Saturday 15 August 2020

स्वाध्याय का महत्व जैन साधना में -- स्वाध्याय दिवस - उत्तम जैन ( विद्रोही )

   


                                               Study Of The Self =  स्वाध्याय 

                                                    लेखक - उत्तम जैन ( विद्रोही )   
         शब्द से अर्थ की ओर तथा अर्थ से भाव की ओर बढ़ना ही स्वाध्याय का मूल लक्ष्य  है 

स्वाध्याय का शाब्दिक अर्थ है- 'स्वयं का अध्ययन करना'। यह एक वृहद संकल्पना है जिसके अनेक अर्थ होते हैं। विभिन्न हिन्दू दर्शनों में स्वाध्याय एक 'नियम' है। स्वाध्याय का अर्थ 'स्वयं अध्ययन करना' तथा वेद एवं अन्य साहित्यों का पाठ करना भी है। जीवन-निर्माण और सुधार संबंधी पुस्तकों का पढ़ना, परमात्मा और मुक्ति की ओर ले जाने वाले ग्रंथों का अध्ययन, श्रवण, मनन, चिंतन आदि करना स्वाध्याय कहलाता है। आत्मचिंतन का नाम भी स्वाध्याय है। अपने बारे में जानना और अपने दोषों को देखना भी स्वाध्याय है। स्वाध्याय के बल से अनेक महापुरुषों के जीवन बदल गए हैं। शुद्ध, पवित्र और सुखी जीवन जीने के लिए सत्संग और स्वाध्याय दोनों आधार स्तंभ हैं। सत्संग से ही मनुष्य के अंदर स्वाध्याय की भावना जाग्रत होती है। स्वाध्याय का जीवन निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान है। स्वाध्याय से व्यक्ति का जीवन, व्यवहार, सोच और स्वभाव बदलने लगता है।
प्राचीनकाल से ही भारत में स्वाध्याय की परम्परा चली आ रही है। स्वाध्याय शब्द की व्युत्पत्ति स्व अधि आया के रूप में हुई है जिसका अर्थ है अपने आपको अपनी आत्मा का अध्ययन व अपने आत्मस्वरूप का बोध। ऐसा होने में शास्त्र अवलम्बन है अत: शास्त्राध्ययन भी इसका आशय है। प्राचीन काल में भारत में गुरुकुलों में ज्ञान प्रदान किया जाता था। उस समय विद्यार्थी की शिक्षा समाप्त होने पर आचार्य शिष्य को विदा करने के समय कहते थे, 'वत्स!' तुमने अब अपना अध्ययन सम्पूर्ण किया। अब तुम जीवन के क्षेत्र में इस सीखे हुए ज्ञान को चरितार्थ करने के लिये प्रवेश कर रहे हो। मैं तुम्हारी सफलता की कामना करता हूं। तुम जीवन में तीन बातों को हमेशा याद रखना  अर्थात् तुम जीवन में सत्य का अनुसरण करना, धर्म का आचरण करना और स्वाध्याय में कभी प्रमाद मत करना। उस समय स्वाध्याय करने पर बहुत जोर दिया जाता था 
स्वाध्याय क्या है ? 
हम साहित्य को  दो श्रेणियों में विभक्त कर सकते हैं। श्रेयसकारी और प्रेयसकारी।  श्रेयसकारी साहित्य जीवन का कल्याण करने वाला, उसे ऊंचा उठाने वाला होता है, प्रेयसकारी साहित्य मनुष्य का मनोरंजन करने वाला होता है। स्वाध्याय के अंतर्गत वह सब साहित्य आता है जो मनुष्य की उदात्त भावनाओं को जागृत करता है तथा उसे सत्कर्म करने की प्रेरणा देता है। स्वाध्याय का अर्थ केवल करना नहीं, आत्म चिंतन, विचारशीलता व जागरुकता भी है। जिस व्यक्ति में जागरुकता है वही अपने स्वयं का व अपने समाज का उत्थान कर सकता है। स्वाध्याय का लक्ष्य स्वाध्याय में हमारा लक्ष्य क्या है, यह समझना अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि केवल मात्र कुछ पुस्तकों को कुछ समय के लिये पढ़ लेना वास्तविक रूप में स्वाध्याय नहीं है। स्वाध्यय का लक्ष्य है 'स्व' अर्थात् अपने आत्म-स्वरूप की जानकारी। मैं कौन हूं। मेरे जीवन का लक्ष्य क्या है, मुझे क्या कर्म करने चाहिये और क्या नहीं करने चाहिये, इन सब का ठीक प्रकार से ज्ञान प्राप्त करना स्वाध्यायी का उद्देश्य है। मेने एक जैन आचार्य द्वारा लिखित शास्त्र मे पढ़ा था जैन धर्म में इसे भेद विज्ञान कहते हैं अर्थात् यह अनुभव करना कि शरीर और आत्मा अलग-अलग हैं। नश्वर शरीर के भीतर जो अविनश्वर चिरंतन आत्म-तत्व है, उसका चिंतन व बोध प्राप्त करना। भगवान महावीर ने कहा......
