लेखक - उत्तम जैन ( विद्रोही )
शब्द से अर्थ की ओर तथा अर्थ से भाव की ओर बढ़ना ही स्वाध्याय का मूल लक्ष्य है
स्वाध्याय का शाब्दिक अर्थ है- 'स्वयं का अध्ययन करना'। यह एक वृहद संकल्पना है जिसके अनेक अर्थ होते हैं। विभिन्न हिन्दू दर्शनों में स्वाध्याय एक 'नियम' है। स्वाध्याय का अर्थ 'स्वयं अध्ययन करना' तथा वेद एवं अन्य साहित्यों का पाठ करना भी है। जीवन-निर्माण और सुधार संबंधी पुस्तकों का पढ़ना, परमात्मा और मुक्ति की ओर ले जाने वाले ग्रंथों का अध्ययन, श्रवण, मनन, चिंतन आदि करना स्वाध्याय कहलाता है। आत्मचिंतन का नाम भी स्वाध्याय है। अपने बारे में जानना और अपने दोषों को देखना भी स्वाध्याय है। स्वाध्याय के बल से अनेक महापुरुषों के जीवन बदल गए हैं। शुद्ध, पवित्र और सुखी जीवन जीने के लिए सत्संग और स्वाध्याय दोनों आधार स्तंभ हैं। सत्संग से ही मनुष्य के अंदर स्वाध्याय की भावना जाग्रत होती है। स्वाध्याय का जीवन निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान है। स्वाध्याय से व्यक्ति का जीवन, व्यवहार, सोच और स्वभाव बदलने लगता है।
प्राचीनकाल से ही भारत में स्वाध्याय की परम्परा चली आ रही है। स्वाध्याय शब्द की व्युत्पत्ति स्व अधि आया के रूप में हुई है जिसका अर्थ है अपने आपको अपनी आत्मा का अध्ययन व अपने आत्मस्वरूप का बोध। ऐसा होने में शास्त्र अवलम्बन है अत: शास्त्राध्ययन भी इसका आशय है। प्राचीन काल में भारत में गुरुकुलों में ज्ञान प्रदान किया जाता था। उस समय विद्यार्थी की शिक्षा समाप्त होने पर आचार्य शिष्य को विदा करने के समय कहते थे, 'वत्स!' तुमने अब अपना अध्ययन सम्पूर्ण किया। अब तुम जीवन के क्षेत्र में इस सीखे हुए ज्ञान को चरितार्थ करने के लिये प्रवेश कर रहे हो। मैं तुम्हारी सफलता की कामना करता हूं। तुम जीवन में तीन बातों को हमेशा याद रखना अर्थात् तुम जीवन में सत्य का अनुसरण करना, धर्म का आचरण करना और स्वाध्याय में कभी प्रमाद मत करना। उस समय स्वाध्याय करने पर बहुत जोर दिया जाता था
स्वाध्याय क्या है ?
हम साहित्य को दो श्रेणियों में विभक्त कर सकते हैं। श्रेयसकारी और प्रेयसकारी। श्रेयसकारी साहित्य जीवन का कल्याण करने वाला, उसे ऊंचा उठाने वाला होता है, प्रेयसकारी साहित्य मनुष्य का मनोरंजन करने वाला होता है। स्वाध्याय के अंतर्गत वह सब साहित्य आता है जो मनुष्य की उदात्त भावनाओं को जागृत करता है तथा उसे सत्कर्म करने की प्रेरणा देता है। स्वाध्याय का अर्थ केवल करना नहीं, आत्म चिंतन, विचारशीलता व जागरुकता भी है। जिस व्यक्ति में जागरुकता है वही अपने स्वयं का व अपने समाज का उत्थान कर सकता है। स्वाध्याय का लक्ष्य स्वाध्याय में हमारा लक्ष्य क्या है, यह समझना अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि केवल मात्र कुछ पुस्तकों को कुछ समय के लिये पढ़ लेना वास्तविक रूप में स्वाध्याय नहीं है। स्वाध्यय का लक्ष्य है 'स्व' अर्थात् अपने आत्म-स्वरूप की जानकारी। मैं कौन हूं। मेरे जीवन का लक्ष्य क्या है, मुझे क्या कर्म करने चाहिये और क्या नहीं करने चाहिये, इन सब का ठीक प्रकार से ज्ञान प्राप्त करना स्वाध्यायी का उद्देश्य है। मेने एक जैन आचार्य द्वारा लिखित शास्त्र मे पढ़ा था जैन धर्म में इसे भेद विज्ञान कहते हैं अर्थात् यह अनुभव करना कि शरीर और आत्मा अलग-अलग हैं। नश्वर शरीर के भीतर जो अविनश्वर चिरंतन आत्म-तत्व है, उसका चिंतन व बोध प्राप्त करना। भगवान महावीर ने कहा......
