Monday 11 September 2017

साहित्य- सन्मान व आलोचक

बहुत बार मे जब कुछ लिखने की कोशिस करता हु ! अपने विचारो को संप्रेषित करता हु ! कुछ मित्र / पाठक / साहित्यिक मित्र - मेरा मार्गदर्शन करते है तो कुछ साहित्यकार मित्रों द्वारा आलोचना करना ही मुख्य ध्येय होता है ! लेखन मे त्रुटि रहना संभव है एक अच्छा पाठक या साहित्य प्रेमी वही होता है जो लेखक का ध्यान उस त्रुटि की ओर दिलाये न की आलोचक बनकर टिप्पणी करे ! आज बहुत से ऐसे साहित्यकार /रचनाकर का हमसे सामना होता है जो स्वयं को बहुत बड़ा रचनाकार/ लेखक समझने लगता है ! एक कटु सत्य है हिन्दी साहित्य मे कभी  कोई परिपूर्ण नही होता इसकी जितनी गहराई मे हम जाएंगे हर पल कुछ नया सीखने को मिलेगा     प्रत्येक रचनाकार का अपना लक्ष्य होता है। यश की प्राप्ति किसी भी साहित्यकार का लक्ष्य हो सकता है, परंतु केवल यश प्राप्ति ही साहित्य का उद्देश्य नहीं है  आज  देखें तो बहुत सारे साहित्यकारों ने अपनी अभिव्यक्ति की लालसा को जीवित रखने के लिए भी साहित्य की रचना की। यश की प्राप्ति कोई बुरी बात नहीं है, किन्तु अपने साहित्य में सामाजिकता को बनाए रखना बहुत आवश्यक है। जब उस लेखक को कोई साहित्य मंच सन्मान प्रदान करता है तो उभरते लेखक के लिए बहुत बड़ा सन्मान होता है ओर उसे यह सन्मान कुछ नया लिखने को प्रेरित करता है !   लोकप्रियता अपराध नहीं है, लेकिन लोकप्रिय होने के लिए श्रम करना होता है  ! साहित्यकार कोई भी हो उसकी इच्छा यह हमेशा रहती  है कि जो उसके द्वारा रचा जा रहा है उसका एक पाठक वर्ग हो और उसका मूल्यांकन भी हो। अपने लिखे के लिए पाठको  की इच्छा रखना कुछ गलत भी नहीं है। साहित्य वही उत्तम होता है जो अधिक-से अधिक लोगों तक पहुंचता है। ठहरा हुआ जल जैसे सड़ जाता है, वैसे ही साहित्य का संचयन उसकी उपयोगिता को खत्म कर देता है। अच्छे साहित्य का प्रयोजन ही उसके विस्तार से पूरा होता है, वरना लेखनी का कुछ भी अर्थ नहीं।  साहित्यकार चाहे कितना भी अंतर्मुखी हो उसका साहित्य विस्तार मांगता है ! साहित्यकार की रचना / विचार/  पाठक (या श्रोता) की अपेक्षा रखती है। एक जनता की अपेक्षा रखती है। उससे सम्मानित होकर, शाश्वत होकर रूप ग्रहण करने की आकांक्षा रखती है।  साहित्य का प्रयोजन मात्र यश नहीं है, बल्कि उसके साथ अपने विचारों और भावनाओं का विस्तार भी है। साहित्य का पहला प्रयोजन समाज का विकास और उन्नयन ही है। अर्थ और यश की प्राप्ति तो मनुष्य की सहज और स्वाभाविक क्रिया है। अगर साहित्य किसी की जीविका का आधार बने तो भी कुछ बुरा नहीं है, परंतु धन और यश के लिए साहित्य की बुनियादी प्रवृत्तियों से समझौता करना साहित्य का सच्चा प्रयोजन नहीं हो सकता है।  --उत्तम जैन (विद्रोही )

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