को मार्ग पर स्थापित करता है। उन्होंने कहा कि अणुव्रत के तीन कार्य हैं। पहला व्यक्ति को चरित्रवान बनाना, दूसरा व्यवहार की शुद्धि करना तथा तीसरा धर्म समन्यव करना है।
चित-अनुचित में हम फर्क नहीं कर पाए तो पषु और मानव में कोई फर्क नहीं रह जाएगा। अच्छे इंसान के लिए दुर्व्यसन का त्याग जरूरी है। जिसे ये दुर्व्यसन लग जाए तो उसका पतन निश्चित है। यम, नियम, योग, प्राणायाम कैसे कर सकते हैं, इस पर विचार करना चाहिए। हर परिस्थिति को समभाव से संभालना है। इंद्रिय संयम व्रत चेतना के साथ जरूरी है। व्रत चेतना जरूरी है अन्यथा स्वार्थवाद टकराता है। स्वार्थों का त्याग जरूरी है नहीं तो परिवार में टकराव-बिखराव हो जाता है।भगवान महावीर ने व्रत, महाव्रत का प्रतिपादन किया। आचार्य तुलसी को अणुव्रत का प्रतिपादक इसलिए कहा जाता है कि उन्होंने इन्हें जीवन के साथ जोड़ने का प्रयास किया। जिस प्रकार तालाब की सुरक्षा के लिए पाल बनाई जाती है ठीक उसी प्रकार अहिंसा अणुव्रत के 5 व्रत दिए जो पाल का काम करते हैं। अधिकार मत छीनो, सत्य मत हड़पो। इन्द्रियों का संयम करो। इच्छाओं को सीमित करो। गृहस्थ के लिए पांचों नियम आवष्यक है। धार्मिकता की ओट में आज नैतिकता छिपा देते हैं। ये धर्म के साथ धोखा है। जहां नैतिकता नहीं, वहां धार्मिकता नहीं हो सकती। आचार्य तुलसी महावीर की वाणी के आधार पर इन अणुव्रत का प्रतिपादन किया। प्रत्येक व्यक्ति में अणुव्रत नैतिकता की चेतना जाग जाए। लोग तो भगवान के साथ भी धोखा कर जाते हैं जीवन में पांच पी पावर, प्रेक्टिस, प्लेजर, पोजीषन एवं पर्सनालिटी की आवष्यकता मानी जाती है लेकिन इस पांच में एक और पी प्योरिटी जुड़ जाए तो जीवन सफल हो जाता है। जो भी हो, पवित्रता के साथ हो। व्रत की चेतना का विकास कैसे हो, इस पर ध्यान जरूरी है। शरीर अनित्य है लेकिन आत्मा अजर अमर है। भगवान महावीर ने बताया कि धर्म आगार और अणगार दो प्रकार के होते हैं। आगार धर्म में पंच महाव्रत का रास्ता है जो साधु जीवन के लिए है वहीं अणगार धर्म श्रावक-श्राविकाओं के लिए है जिसमें 12 व्रतों की पालना जरूरी बताई गई है। अध्यात्म का प्रथम सोपान अणुव्रत है। भगवान महावीर का कहना था कि जैसा तुम्हें ठीक लगे, वही करो लेकिन जल्दी करो। उस काम को करने में देरी मत करो। छोटे छोटे नियमों से व्रतों का उद्धरण होता है, वह अणुव्रत कहलाता है। इच्छाओं का परिष्कार करें, अणुव्रत की चेतना का विकास करें। इच्छाओं का संयम बहुत मुष्किल है। धर्म का प्रगति से कोई विरोध नहीं लेकिन प्रति के साथ आध्यात्मिक भी होना चाहिए। आज जरूरत है अध्यात्म को जानने, समझने और सीखने की।
बदले युग की धारा ,
नई दृष्टि हो ,नई सृष्टी हो अणुुव्रतों के द्वारा
बदले युग की धारा ।।
आचार्य तुलसी द्वारा प्रदत - अणुव्रत के ग्यारह नियम
१. मैं किसी निरपराध प्राणी का संकल्पपूर्वक वध नहीं करूंगा ।
° आत्महत्या नही करूंगा
° भ्रूणहत्या नहीं करूंगा ।
२.मैं किसी पर आक्रमण नहीँ करूंगा ।
° आक्रामक नीति का समर्थन भी नही करूंगा ।
° विश्व - शांति तथा निः शस्त्रीकरण के लिए प्रयत्न करूंगा ।
३.मैं हिंसात्मक उपद्रवों एवं तोड़ -फोड़ मूलक प्रवृतियों में भाग नहीं लूंगा ।।
४.मैं मानवीय एकता में विश्वास रखूंगा ।
° जाति , रंग आदि के आधार पर किसी को ऊंच -नीच नहीं मानूंगा ।
° अस्पृश्य नहीं मानूंगा ।
