खाद्य संयम दिवस - लेखक - उत्तम जैन (विद्रोही )
जब-तब खाने का भाव मिटायें |
कैसे कितना कब खाएं |
नियमित भोजन शुद्ध हवा है |
भोजन को सात्विक करना होगा |
भोजन करते समय नहीं हो,
ईर्ष्या, क्रोध, घृणा के भाव |
इनसे होते आँतों में घाव |
' संयम से खाना जीवन '
इस "वीर" वचन को रखना याद ||
तेरापंथ धर्मसंघ मे पर्युषण का प्रथम दिवस खाद्य संयम दिवस दिवस के रूप मे मनाया जाता है ! खाध्य संयम का अर्थ है खाने का संयम वेसे हमे सिर्फ इस दिन ही खाने का संयम नहीं रखना है निरोगी रहने के लिए जीवन मे खाने का संयम बहुत जरूरी है! हमे जब ही खाना खाना चाहिए जब हमे भूख लगे तब हम खाना खाते है तो पाचन अच्छे से होता है छोटी आंत , बड़ी आंत , पक्वाशय ,लीवर पर अतिरिक्त भार नहीं पड़ता है फलस्वरूप हमे गेस , आम्लपित , अपचन की शिकायत नहीं होती है ! आज विज्ञान भी इससे सहमति व्यक्त करता है
श्रावण मास में आहार संयम का महत्व: आहार संयम निश्चित ही एक करने योग्य तप है। उपवास और बेला (दो दिन का, तीन दिन का उपवास) आदि तपस्याएं उसके अंतर्गत हैं। श्रावण-भाद्र मास में जैन लोग विशेष रूप से इस तप का प्रयोग करते हैं। यथाशक्ति, यथास्थिति वह होना भी चाहिए। कुछ लोग शारीरिक दुर्बलता अथवा अन्य व्यस्तताओं के कारण तपस्या नहीं कर पाते। उन्हें निरुत्साह होने की जरूरत नहीं। उन्हें 'ऊनोदरी' पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। निर्जरा के बारह भेदों में दूसरा भेद है ऊनोदरी। 'ऊन' का अर्थ है न्यून, कम। उदर का अर्थ है पेट। उदर को ऊन रखना, खाने में कमी करना ऊनोदरी तप है। ऊनोदरी का यही अर्थ अधिक प्रचलित है। जैन धर्म में ऊनोदरी के दो प्रकार बतलाए गए हैैैं -पहला द्रव्य अवमोदरिका एवं दूसरा भाव अवमोदरिका। यहां अवमोदरिका का भी तात्पर्य है अल्पीकरण अथवा संयम। द्रव्य अवमोदरिका का अर्थ है उपभोग में आने वाले द्रव्यों -भौतिक पदार्थों का संयम करना। भाव अवमोदरिका का संबंध हमारे अंतर्जगत से है, भावों (इमोशन्स) से है, निषेधात्मक भावों (नेगेटिव एटिच्यूड्स) के नियंत्रण से है। यह अवमोदरिका जहां जैन तपोयोग का एक अंग है, वहीं अनेक व्यावहारिक समस्याओं का समाधान भी है। कुछ लोग अनावश्यक खाते हैं, मौज उड़ाते हैं और बीमारियों को अपने घर (शरीर) में लाकर उन्हें रहने का निमंत्रण देते हैं। कुछ लोग ऐसे हैं जिन्हें क्षुधा शांति के लिए पर्याप्त खाद्य सामग्री भी नहीं मिलती। वे कष्ट का जीवन जीते हैं। अति भाव और अभाव की इस स्थिति में संतुलन हो जाए, तो दोनों ओर की समस्या का समाधान हो सकता है। इसी प्रकार वस्त्र, मकान, यान-वाहन आदि की बहुलता और अभाव की स्थितियां हैं। लड़का भर पेट भोजन कर उठा ही था कि मित्र के घर से प्रीतिभोज में भाग लेने के लिए निमंत्रण मिला। वह अपने वृद्ध पिता के पास जाकर बोला , पिता जी ! खाना इतना खा लिया है कि सांस भी नहीं ली जा रही। अब और भोजन के