, 'जे एगे जाणन से सव्वं जाणई।' 
अर्थात् जो एक (आत्मा) को जानता है वह सब (जगत) को जानता है। इसी बात को आधुनिक युग में स्वामी विवेकानंद ने अभिव्यक्त किया है। उन्होंने कहा कि शिक्षा मात्र विभिन्न सूचनाओं का संग्रह नहीं है जो हमारे मस्तिष्क में ठूंस ठूंस कर भर दिये जाते हैं और जो बिना आत्मसात् हुए वहां हमेशा गड़बड़ मचाते रहते हैं। हमें उन विचारों की आवश्यकता है जो 'जीवन निर्माण', 'मनुष्य निर्माण' तथा 'चरित्र निर्माण' में सहायक हों। इस प्रकार की 'मनुष्यत्व' का ज्ञान प्रदान करने वाली शिक्षा प्राप्त करना ही स्वाध्याय का लक्षण है। स्वाध्याय का महत्व जैन साधना में स्वाध्याय को बहुत महत्व दिया गया। भगवान महावीर ने कहा कि स्वाध्याय महान तप है। बारह प्रकार के आंतरिक के बाह्य तपों में स्वाध्याय के समान तप न तो है, न हुआ है और न होगा। श्री उत्तराध्ययन सूत्र में भगवान से पूछा गया, 'हे भगवान! स्वाध्याय करने से जीव किस बात का लाभ प्राप्त करता है?' भगवान ने उत्तर दिया, 'सज्झाएणं नाणावर णिज्जं कम्मं खवेई।' अर्थात स्वाध्याय से जीव ज्ञानावरणीय (ज्ञान को रोकने वाले) कर्मों का नाश करता है। भगवती सूत्र में प्रभु महावीर ने बतलाया कि सही प्रकार से स्वाध्याय करने से मनुष्य अपने जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य अर्थात् परमात्म-स्वरूप को प्राप्त कर सकता है। स्वाध्याय के अंग जैन शास्त्रों में स्वाध्याय के बारे में विशद विवेचना मिलती है। प्राचीन काल में जब पुस्तकों का प्रचलन नहीं था, तब भी स्वाध्याय किया जाता था। उस समय ज्ञान को कंठस्थ रखने का रिवाज था। शिष्य गुरुजनों से शास्त्र श्रवण कर उन्हें अपनी स्मृति में संजो कर रखते थे। वेदों को 'श्रुति' और आगम की श्रुत कहा गया, यह इसी तथ्य का सूचक है। आचार्य कुदकुंद ने लिखा है  अन्य सभी व्यक्ति इंद्रियों की आंख वाले हैं पर साधु आगम की आंख वाला है। कहने का तात्पर्य यह है कि साधक निरंतर आगम ज्ञान पर चिंतन मनन करता रहे तथा आगम के आधार पर ही अपने जीवन का संचालन करें। स्वाध्याय कैसे करें सत्साहित्य का अध्ययन करना स्वाध्याय कहलाता है लेकिन यह स्वाध्याय किस प्रकार से किया जाए इस पर विचार करने की आवश्यकता है। स्वाध्याय में पूरा मन लगाना चाहिए। आचार्य विनोबा भावे के अनुसार स्वाध्याय गंभीरता पूर्वक करना चाहिये। उन्होंने लिखा है, अध्ययन में महत्व लम्बाई, चौड़ाई का नहीं गंभीरता का है। बहुत देर तक घंटों भांति-भांति के विषयों के अध्ययन करने को मैं लम्बा-चौड़ा अध्ययन कहता हूं। समाधिस्थ होकर नित्य थोड़ी देर किसी एक निश्चित विषय के अध्ययन को मैं गंभीर अध्ययन कहता हूं। दस-बारह घंटे सोना पर करवटें बदलते रहना-ऐसी नींद में विश्रांति नहीं मिलती बल्कि पांच छह घंटे सोयें, किंतु गाढ़ी और नि:स्वप्न निद्रा हो, तो उतनी नींद से पूर्ण विश्रांति मिल सकती है। यही बात अध्ययन की भी है। गंभीरता अध्ययन का मुख्य तत्व है।

