Monday 31 July 2017

धारा 370 और अनुच्‍छेद 35(A) में बदलाव समय की मांग

जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने शुक्रवार 28 जुलाई को एक कार्यक्रम में चेतावनी देते हुए कहा कि अगर जम्मू-कश्मीर के लोगों को मिले विशेषाधिकारों में यानि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 और 35ए में किसी भी तरह का बदलाव किया गया, तो राज्य में तिरंगा थामने वाला कोई नहीं रहेगा. उन्होंने कहा कि ऐसा करके आप अलगाववादियों पर नहीं, बल्कि आप उन शक्तियों पर निशाना साध रहे हैं, जो भारतीय हैं, भारत पर विश्वास करते हैं, चुनावों में हिस्सा लेते हैं और जो जम्मू-कश्मीर में सम्मान के साथ जीने के लिये लड़ते हैं. उन्होंने एहसान जताते हुए कहा कि मेरी पार्टी और अन्य पार्टियां जो तमाम जोखिमों के बावजूद जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रीय ध्वज हाथों में रखती हैं, मुझे यह कहने में तनिक भी संदेह नहीं है कि अगर जम्मू-कश्मीर के लोगों को मिले विशेषाधिकारों में कोई बदलाव किया गया, तो कोई भी राष्ट्रीय ध्वज को थामने वाला नहीं होगा. महबूबा मुफ़्ती की बातों को सुनकर मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ, क्योंकि जम्मू-कश्मीर की अधिकतर राजनीतिक पार्टियों के नेता समय-समय पर ऐसे ही अलगाववादी बोल बोलते रहे हैं. भाजपा की जम्मू-कश्मीर महिला बीजेपी की उपाध्यक्ष डॉ. हिना बट तो यहाँ तक कह चुकी हैं कि अगर धारा 370 के साथ छेड़छाड़ की गई, तो कश्मीर के लोग हाथों में बंदूकें उठा लेंगे. इसके बाद उन्होंने यह भी कहा था कि मैं भी कश्मीर से ही हूं.
संविधान के अनुच्छेद 35ए और अनुच्छेद 370 जैसे प्रावधानों के चलते ही जम्मू-कश्मीर सरकार राज्य के कई लोगों को उनके मौलिक अधिकारों से वंचित रखा गया है. जम्मू-कश्मीर में लगभग डेढ़ लाख ऐसे शरणार्थी हैं, जो वर्षों से राज्य की नागरिकता पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, लेकिन अब तक किसी भी केंद्र या राज्य सरकार ने उनकी जायज मांग की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया है. उनकी जायज मांग को मानने के लिए धारा 370 और अनुच्‍छेद 35(A) में बदलाव समय की मांग है.
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 और 35 ए में जब भी किसी बदलाव की बात की जाती है, तो जम्मू-कश्मीर के नेताओं के कान खड़े हो जाते हैं और वे एक सुर में चिल्लाना और धमकी देना शुरू कर देते हैं कि खबरदार, हमारे विशेषाधिकार को ख़त्म करने की बात सोचना भी मत. उनके चिल्लाने और धमकी देने की सबसे बड़ी एकमात्र वजह बस यही है कि सारे विशेषाधिकार का फायदा कश्मीर के आम लोग नहीं, बल्कि नेता लोग उठा रहे हैं. उन्हें चिंता आम जनता की नहीं, बल्कि अपने एकाधिकार, सुख-सुविधा और मौज-मस्ती की है, जिसमें वे कोई भी कमी बर्दाश्‍त नहीं कर सकते हैं.
यह बात सही है कि भारतीय संविधान के भाग 21 के तहत, जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा हासिल है, लेकिन जम्मू-कश्मीर के नेता यह बात भूल जाते हैं कि ये संवैधानिक प्रावधान अस्थायी और परिवर्तनीय हैं. वक्त की जरूरत के मुताबिक़ अनुच्छेद 370 में समय-समय पर कई बदलाव हुए हैं, जैसे 1965 तक जम्मू-कश्मीर में राज्यपाल की जगह सदर-ए-रियासत और मुख्यमंत्री की जगह प्रधानमंत्री शब्द का प्रयोग हुआ करता था. वर्ष 1964 में संविधान में संशोधन कर अनुच्छेद 356 तथा 357 को जम्मू-कश्मीर राज्य पर भी लागू कर दिया गया. इन अनुच्छेदों के अनुसार जम्मू-कश्मीर में संवैधानिक व्यवस्था के गड़बड़ा जाने पर राष्ट्रपति का शासन लागू किया जा सकता है. भाजपा ने धारा 370 का हमेशा विरोध किया है.
