Saturday 18 February 2017

नेताओ की बद से बदतर होती जुबान ...

चुनाव के मोसम हो या नेताओ की सभा या संसद या विधान सभा लगता नहीं, कि हमें बोलने की कुछ ज्यादा ही आजादी मिल गयी है। ख़ासकर इस चुनावी माहौल में तो हर हद पार कर दी गयी है। हर मर्यादा तोड़ दी गयी है। नहीं किसी की उम्र का लिहाज बचा है नाहीं किसी पद की गरिमा। महिलाओं तक की बेइज्जती करने से ये तथाकथित नेता बाज नहीं आए!  आज एक नेता ने मर्यादा लागते हुए बच्चे ज्यादा पेदा होने का कारण भी खाली बेठना व बेरोजगारी बता दिया शर्म आती है ! लोकतन्त्र मे हम ऐसे प्रतिनिधि को चुनकर भेजते है !
आजादी के बाद काफी लंबे समय तक नेताओं ने अपनी गरिमा बनाए रखी, एक दूसरे का मान-सम्मान करते रहे। एक दूसरे अच्छाइयों की कदर की जाती रही। पर समय बदलता गया धीरे-धीरे धर्म-जाति-परिवारवाद का समीकरण रंग लाने लगा। राज्यों में येन-केन-प्रकारेण सत्ता का वरण करने के लिए, उल्टे-सीधे, मर्यादाहीन, उसूल विहीन, क्षणभंगुर गठबंधनों का चलन शुरू हो गया। जाहिर है यह मौका बन गया, स्तरहीन, अशिक्षित, असमाजिक तत्वों का अपने बाहुबल, जातिबल, परिवारबल, संपर्कबल, धनबल के सहारे संकरी गलियों से होते हुए राजनीती में प्रवेश करने का। राज्यों की राजनीती केंद्र में भी पहुंचनी ही थी जिसके साथ ही अनियंत्रित भाषा और आचरण ने भी वहां स्थान बना, आरक्षण प्राप्त कर लिया।
किसी की अच्छाई की ओर ना ताकने की कसम खाकर शुरू हो गया खोज-खोज कर एक-दूसरे की जानी-अनजानी, कमियों-विफलताओं-दोषों को बढ़ा-चढ़ा, घुमा-फिरा कर उजागर कर जनता के सामने उसकी छवि धूमिल करने का दौर ! किसी को विदेशी बता उसका अपमान किया जाने लगा, किसी की भाषा का मजाक बनाया जाने लगा, किसी के हाव-भाव की खिल्ली उड़ाई जाने लगी, किसी की पारिवारिक स्थिति की सरेआम तौहीन की जाने लगी तो किसी के भूतपूर्व पेशे को ही बहस का मुद्दा बना दिया गया। यहा तक देश के प्रधानमंत्री पद पर बेठे मोदी जी के बारे मे भी उनकी शादी व पत्नी को लेकर व्यंग कसे जाते है ! ओर जब जब जिस पर हमला हुआ उसके चाटुकारों, चापलूसों ने भी उसका उसी रूप में जवाब दे-दे कर वातावरण में कडुवाहट घोलने से परहेज नहीं किया। सहनशीलता, सहिष्णुता, क्षमाशीलता सब तो दूर की बात हो गयी है !
हिंदीं को कमोबेश राष्ट्रभाषा का दर्जा मिल ही गया है। पर हमारे देश में अनेकों भाषाएं बोली जाती हैं। सब का अलग-अलग लहजा और उच्चारण हैं। इसी कारण लाखों लोग अभी भी शुद्ध हिंदी नहीं बोल पाते हैं। उनका तो हम बुरा नहीं मानते। कहना तो नहीं चाहिए पर हमारे कुछ राष्ट्रपति भी कहां साफ़ हिंदी बोल पाते थे। अभी भी कई कलाकार हैं जिन्होंने जिंदगी फिल्मों में गुजारने के बावजूद भाषा पर काबू नहीं पाया है। पर उनकी फिल्मों का ना कोई बायकॉट नही हुआ नाहीं उनका विरोध किया गया। ऐसे ही किसी की सभा में हुई अफरा-तफरी को मजाक का विषय बनाने में किसी को झिझक नहीं हुई। खुद ऐसे लोग जो जिम्मेदारी के बावजूद किसी ना किसी बहाने अपना राज्य छोड़ दूर-दराज के प्रदेश में छुट्टियां मनाने में नहीं शर्माते, वही विरोधी दल के किसी सदस्य, जिस पर कोई बोझ भी नहीं है, की विदेश यात्रा को गुनाह का रूप देते नहीं हिचकते !