Friday 14 August 2020

खाद्य संयम दिवस - निरोगी जीवन जीने का महत्वपूर्ण रहस्य - उत्तम जैन ( विद्रोही )

 

खाद्य संयम दिवस - लेखक - उत्तम जैन (विद्रोही )

जब-तब खाने का भाव मिटायें |
कैसे कितना कब खाएं |
नियमित भोजन शुद्ध हवा है |
भोजन को सात्विक करना होगा |
भोजन करते समय नहीं हो,
ईर्ष्या, क्रोध, घृणा के भाव |
इनसे होते आँतों में घाव |
' संयम से खाना जीवन '
इस "वीर" वचन को रखना याद ||

तेरापंथ धर्मसंघ मे पर्युषण का प्रथम दिवस खाद्य संयम दिवस दिवस के रूप मे मनाया जाता है !  खाध्य संयम का अर्थ है खाने का संयम वेसे हमे सिर्फ इस दिन ही खाने का संयम नहीं रखना है निरोगी रहने के लिए जीवन मे खाने का संयम बहुत जरूरी है! हमे जब ही खाना खाना चाहिए जब  हमे भूख लगे   तब हम खाना खाते है तो पाचन अच्छे से होता है छोटी आंत , बड़ी आंत , पक्वाशय ,लीवर पर अतिरिक्त भार  नहीं पड़ता है फलस्वरूप हमे गेस , आम्लपित , अपचन की शिकायत नहीं होती है ! आज विज्ञान भी इससे सहमति व्यक्त करता है 
श्रावण मास में आहार संयम का महत्व:  आहार संयम निश्चित ही एक करने योग्य तप है। उपवास और बेला (दो दिन का, तीन दिन का उपवास) आदि तपस्याएं उसके अंतर्गत हैं। श्रावण-भाद्र मास में जैन लोग विशेष रूप से इस तप का प्रयोग करते हैं। यथाशक्ति, यथास्थिति वह होना भी चाहिए। कुछ लोग शारीरिक दुर्बलता अथवा अन्य व्यस्तताओं के कारण तपस्या नहीं कर पाते। उन्हें निरुत्साह होने की जरूरत नहीं। उन्हें 'ऊनोदरी' पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। निर्जरा के बारह भेदों में दूसरा भेद है ऊनोदरी। 'ऊन' का अर्थ है न्यून, कम। उदर का अर्थ है पेट। उदर को ऊन रखना, खाने में कमी करना ऊनोदरी तप है। ऊनोदरी का यही अर्थ अधिक प्रचलित है। जैन धर्म में ऊनोदरी के दो प्रकार बतलाए गए हैैैं -पहला द्रव्य अवमोदरिका एवं दूसरा भाव अवमोदरिका। यहां अवमोदरिका का भी तात्पर्य है अल्पीकरण अथवा संयम। द्रव्य अवमोदरिका का अर्थ है उपभोग में आने वाले द्रव्यों -भौतिक पदार्थों का संयम करना। भाव अवमोदरिका का संबंध हमारे अंतर्जगत से है, भावों (इमोशन्स) से है, निषेधात्मक भावों (नेगेटिव एटिच्यूड्स) के नियंत्रण से है। यह अवमोदरिका जहां जैन तपोयोग का एक अंग है, वहीं अनेक व्यावहारिक समस्याओं का समाधान भी है। कुछ लोग अनावश्यक खाते हैं, मौज उड़ाते हैं और बीमारियों को अपने घर (शरीर) में लाकर उन्हें रहने का निमंत्रण देते हैं। कुछ लोग ऐसे हैं जिन्हें क्षुधा शांति के लिए पर्याप्त खाद्य सामग्री भी नहीं मिलती। वे कष्ट का जीवन जीते हैं। अति भाव और अभाव की इस स्थिति में संतुलन हो जाए, तो दोनों ओर की समस्या का समाधान हो सकता है। इसी प्रकार वस्त्र, मकान, यान-वाहन आदि की बहुलता और अभाव की स्थितियां हैं। लड़का भर पेट भोजन कर उठा ही था कि मित्र के घर से प्रीतिभोज में भाग लेने के लिए निमंत्रण मिला। वह अपने वृद्ध पिता के पास