Tuesday 22 May 2018

धर्म का मर्म - ‘परोपकारः पुण्याय पापाय पर पीड़नम्’- उत्तम जैन-- विद्रोही

                                    किसी कवि ने धर्म के मर्म पर बहुत खूब लिखा                                                                      
धर्म का मर्म ---धर्म के विभिन्न विचारों पर चलकर हम धीरे-धीरे बड़े होते हैं। वहीं विचार हमारे मन में बस जाते हैं। लेकिन आजकल लगातार कई बार इसमें ह्रास देखा जा रहा है। हर व्यक्ति अपने धर्म को छोड़ कर दूसरे धर्म के प्रति अधिक आकर्षित होता है। पहले हमारे पूर्वजों ने जिन चीजों को दृष्टि में रखकर धर्म को महत्व दिया था, हम उससे बिल्कुल हटकर सोचते हैं। जैसा कि एक किसान का धर्म खेती करना है अगर उसी कार्य को वह निपुणता के साथ करे तो उसे उस कार्य में सफलता भी मिलेगी। हर व्यक्ति को अपने धर्म को समझना जरूरी होता है। अपने-अपनेे धर्म को समझकर उसी में रूचि के साथ कार्य करने से हमें सफलता जरूर मिल सकती है। साधारण तौर पर यह देखा गया है कि कई व्यक्ति ऐसे भी होते हैं, जिन्हें अपने धर्म और कर्म से अधिक दूसरों के धर्म और उनके कार्य लुभाते हैं। हम उनसे प्रेरित होकर वही करने बैठ जाते हैं। जबकि हमारी अपने धर्म के प्रति निष्ठा धीरे-धीरे कम होने लगती है और जिस कार्य को हम मन लगाकर करने बैठते हैं वही कार्य सुचारू रूप से कर भी पाते हैं। दूसरों के धर्म को अपमानित करना हमारा इरादा नहीं होना चाहिए। अपने धर्मपथ पर दृढ़ रहते हुए दूसरों के धर्म के प्रति समान सम्मान का भाव रखना चाहिये। देखा जाये तो जो व्यक्ति अपने धर्म का मर्म सही रूप से समझता है वही व्यक्ति दूसरों के धर्म के प्रति अपने दिल में समान सम्मान का भाव रख सकता है। कुछ अहंकारी व्यक्ति जिन्हें धर्मों, मर्यादाओं और संस्कारों के मोल का एहसास नहीं होता उनकी वजह से ही समाज में धर्म के नाम पर व्यभिचार व्याप्त होता है।
हम सभी धर्म रूपी शब्द में आस्था तो रखते है मगर धर्म का वास्तविक अर्थ उसका मर्म क्या है कभी समझने की कोशिश नही की मूल आज का विषय है - धर्म क्या है ? धर्म की क्या आवश्यकता है। (धर्म का मर्म) धर्म शब्द से क्या अभिप्राय है ? धर्म शब्द संस्कृत की ‘धृ’ धातु से बना है। धृ का अर्थ है धारणा करना, संभाले रखना। धर्म की व्याख्या शास्त्रों में की गयी है ---
                        ‘परोपकारः पुण्याय पापाय पर पीड़नम्’
अर्थात परोपकार करना ही पुण्य है और दूसरों को किसी भी भांति सताना और दुःखी करना पाप है। जो चीज सबको संभाले और मिलाए रखे-वही धर्म है। जिस बात से किसी को भी दुःख न पहुंचे वही धर्म है। धर्म के दस लक्षण है धैर्य, क्षमा, इन्द्रिय, दमन (निरहंकारिता), अस्तेय, पवित्रता, बुद्धि, विवेक, सत्य एवं अक्रोध।
हम सभी लोग अपने आपको धार्मिक कहलाना पसंद जरूर करते हैं, मगर अपनी आत्मा से ही कभी कभार पूछ लिया करें कि हम कितने धार्मिक हैं तो हमारी कलई अपने आप खुल जाएगी। धर्म-कर्म के नाम पर हम जो कुछ करते हैं उसका अधिकांश हिस्सा भगवान को रिझाने या दिखाने के लिए तो शायद ज्यादा कभी नहीं होता बल्कि लोक दिखाऊ संस्कृति का ही हिस्सा माना जा सकता है। हम जो कुछ साधना और धर्म-ध्यान, भजन-पूजन आदि करते हैं वह सब कुछ देवी या देवता के लिए करते हैं मगर प्रायः देखा यह गया है कि हम लोगों को देख कर अपने हाथ-होंठ और जीभ चलाते हैं। कोई हमें नहीं देख रहा हो तब कुछ भी नहीं करते या कि दूसरे-तीसरे विचारों में खोये रहते हैं अथवा अन्य कामों में मन लगाए रहते हैं। धर्म को हमने उपासना पद्धति ही मान लिया है जबकि धर्म का संबंध जीवनचर्या के व्यापक अनुशासन और वैश्विक सोच की उदारता से भरा है।   