लिए निमंत्रण है। आप बताएं क्या करूं ? पिता ने कहा , पुत्र ! प्राणों की चिंता मत करो , जाओ भोजन करो। मुफ्त का भोजन कभी कभी मिलता है ? शरीर तो अगले जन्म में फिर मिल जाएगा। पिता की यह व्यंग्य प्रेरणा उपभोक्तावादी संस्कृति में पलने वालों के लिए एक बोध - पाठ है। भाव अवमोदरिका , द्रव्य अवमोदरिका से कहीं अधिक मूल्यवान है। उसके उतने ही प्रकार हो सकते हैं , जितने मनुष्य के निषेधात्मक भाव होते हैं , जैसे क्रोध , लोभ , अहंकार आदि। एक बहुभोजी व्यक्ति संत के पास गया और बोला , आप अनुभवी हैं , बताइए मैं कौनसी दवा लूं जिससे भोजन ठीक तरह से पच जाए ? संत ने कहा , जब तक एक दवा नहीं लोगे ,और दवा क्या काम करेगी ? वह दवा है ऊनोदरी। तुम ज्यादा खाते हो और पाचन - क्रिया को खराब करते हो। ऊनोदरी करो , कम खाओ , पाचन के लिए यह सर्वश्रेष्ठ दवा है। ऊनोदरी जहां शारीरिक स्वास्थ्य के लिए लाभदायक है , वहीं आध्यात्मिक साधना में भी सहायक है। दिगंबर साहित्य में कहा गया है - क्षमा , मुक्ति आदि दस धर्मों की साधना , आराधना , योग , स्वाध्याय और इंद्रिय नियंत्रण में ऊनोदरी तप सहायक बनता है। साधु का जीवन निश्चिंतता और अनिश्चितता का जीवन है। निश्चित इस रूप में कि वहां कोई चिंता नहीं होती। भिक्षा में कल क्या मिलेगा ? यह चिंता साधु नहीं करता। आज जो उपलब्ध है , उसी में संतुष्ट रहता है। अनिश्चितता इस रूप में कि मुनि को कभी सरस , कभी विरस , कभी ठंडा और कभी गरम , कभी पर्याप्त और कभी अपर्याप्त भोजन मिलता है। मुझे स्मरण है , भिक्षा में आहार कम उपलब्ध होने पर एक हमारे स्थविर संत बहुधा एक सूत्र दोहराया करते थे , थोड़े में गुण घणां - कम में बहुत गुण होते हैं। आहार कम होगा तो ऊनोदरी तप होगा , पाचन क्रिया ठीक रहेगी। वस्त्र कम हैं तो उसके साज - संभाल में समय कम लगेगा। बातों की आदत कम है तो स्वाध्याय और ध्यान में अधिक संलग्नता होगी। द्रव्य अवमोदरिका के भी दो प्रकार हैं - पहला है उपकरण द्रव्य अवमोदरिका एवं दूसरा भक्तपान अवमोदरिका। वस्त्र , पात्र आदि उपकरणों का संयम करना उपकरण द्रव्य अवमोदरिका है। एवं खान - पान में संयम करना भक्तपान द्रव्य अवमोदरिका है।खाद्य का हमारे मन मस्तिष्क पर भी असर होता है एक कहावत है " जेसा खाये अन्न वेसा होइए मन "
अर्थात खाना भी हमे सात्विक खाना ही खाना चाहिए सात्विक खाने के साथ हमे यह भी ध्यान रखना चाहिए हमे जितनी भूख हो उससे कुछ कम खाये जिससे खाने के कम से कम 1 घंटे बाद पानी के लिए जगह बची हुई रहे साथ मे खाना हमे एक जगह बेठकर खाने के बीच मे पानी नहीं पीना व खाते समय यह ध्यान रहे मोनव्रत रखते हुए खाने को इतना चबाये की जेसे हम खा नहीं पी रहे है अर्थार्त खाने को पियो ओर पानी को खाओ ( पानी बेठकर एक एक घूंट पीना चाहिए इन सभी संयम को हम खाध्य संयम के रूप मे ले सकते है
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