जाकर बोला , पिता जी ! खाना इतना खा लिया है कि सांस भी नहीं ली जा रही। अब और भोजन के लिए निमंत्रण है। आप बताएं क्या करूं ? पिता ने कहा , पुत्र ! प्राणों की चिंता मत करो , जाओ भोजन करो। मुफ्त का भोजन कभी कभी  मिलता है ? शरीर तो अगले जन्म में फिर मिल जाएगा। पिता की यह व्यंग्य प्रेरणा उपभोक्तावादी संस्कृति में पलने वालों के लिए एक बोध - पाठ है। भाव अवमोदरिका , द्रव्य अवमोदरिका से कहीं अधिक मूल्यवान है। उसके उतने ही प्रकार हो सकते हैं , जितने मनुष्य के निषेधात्मक भाव होते हैं , जैसे क्रोध , लोभ , अहंकार आदि। एक बहुभोजी व्यक्ति संत के पास गया और बोला , आप अनुभवी हैं , बताइए मैं कौनसी दवा लूं जिससे भोजन ठीक तरह से पच जाए ? संत ने कहा , जब तक एक दवा नहीं लोगे ,और दवा क्या काम करेगी ? वह दवा है ऊनोदरी। तुम ज्यादा खाते हो और पाचन - क्रिया को खराब करते हो। ऊनोदरी करो , कम खाओ , पाचन के लिए यह सर्वश्रेष्ठ दवा है। ऊनोदरी जहां शारीरिक स्वास्थ्य के लिए लाभदायक है , वहीं आध्यात्मिक साधना में भी सहायक है। दिगंबर साहित्य में कहा गया है - क्षमा , मुक्ति आदि दस धर्मों की साधना , आराधना , योग , स्वाध्याय और इंद्रिय नियंत्रण में ऊनोदरी तप सहायक बनता है। साधु का जीवन निश्चिंतता और अनिश्चितता का जीवन है। निश्चित इस रूप में कि वहां कोई चिंता नहीं होती। भिक्षा में कल क्या मिलेगा ? यह चिंता साधु नहीं करता। आज जो उपलब्ध है , उसी में संतुष्ट रहता है। अनिश्चितता इस रूप में कि मुनि को कभी सरस , कभी विरस , कभी ठंडा और कभी गरम , कभी पर्याप्त और कभी अपर्याप्त भोजन मिलता है। मुझे स्मरण है , भिक्षा में आहार कम उपलब्ध होने पर एक हमारे स्थविर संत बहुधा एक सूत्र दोहराया करते थे , थोड़े में गुण घणां - कम में बहुत गुण होते हैं। आहार कम होगा तो ऊनोदरी तप होगा , पाचन क्रिया ठीक रहेगी। वस्त्र कम हैं तो उसके साज - संभाल में समय कम लगेगा। बातों की आदत कम है तो स्वाध्याय और ध्यान में अधिक संलग्नता होगी। द्रव्य अवमोदरिका के भी दो प्रकार हैं - पहला है उपकरण द्रव्य अवमोदरिका एवं दूसरा भक्तपान अवमोदरिका। वस्त्र , पात्र आदि उपकरणों का संयम करना उपकरण द्रव्य अवमोदरिका है। एवं खान - पान में संयम करना भक्तपान द्रव्य अवमोदरिका है।खाद्य का हमारे मन मस्तिष्क पर भी असर होता है एक कहावत है " जेसा खाये अन्न वेसा होइए मन 
अर्थात खाना भी हमे सात्विक  खाना ही खाना चाहिए सात्विक खाने के साथ हमे यह भी ध्यान रखना चाहिए हमे जितनी भूख हो उससे कुछ कम खाये जिससे खाने के कम से कम 1 घंटे बाद पानी के लिए जगह बची हुई रहे साथ मे खाना हमे एक जगह बेठकर खाने के बीच मे पानी  नहीं पीना व खाते समय यह ध्यान रहे मोनव्रत रखते हुए खाने को इतना चबाये की जेसे हम खा नहीं पी रहे है अर्थार्त खाने को पियो ओर पानी को खाओ ( पानी बेठकर एक एक घूंट पीना चाहिए इन सभी संयम को हम खाध्य संयम के रूप मे ले सकते है