मन में राग द्वेष रख कर हम चले धर्म करने यह तो एक विडम्बना ही है ! धर्म हमें वसुधैव कुटुम्बकम् के सिदान्त को सिखाता है ! सच में देखा जाए तो  कहा भी गया है कि जो धर्म को धारण करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है।कोई कितना ही साधन, भजन-पूजन, अनुष्ठान आदि कर ले, यज्ञ-यागादि, धार्मिक समारोहों आदि से लेकर मन्दिरों और मूर्तियों की प्रतिष्ठा में लाखों-करोड़ो रुपयों का दान कर दे, इसका कोई मूल्य नहीं है, यदि यह पैसा पवित्र नहीं है।यह मेरा मानना है ! धर्मानुरागी माने या न माने मुझे उससे कोई वास्ता नही! क्यों की
दुर्भाग्य से आजकल धर्म के नाम पर जो कुछ हो रहा है उसमें अधिकांश पैसा दूषित आ रहा है। और साधू संत व् बाबाओं ने भी धर्म के नाम पर गंदे और प्रदूषित पैसे को शुद्ध करने का ऎसा भ्रम बना रखा है कि धर्म और कालेधन, पापधन, दूषित धन सब कुछ एक दूसरे का पर्याय हो गया है। हम सभी लोगों को भ्रम है कि कितनी ही काली कमायी कर लें, रिश्वतखोर बने रहें, भ्रष्टाचार से धन जमा करते रहें, उसका थोड़ा सा अंश धार्मिक कार्यक्रमों, मन्दिरों और पूजा-पाठ या बाबाओं, साधू के इंगित अनुसार उनके चरणों में समर्पित कर देने से उनके पाप धुल जाएंगे और अनाचार, अनीति से धनार्जन का पाप समाप्त हो जाएगा। यही वजह है कि देश में हर तरफ धर्म के नाम पर गतिविधियों की हमेशा धूम मची रहती है, हर दिन कोई न कोई आयोजन होता रहता है, इसके बावजूद न शांति स्थापित हो पा रही है, न संतोष। प्राकृतिक, दैवीय और मानवीय आपदाओं का ग्राफ निरन्तर बढ़ता ही चला जा रहा है। कहीं भूकंप आ रहे हैं, भूस्खलन हो रहा है, कही बाढ़ सूखा और दूसरी सारी समस्याएं बढ़ती ही चली जा रही हैं। इन सभी का मूल कारण यही है कि धर्म के नाम पर जो कुछ हो रहा है उसमें शुचिता समाप्त हो रही है, प्रदूषित और पाप की कमायी लग रही है। जो कर रहे हैं वे भी, और जो करवा रहे हैं उनका भी धर्म से कोई वास्ता नहीं है बल्कि इन लोगों ने धर्म के नाम पर धंधा ही चला रखा है।यही कारण है कि भगवान भी इन लोगों की उपेक्षा कर रहा है और हम सभी मूर्खों को भी उपेक्षित कर रखा है जिन्हें धर्म के मूल मर्म से कोई सरोकार नहीं है।धर्म सदाचार, मानवीय मूल्यों, आदर्शाें और विश्व मंगल के लिए जीने का दूसरा नाम है। असली धर्म वही है जिसे देख, सुन और अनुभव कर हर किसी को प्रसन्नता का अनुभव हो, चाहे वह मनुष्य और, दूसरे कोई से प्राणी या जड़-चेतन जगत ही क्यों न हो। धर्म वह छत है जिसके नीचे कोई भेदभाव नहीं है बल्कि पूरी सृष्टि का भरण-पोषण और रक्षण करता है। हम सभी को चाहिए कि धर्म के मूल मर्म को आत्मसात करें और मानवीय मूल्यों से भरे-पूरे उन विचारों और कर्मों को अपनाएं जहाँ हर कोई एक-दूसरे से प्रसन्नता का अनुभव करे, मनुष्य-मनुष्य और जगत के हर प्राणी के बीच प्रेम, सात्विकता और पारस्परिक विकास की भावनाओं से भरा माहौल हो। 
लेखक - उत्तम जैन ( विद्रोही )
मो -8460783401 

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