, 'जे एगे जाणन से सव्वं जाणई।'
अर्थात् जो एक (आत्मा) को जानता है वह सब (जगत) को जानता है। इसी बात को आधुनिक युग में स्वामी विवेकानंद ने अभिव्यक्त किया है। उन्होंने कहा कि शिक्षा मात्र विभिन्न सूचनाओं का संग्रह नहीं है जो हमारे मस्तिष्क में ठूंस ठूंस कर भर दिये जाते हैं और जो बिना आत्मसात् हुए वहां हमेशा गड़बड़ मचाते रहते हैं। हमें उन विचारों की आवश्यकता है जो 'जीवन निर्माण', 'मनुष्य निर्माण' तथा 'चरित्र निर्माण' में सहायक हों। इस प्रकार की 'मनुष्यत्व' का ज्ञान प्रदान करने वाली शिक्षा प्राप्त करना ही स्वाध्याय का लक्षण है। स्वाध्याय का महत्व जैन साधना में स्वाध्याय को बहुत महत्व दिया गया। भगवान महावीर ने कहा कि स्वाध्याय महान तप है। बारह प्रकार के आंतरिक के बाह्य तपों में स्वाध्याय के समान तप न तो है, न हुआ है और न होगा। श्री उत्तराध्ययन सूत्र में भगवान से पूछा गया, 'हे भगवान! स्वाध्याय करने से जीव किस बात का लाभ प्राप्त करता है?' भगवान ने उत्तर दिया, 'सज्झाएणं नाणावर णिज्जं कम्मं खवेई।' अर्थात स्वाध्याय से जीव ज्ञानावरणीय (ज्ञान को रोकने वाले) कर्मों का नाश करता है। भगवती सूत्र में प्रभु महावीर ने बतलाया कि सही प्रकार से स्वाध्याय करने से मनुष्य अपने जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य अर्थात् परमात्म-स्वरूप को प्राप्त कर सकता है। स्वाध्याय के अंग जैन शास्त्रों में स्वाध्याय के बारे में विशद विवेचना मिलती है। प्राचीन काल में जब पुस्तकों का प्रचलन नहीं था, तब भी स्वाध्याय किया जाता था। उस समय ज्ञान को कंठस्थ रखने का रिवाज था। शिष्य गुरुजनों से शास्त्र श्रवण कर उन्हें अपनी स्मृति में संजो कर रखते थे। वेदों को 'श्रुति' और आगम की श्रुत कहा गया, यह इसी तथ्य का सूचक है। आचार्य कुदकुंद ने लिखा है अन्य सभी व्यक्ति इंद्रियों की आंख वाले हैं पर साधु आगम की आंख वाला है। कहने का तात्पर्य यह है कि साधक निरंतर आगम ज्ञान पर चिंतन मनन करता रहे तथा आगम के आधार पर ही अपने जीवन का संचालन करें। स्वाध्याय कैसे करें सत्साहित्य का अध्ययन करना स्वाध्याय कहलाता है लेकिन यह स्वाध्याय किस प्रकार से किया जाए इस पर विचार करने की आवश्यकता है। स्वाध्याय में पूरा मन लगाना चाहिए। आचार्य विनोबा भावे के अनुसार स्वाध्याय गंभीरता पूर्वक करना चाहिये। उन्होंने लिखा है, अध्ययन में महत्व लम्बाई, चौड़ाई का नहीं गंभीरता का है। बहुत देर तक घंटों भांति-भांति के विषयों के अध्ययन करने को मैं लम्बा-चौड़ा अध्ययन कहता हूं। समाधिस्थ होकर नित्य थोड़ी देर किसी एक निश्चित विषय के अध्ययन को मैं गंभीर अध्ययन कहता हूं। दस-बारह घंटे सोना पर करवटें बदलते रहना-ऐसी नींद में विश्रांति नहीं मिलती बल्कि पांच छह घंटे सोयें, किंतु गाढ़ी और नि:स्वप्न निद्रा हो, तो उतनी नींद से पूर्ण विश्रांति मिल सकती है। यही बात अध्ययन की भी है। गंभीरता अध्ययन का मुख्य तत्व है।'
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