अभी कुछ दो दिनो से शोशल मीडिया अरविंद केजरीवाल जी को राकेट पर योगा करते हुए बेठा कर न जाने इसरो की गलती बताने लग गए वाह क्यू इतनी सोच गिर गयी मुझे समझ मे नही आता ! इसी संदर्भ में कम से कम उन तीन बातों का जिक्र जरुरी है जिनका प्रयोग लाक्षणिक रूप से हुआ था। पहली कुछ रकम का लोगों की जेब में आने का जिक्र था जिसका मंतव्य था कि यदि बाहर से सारा धन आ जाए तो इतनी-इतनी रकम हर आदमी के हिस्से आ सकती है इस बात का बतंगड़ बना यह प्रचार होने लगा कि उतनी रकम देने का वादा किया गया था। इसी को नाकामियों का मुद्दा बना दिया गया ! दूसरी बात अपने देश की हर एक प्राणी के प्रति लगाव रखने की थी; कि यदि कुत्ते का बच्चा भी गाडी से कुचल जाए तो हमें तकलीफ होती है इस बात का भी गलत अर्थ लगा लोगों की भावनाओं को भड़काने की कोशिश की जाने लगी। तीसरी स्नानागार से ताल्लुक रखने वाली बात का भी बतंगड़ बना जनता को भरमाने की कुत्सित चेष्टा शुरू कर दी गयी। जबकि असलियत बच्चे-बच्चे को पता है !! वैसे ही कुछ लोग सिर्फ विरोध करने के लिए ही विरोध करते हुए एक ही जगह लक्ष्य साध अपनी दूकान चलाने में प्रयासरत हैं।
कुछ लोग जान-बूझ कर कुछ ख़ास मौकों पर, जैसे अभी चुनाव के माहौल में तनाव पैदा करने वाले विवादास्पद बयान दे सुर्ख़ियों में बने रहना चाहते हैं। इन सब को देखना-समझना चाहिए कि कुछ लोग कुछ देर के लिए ही सब को बेवकूफ बना सकते हैं, सदा के लिए नहीं। अधिकतम लोग समझदार हैं जो इनकी बातों को सुनते तो हैं पर अपना काम सोच-समझ कर करते हैं पर अधिकांश अभी भी अशिक्षा और जागरूकता की कमी के कारण जाति-धर्म के साथ-साथ मुफ्त की चीजों के चक्कर में पड़ अपने हाथ कटवा बैठते हैं। इन्हीं की बदौलत अवसरवादी अपना खेल, खेल जाते हैं। यह कहना भी गलत नहीं होगा कि अधिकाँश जनता की बदहाली ऐसे ही कारण है क्योंकि ये लोग जानते हैं कि जिस दिन अवाम शिक्षित हो गया वही दिन इनकी आकांक्षाओं का अंतिम दिन होगा।वैसे भी इतिहास गवाह है कि जब-जब एक ही आदमी को लक्ष्य कर उसको बदनाम करने की कोशिश की गयी है, तब-तब उसी खास इंसान को जनता की सहानुभूति मिली है। दलों का राजनितिक मतभेद हो सकता है, होना भी चाहिए पर व्यक्तिगत आक्षेप करना कतई स्वागत योग्य नहीं है।
चाहे राजनेता के हो या आम जनता.... ......
लेखक - उत्तम जैन ( विद्रोही )
प्रधान संपादक - विद्रोही आवाज 

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