किसने सोचा था कि दुनिया इतनी सिमट जाएगी और वो भी इतनी कि मानव की मुठ्ठी में समा जाएगी, जी हां आज इन्टरनेट से सूचना और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में सोशल मीडिया के द्वारा वो क्रांति आई है जिसकी कल्पना भी शायद कुछ सालों पहले तक मुश्किल थी। तकनीक से ऐसी क्रान्तियां हमेशा ही हुई हैं जिन्होंने मानव सभ्यता की दिशा मोड़ दी है, लेकिन सोशल मीडिया ने न सिर्फ भारतीय समाज बल्कि भारतीय राजनीति को भी हाई टेक कर दिया है।
सोशल मीडिया से आज कौन अपरिचित होगा? आज सोशल मीडिया, संवाद का वह सशक्त माध्यम बन गया है, जिससे हम दुनिया के किसी भी कोने में बैठे उन लोगों से संवाद एवं विचार-विमर्श कर सकते हैं, जिनके पास इंटरनेट की सुविधा है। इसके जरिए हमें एक ऐसा साधन मिला है, जिससे हम न केवल अपने विचारों को दुनिया के समक्ष रख सकते हैं, बल्कि दूसरे के विचारों के साथ-साथ दुनियाभर की तमाम गतिविधियों से भी अवगत होते हैं। सोशल मीडिया सामान्य संपर्क या संवाद ही नहीं, बल्कि हमारे कैरियर को तराशने एवं नौकरी तलाशने या लेखन प्रसार में भी पूरी सहायता उपलब्ध कराता है।
राजनीति में शुरू से कूटनीति व्यवहारिकता और प्रोफेशनलिज्म हावी रहता था, लेकिन आज तकनीक हावी है। पहले अस्सी के दशक तक राजनेताओं की एक छवि एवं लोकप्रियता होती थी, जो कि उनके संघर्ष एवं जनता के लिए किए गए कार्यों के आधार पर बनती थी, किन्तु आज समा कुछ यूं है कि पेशेवर लोगों द्वारा सोशल मीडिया का सहारा लेकर नेताओं की छवियों को गढ़ा जाता है और उन्हें लोकप्रिय बनाया जाता है।
पहले परम्परागत राजनैतिक कार्यकर्ता घर घर जाकर नेता का प्रचार करते थे और आज I T सेल से जुड़े पेशेवर लोग आपके राजनेता और अपने क्लाएन्ट अर्थात् ग्राहक की छवि आपके सामने प्रस्तुत करते हैं। भारत में चुनावों के लिए पेशेवर लोगों का इस्तेमाल पहली बार राजीव गांधी ने किया था, जब उन्होंने अपनी पार्टी की चुनावी सामग्री तैयार करने और विज्ञापनों का जिम्मा विज्ञापन एजेंसी "रीडिफ्यूजन " को दिया था।
प्रशांत किशोर आज के इस राजनीति के वैज्ञानिक दौर में राजनैतिक दलों के लिए तारणहार बनकर उभरे हैं। सोशल मीडिया और प्रशांत किशोर के तड़के का प्रभाव सबसे पहले 16 मई 2014 को आम चुनावों के नतीजों के बाद द्रष्टीगोचर हुआ था, जब नरेन्द्र मोदी भारतीय ओबामा बनकर उभरे थे। उसके बाद हाल के बिहार विधानसभा चुनावों में जिस प्रकार नीतीश कुमार ने कुछ माह पूर्व के लोकसभा चुनावों की तर्ज पर जीत दर्ज की वह एक प्रोफेशनल सांटिफिक एप्रोच के साथ सोशल मीडिया के रथ पर सवार होकर विजेता के रुप में उभरने की कहानी है।
मोदी की " चाय पर चर्चा " नीतीश के लिए "बिहारी बनाम बाहरी" और अब पंजाब में कैप्टन अमरिन्दर सिंह के लिए"काफी विद कैप्टन" तथा "पंजाब का कैप्टन" जैसे नारों का सोशल मीडिया पर वाइरल हो जाना अपने आप में राजनीति के व्यवसायीकरण तथा सोशल मीडिया की ताकत का एहसास दिलाने के लिए काफी है।
आज सभी भारतीय राजनेता इस बात को समझ चुके हैं शायद इसीलिए जहां 2009 तक शशि थरुर ही एकमात्र नेता थे, जो नेट पर सक्रिय थे, वहीं आज पांच साल बाद 2016 में शायद ही कोई नेता है जिसका फेसबुक और ट्विटर अकाउंट न हो।
पूर्व की सूचना की क्रान्तियों की बात करें तो रेडियो को जन जन तक पहुंचने में 38 साल लगे थे, टीवी को 14 साल,इन्टरनेट को 4 साल और फेसबुक को केवल 9 महीने..........
फरवरी 2015 के दिल्ली के विधानसभा चुनावों के नतीजे तो आपको याद ही होंगे, जब आम आदमी पार्टी ने जीत के सभी रिकॉर्ड ध्वस्त कर दिए थे। इन नतीजों ने राजनीति में सोशल मीडिया की मौजूदगी को मजबूती प्रदान की थी। चुनाव का अधिकांश युद्ध फेसबुक और ट्विटर पर चला। दिल्ली में लगभग 13 मिलियन रेजिस्टरड वोटर थे जिनमें लगभग 12.15 मिलियन ऑनलाइन थे। सोशल मीडिया की ताकत का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि 15 अप्रैल 2014 को आम आदमी पार्टी के संस्थापक अरविंद केजरीवाल ने ट्वीट किया कि राहुल और मोदी से लड़ने के लिए ईमानदार पैसा चाहिए दो दिन में एक अपील पर एक करोड़ रुपए जमा हो गए।
सोशल मीडिया आम आदमी और राजनेताओं दोनों के लिए एक जिन बनकर उभरा है, जहां एक तरफ चुनाव प्रचार के लिए, प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के ऊपर राजनैतिक दलों की निर्भरता खत्म हुई, वहीं दूसरी तरफ आम आदमी को अपनी बात राजनेताओं तक पहुंचाने का एक सशक्त एवं प्रभावशाली माध्यम मिल गया, जो आम आदमी अपनी अभिव्यक्ति की जड़ें तलाशने में लगा था, उसे फेसबुक ट्विटर और वाट्स अप ने अपने विचारों को प्रस्तुत करने की न सिर्फ आजादी प्रदान की, बल्कि एक मंच भी दिया जिसके द्वारा उसकी सोच देश के सामने आए।
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