५. मैं धार्मिक सहिष्णुता का भाव रखूंगा ।
६. मैं व्यवसाय और व्यवहार में प्रामाणिक रहूंगा ।
° मैं अपने लाभ के लिए दूसरे को हानि नहीं पहुंचाऊंगा ।।
°छलनापूर्ण व्यवहार नहीँ करूंगा ।
७.मैं ब्रह्मचार्य की साधना और संग्रह की सीमा निर्धारण करूंगा ।
८.मैं चुनाव के संबंध में अनैतिक आचरण नहीं करूंगा ।
९.मै सामाजिक कुरूढियों को प्रश्रय नहीं दूंगा ।
१०.मैं व्यसन -मुक्त जीवन जीऊंगा ।
°मादक तथा नशीले पदार्थो -जैसे शराब , गांजा ,चरस ,हेरोईन ,भांग , तम्बाकू आदि का सेवन नहीं करूंगा ।
११. मैं पर्यावरण की समस्या के प्रति जागरूक रहूंगा ।
° हरे भरे वृक्ष नहीं काटूंगा।
° पानी का अपव्यय नहीं करूगां ।
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अणु अर्थात छोटे, व्रत अर्थात नियम- छोटे-छोटे नियमों को अणुव्रत कहते है। अणुव्रत की आवश्यकता इसलिए हुई क्योंकि इस कलियुग में आज हर व्यक्ति में त्याग की चेतना की जगह भोग चेतना, पदार्थ चेतना, स्वार्थ चेतना ही घर कर रही है। व्यक्ति अपने मूल उद्देश्य से भटकता जा रहा है। भारत की आजादी के बाद तो धर्म और देश ती परिस्थितियां काफी बदल चुकी है। देखा जाये तो पूर्व पश्चिम में समा रहा है तो पश्चिम पूरब की तरफ आ रहा है। सभी सुख चाहते है। सुख तो कही भी मिल सकता है। लेकिन लोगों में उसे खोजने का तरीका अलग-अलग है। लोग स्वार्थ में, पदार्थ में या भोग में सुख की खोज करते है जबकि परम सुख है अणुव्रत और संयम। अणुव्रत के नियमों का पालन करके चरित्र निर्माण किया जा सकता है।
श्रावक की पहली भूमिका है - सम्यक्त्व दीक्षा। उसके पश्चात व्रत दीक्षा स्वीकार की जाती है।
व्रत-दीक्षा का अर्थ है असंयम से संयम की ओर प्रस्थान। एक गृहस्थ श्रावक पूरी तरह से संयमी नही हो सकता है। इसी दृष्टि से भगवान महावीर ने उसके लिए बारह व्रत रूप संयम धर्म का निरुपण किया। इन्ही व्रतों को सर्वग्राही बनाने के लिए आचार्य श्री तुलसी ने असाम्प्रदायिक धर्म के तौर पर अणुव्रत आंदोलन का सूत्रपात किया।
जिस प्रकार अणु का एक कण समूचे ब्रह्मांड में विस्फोट कर सकता है, वैसे ही अणुव्रत के छोटे छोटे नियम हर समस्या को सुलझा सकते हैं। इस सकारात्मक सोच के साथ तेरापंथ धर्मसंघ के नौंवे आचार्य तुलसी ने आज से करीब 70 साल पहले अणुव्रत आंदोलन शुरू किया। जिसकी गूंज गरीब की झोपड़ी से लेकर राष्ट्रपति भवन तक पहुंची अणुव्रत चरित्र निर्माण का आंदोलन है, जीवन विकास का प्रारंभ है, शक्ति को जगाने का दिव्य मंत्र है, आचरण की शुद्धि का उपक्रम यानि मानव धर्म है। अहिंसा, शांति, पवित्रता व चरित्र का उदगम स्थल है, नाश के मार्ग से बचाकर व्यक्ति को मार्ग पर स्थापित करता है। उन्होंने कहा कि अणुव्रत के तीन कार्य हैं। पहला व्यक्ति को चरित्रवान बनाना, दूसरा व्यवहार की शुद्धि करना तथा तीसरा धर्म समन्यव करना है।
चित-अनुचित में हम फर्क नहीं कर पाए तो पषु और मानव में कोई फर्क नहीं रह जाएगा। अच्छे इंसान के लिए दुर्व्यसन का त्याग जरूरी है। जिसे ये दुर्व्यसन लग जाए तो उसका पतन निश्चित है। यम, नियम, योग, प्राणायाम कैसे कर सकते हैं, इस पर विचार करना चाहिए। हर परिस्थिति को समभाव से संभालना है। इंद्रिय संयम व्रत चेतना के साथ जरूरी है। व्रत चेतना जरूरी है अन्यथा स्वार्थवाद टकराता है। स्वार्थों का त्याग जरूरी है नहीं तो परिवार में टकराव-बिखराव हो जाता है।