Tuesday, 26 September 2017

समझ तो सब रही है जनता देश की मगर फिलहाल चुप है


बचपन मे हमेशा एक गाना गुनुगुनाया करता था जो एक पुरानी फिल्म, ‘यकीन’ का गाना है… “ बच के, बच के कहाँ जाओगे”,  जो आज पूरी तरह देश के मध्यम वर्ग पर लागू है। उस गाने के बोलों को बिना जुबान पर लाए, आजमाया जा रहा है, देश के इस शापित वर्ग पर। देश की जनता समझ तो सब रही है, फिलहाल चुप है। पर उसकी चुप्पी को अपने हक़ में समझने की भूल भी लगातार की जा रही है। आम-जन के धैर्य की परीक्षा तो ली जा रही है, पर शायद यह सच भुला दिया गया है कि हर चीज की सीमा होती है। नींबू चाहे कितना भी सेहत के लिए मुफीद हो, ज्यादा रस पाने की ललक में अधिक निचोड़ने पर कड़वाहट ही हाथ लगती है।
अभी बैंकों की सर्कस चल ही रही है।  जिसके तहत पैसे जमा करने, रखने, कितने रखने, निकालने, कितने निकालने जाइए करतब दिखाए जा रहे हैं। तंग होकर भी लोगों ने शो चलने दिया है, क्योंकि रोजी-रोटी की कशमकश के बाद थके-टूटे इंसान के पास यह सब सोचने का समय ही कहाँ छोड़ा गया है। पर विरोध का ना होना भी अन्याय का समर्थन ही है।

इसी विरोध के ना होने से साथ ही बारी आ गई किरायों की। लोग बसों से आते-जाते थे, उसके किराए बढ़ा दिए गए। लोगों ने चुप रह मेट्रो का रुख किया, तो उसकी कीमतें भी बढ़ा दी गयीं। तर्क ये कि सालों से इसका किराया नहीं बढ़ा है। गोयाकि सालों से नहीं बढ़ा है, सिर्फ इसीलिए बढ़ाना जरूरी है। भले ही वह फायदे में चल या चलाई जा सकती हो। पर नहीं सबसे आसान तरीका सब को यही सूझता है कि मध्यम वर्ग की जेब का छेद बड़ा कर दिया जाए।

आम नागरिक फिर कड़वा घूंट पीकर रह गया। लोगों ने इसका तोड़, कार-स्कूटर पूल कर निकाला, तो फिर इस बार सीधे पेट्रोल पर ही वार कर दिया गया। उस पर तरह-तरह के टैक्स, फिर टैक्स पर टैक्स, फिर सेस, पता नहीं क्या-क्या लगा उसकी कीमतों को अंतर्राष्ट्रीय कीमतों से भी दुगना कर दिया गया। हल्ला मचा तो हाथ झाड़ लिए।

सरकारी, गैर-सरकारी कंपनियों की कमाई कहाँ से आती है, मध्यम वर्ग से। देश भर में मुफ्त में अनाज, जींस, पैसा बांटा जाता है, उसकी भरपाई कौन करता है, मध्यम वर्ग। सरकारें बनाने में किसका सबसे ज्यादा योगदान रहता है, मध्यम वर्ग का। फिर भी सबसे उपेक्षित वर्ग कौन सा है, वही मध्यम वर्ग।

अब तो उसे ना किसी चीज की सफाई दी जाती है और ना ही कुछ बताना गवारा किया जाता है। तरह-तरह की बंदिशों के फलस्वरूप इस वर्ग के अंदर उठ रहे गुबार को अनदेखा कर उस पर धीरे-धीरे हर तरफ से शिकंजा कसा जा रहा है कि कहीं बच के ना निकल जाए। ऐसा करने वाले उसकी जल्द भूल जाने वाली आदत और भरमा जाने वाली फितरत से पूरी तरह वाकिफ हैं, इसीलिए अभी निश्चिंत भी हैं। पर कब तक ?
लेखक - उत्तम जैन ( विद्रोही ) 

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