कश्मीर में अलगाववाद के फलने-फूलने की मूल वजह भाजपा इसे ही मानती है, इसलिए इसको निरस्त किए जाने की मांग पर अड़ी रही है. आज केंद्र और राज्य दोनों ही जगह भाजपा सत्ता पर काबिज है, लेकिन अनुच्छेद 370 और 35 ए के मुद्दे पर राज्यसभा में पर्याप्त बहुमत न होने का बहाना कर चुप्पी साधे हुए है. जम्मू-कश्मीर राज्य के विशेष दर्जे को समाप्त करने का भाजपा के पास एक स्वर्णिम अवसर है, जिसका उसे फायदा उठाना चाहिए और नेहरू की उस ऐतिहासिक भूल को सही करना चाहिए, जिसके लिए वे भी आजीवन पछताते रहे. एक ऐसी गलती जिसने कश्मीर में न सिर्फ अलगाववाद को बढ़ावा दिया है, बल्कि जम्मू-कश्मीर राज्य में दोहरी नागरिकता पाकर रहने वाले नागरिकों और भारत के अन्य राज्यों में रहने वाले नागरिकों के बीच नफरत और भेदभाव की खाई भी चौड़ी की है.
नेहरू ने 27 नवंबर 1963 को अनुच्छेद 370 और 35ए के बारे में संसद में बोलते हुए कहा था, ‘यह अनुच्छेद घिसते-घिसते, घिस जाएगा’. अफ़सोस इस बात का है कि हुआ इसका उल्टा और नेहरू की बात झूठी साबित हुई. डॉ. भीमराव अंबेडकर भी जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने के खिलाफ थे. उन्होंने विशेष राज्य की मांग पर अड़े शेख अब्दुल्ला से कहा था, ‘आप कह रहे हैं कि भारत जम्मू-कश्मीर की रक्षा करे, उसका विकास करे. भारत के नागरिकों को भारत में जो भी अधिकार प्राप्त हैं वे इस राज्य के लोगों को भी मिलें और जम्मू-कश्मीर में भारतीयों को कोई अधिकार नहीं हो, भारत के विधि मंत्री के रूप में मैं देश को धोखा नहीं दे सकता’.
डॉ. भीमराव अंबेडकर जी की बात से तो यही जाहिर होता है कि सरदार बल्लभ भाई पटेल की दूरदर्शी सोच और अथक प्रयास से पूर्ण एकीकरण की राह पर चल रहे हिन्दुस्तान के साथ बहुत बड़ा धोखा हुआ. कश्मीर के मामले में सरदार बल्लभभाई पटेल की कोई बात नहीं मानी गई, नतीजा सबके सामने है. वर्ष 1947 ई. में जब पाकिस्तान ने अपने सैनिकों और कबिलायियों के साथ कश्मीर पर हमला किया, तब जम्मू-कश्मीर रियासत के तत्कालीन राजा हरीसिंह भारत में विलय के लिए पूर्णतः स्वायत्तशासी अलग राज्य बनाने की मांग पर राजी हुए. भारतीय सेना जब पाकिस्तानी सैनिकों और कबिलायियों को ठिकाने लगा रही थी, तभी नेहरू ने एक बहुत बड़ी ऐतिहासिक भूल करते हुए एकतरफा युद्धविराम घोषित कर दिया और कश्मीर का मामला संयुक्त राष्ट्र में ले गए. सब जानते हैं कि कश्मीरी नेता शेख अब्दुल्ला और जवाहरलाल नेहरू के बीच गहरी मित्रता थी. नेहरू चाहते थे कि जम्मू-कश्मीर राज्य की बागडोर उनके परम मित्र शेख अब्दुल्ला के हाथों में हो.
शेख अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर पर एकछत्र राज्य करना चाहते थे, इसलिए मौके का फायदा उठाकर जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा या कहिये एक तरह से अलग देश बनाने की मांग कर रहे थे. भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 और 35 ए के जरिये नेहरू ने उनकी इच्छा काफी हद तक पूरी कर दी. उनकी यही भूल जम्मू-कश्मीर में अलगाववादी विचारधारा के पनपने और कश्मीर के मौजूदा विवाद की जननी बनी. अंतरराष्ट्रीय नेता बनने के चक्कर में नेहरू ने कश्मीर समस्या का अंतरराष्ट्रीयकरण कर दिया.
लेखक - उत्तम विद्रोही

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