भगवान महावीर ने व्रत, महाव्रत का प्रतिपादन किया। आचार्य तुलसी को अणुव्रत का प्रतिपादक इसलिए कहा जाता है कि उन्होंने इन्हें जीवन के साथ जोड़ने का प्रयास किया। जिस प्रकार तालाब की सुरक्षा के लिए पाल बनाई जाती है ठीक उसी प्रकार अहिंसा अणुव्रत के 5 व्रत दिए जो पाल का काम करते हैं। अधिकार मत छीनो, सत्य मत हड़पो। इन्द्रियों का संयम करो। इच्छाओं को सीमित करो। गृहस्थ के लिए पांचों नियम आवष्यक है। धार्मिकता की ओट में आज नैतिकता छिपा देते हैं। ये धर्म के साथ धोखा है। जहां नैतिकता नहीं, वहां धार्मिकता नहीं हो सकती। आचार्य तुलसी महावीर की वाणी के आधार पर इन अणुव्रत का प्रतिपादन किया। प्रत्येक व्यक्ति में अणुव्रत नैतिकता की चेतना जाग जाए। लोग तो भगवान के साथ भी धोखा कर जाते हैं जीवन में पांच पी पावर, प्रेक्टिस, प्लेजर, पोजीषन एवं पर्सनालिटी की आवष्यकता मानी जाती है लेकिन इस पांच में एक और पी प्योरिटी जुड़ जाए तो जीवन सफल हो जाता है। जो भी हो, पवित्रता के साथ हो। व्रत की चेतना का विकास कैसे हो, इस पर ध्यान जरूरी है। शरीर अनित्य है लेकिन आत्मा अजर अमर है। भगवान महावीर ने बताया कि धर्म आगार और अणगार दो प्रकार के होते हैं। आगार धर्म में पंच महाव्रत का रास्ता है जो साधु जीवन के लिए है वहीं अणगार धर्म श्रावक-श्राविकाओं के लिए है जिसमें 12 व्रतों की पालना जरूरी बताई गई है। अध्यात्म का प्रथम सोपान अणुव्रत है। भगवान महावीर का कहना था कि जैसा तुम्हें ठीक लगे, वही करो लेकिन जल्दी करो। उस काम को करने में देरी मत करो। छोटे छोटे नियमों से व्रतों का उद्धरण होता है, वह अणुव्रत कहलाता है। इच्छाओं का परिष्कार करें, अणुव्रत की चेतना का विकास करें। इच्छाओं का संयम बहुत मुष्किल है। धर्म का प्रगति से कोई विरोध नहीं लेकिन प्रति के साथ आध्यात्मिक भी होना चाहिए। आज जरूरत है अध्यात्म को जानने, समझने और सीखने की।
बदले युग की धारा ,
नई दृष्टि हो ,नई सृष्टी हो अणुुव्रतों के द्वारा
बदले युग की धारा ।।
आचार्य तुलसी द्वारा प्रदत - अणुव्रत के ग्यारह नियम
१. मैं किसी निरपराध प्राणी का संकल्पपूर्वक वध नहीं करूंगा ।
° आत्महत्या नही करूंगा
° भ्रूणहत्या नहीं करूंगा ।
२.मैं किसी पर आक्रमण नहीँ करूंगा ।
° आक्रामक नीति का समर्थन भी नही करूंगा ।
° विश्व - शांति तथा निः शस्त्रीकरण के लिए प्रयत्न करूंगा ।
३.मैं हिंसात्मक उपद्रवों एवं तोड़ -फोड़ मूलक प्रवृतियों में भाग नहीं लूंगा ।।
४.मैं मानवीय एकता में विश्वास रखूंगा ।
° जाति , रंग आदि के आधार पर किसी को ऊंच -नीच नहीं मानूंगा ।
° अस्पृश्य नहीं मानूंगा ।
५. मैं धार्मिक सहिष्णुता का भाव रखूंगा ।
६. मैं व्यवसाय और व्यवहार में प्रामाणिक रहूंगा ।
° मैं अपने लाभ के लिए दूसरे को हानि नहीं पहुंचाऊंगा ।।
°छलनापूर्ण व्यवहार नहीँ करूंगा ।
७.मैं ब्रह्मचार्य की साधना और संग्रह की सीमा निर्धारण करूंगा ।
८.मैं चुनाव के संबंध में अनैतिक आचरण नहीं करूंगा ।
९.मै सामाजिक कुरूढियों को प्रश्रय नहीं दूंगा ।
१०.मैं व्यसन -मुक्त जीवन जीऊंगा ।
°मादक तथा नशीले पदार्थो -जैसे शराब , गांजा ,चरस ,हेरोईन ,भांग , तम्बाकू आदि का सेवन नहीं करूंगा ।
११. मैं पर्यावरण की समस्या के प्रति जागरूक रहूंगा ।
° हरे भरे वृक्ष नहीं काटूंगा।
° पानी का अपव्यय नहीं करूगां ।
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