Sunday 23 April 2017

हिन्दी साहित्य विवेचना ओर मेरा प्रेम --


मेरा अध्ययन वेसे कोई ज्यादा नही मगर मेरा साहित्य पढ्ना पसंदीदा विषय रहा है ! विभिन्न लेखको के साहित्य पढना मेेरा नित्यक्रम है ! मुझे हिन्दी साहित्य लिखना व पढना बहुत अच्छा लगता है ! अँग्रेजी पर मेरा अधिकार नही क्यू की मेरी शिक्षा छोटे गाव मे हिन्दी माध्यम से हुई हा अँग्रेजी विषय पर मेरी तुलना अगर की जाये तो मुझे अनपढ़ कहा जा सकता है ! हिन्दी मेरा सदेव पसंदीदा विषय रहा है ! पिछले पाँच वर्षो से ब्लॉग लिखता हु ! मेरे लिए सबसे बड़ा शुकुन यह रहा मेरे आदर्श व हिन्दी साहित्य प्रेमी श्री गणपत जी भसाली जी मेरा परिचय जब से हुआ मेरे लेखन मे के प्रति ओर रुचि बढ़ गयी ! उनके द्वारा संचालित व्हट्स अप समूह हिन्दी साहित्य सोरभ मे मुझे जोड़ा तब से मेरे सूरत के दिग्गज हिन्दी साहित्य प्रेमी से परिचय हुआ जिसमे कवयत्री व लेखिका दीदी पूनम गुजरानी जी , कवयत्री मनीषा जी ,कवयत्री रश्मि जी , कवयत्री एकता जी , कवयत्री सोनल जी , कवयत्री उर्मिला उर्मि जी , कवि अभिषेक जी , कवि सुरेन्द्र जी , कवि विनोद जी (वीनू) , राज शर्मा जी , प्रदीप जी जोशी आदि आदि बहुत से साहित्य प्रेमी से सदेव प्यार व अपनत्व मिला मुझे कुछ नया सीखने को मिला व काफी मित्रो की अनुमोदना से हमेशा कुछ नया ब्लॉग के माध्यम से लिखने को प्रेरित होता हु ! जिनको लगता है कि ब्लाग पर लिखा गया साहित्य नहीं है उनको ही इस प्रश्न का उत्तर ही ढूंढना चाहिए। पहले गैर अंतर्जाल लेखकों की चर्चा कर लें। वह आज भी प्रकाशकों का मूंह देखते हैं। उसी को लेकर शिकायत करते हैं। उनकी शिकायतें अनंतकाल तक चलने वाली है और अगर आज के समय में आप अपने लेखकीय कर्म की स्वतंत्र और मौलिक अभिव्यक्ति चाहते हैं तो अंतर्जाल पर लिखने के अलावा कोई चारा नहीं है। वरना लिफाफे लिख लिखकर भेजते रहिये। एकाध कभी छप गयी तो फिर उसे दिखा दिखाकर अपना प्रचार करिये वरना तो झेलते रहिये दर्द अपने लेखक होने का। अब साहित्य के बारे मे अपने विचार आप तक संप्रेषित करना चाहूँगा ----
साहित्य एक लोकधर्मी विधा है और समाज में समरसता, सहिष्णुता, सहअस्तित्व और सौहार्द्र बनाये रखने में इसकी भूमिका से कोई इंकार नहीं कर सकता। हमारे लोक साहित्य से वर्तमान साहित्य तक इसी भावना से प्रेरित रहे हैं। आज भी जन-जन में साहित्य की वो धारा चाहे कथा के रूप में हो, गीत के रूप में हो, धार्मिक या लोकोक्तियों के रूप में हो, बहुतायत में आज भी लोगों की जुबान पर विद्यमान है। साहित्य के इसी महत्व को देखते हुए हजारों साल पूर्व से ही हमारे देश में बच्चों को दादी नानी द्वारा कहानी सुनाने की परम्परा रही थी जिसके माध्यम से उनके अन्दर नैतिक मूल्य, उच्च जीवन आदर्श, प्रकृति और पर्यावरण, के साथ क्षमा, दया, करुणा, शील, शिष्टाचार, जैसे अच्छे संस्कार विकसित संरक्षित और स्थापित किये जाते रहे जिससे समाज में प्रेम और सौहार्द्र की भावना बनी रही। पर वर्तमान में इस लोक शिक्षण की लुप्त होती प्रवृत्ति ने इस भावना को बहुत चोट पहुचायी है परिणाम स्वरुप आज समाज में विद्वेष और विखंडनवादी शक्तियां प्रबल हो गयी हैं और सामाजिक समरसता और सौहार्द्र चरमरा गया है। लोकहित की इस भावना को आधुनिक हिंदी साहित्य ने भी आत्मसात किया तथा अनेक जन आन्दोलनों और समाज सुधार की आवाज बनी है। साहित्य शब्द को परिभाषित करना कठिन है। जैसे पानी की आकृति नहीं, जिस साँचे में डालो वह ढ़ल जाता है, उसी तरह का तरल है यह शब्द। कविता, कहानी, नाटक, निबंध, जीवनी, रेखाचित्र, यात्रा-वृतांत, समालोचना बहुत से साँचे हैं। परिभाषा इस लिये भी कठिन हो जाती है कि धर्म, राजनीति, समाज, समसमयिक आलेखों, भूगोल, विज्ञान जैसे विषयों पर जो लेखन है उसकी क्या श्रेणी हो?
क्या साहित्य की परिधि इतनी व्यापक है?
संस्कृत के ही एक आचार्य कुंतक व्याख्या करते हैं कि जब शब्द और अर्थ के बीच सुन्दरता के लिये स्पर्धा या होड लगी हो, तो साहित्य की सृष्टि होती है। केवल संस्कृतनिष्ठ या क्लिष्ट लिखना ही साहित्य नहीं है न ही अनर्थक तुकबंदी साहित्य कही जा सकेगी। वह भावविहीन रचना जो छंद और मीटर के अनुमापों में शतप्रतिशत सही भी बैठती हो, वैसी ही कांतिहीन हैं जैसे अपरान्ह में जुगनू। अर्थात, भाव किसी सृजन को वह गहरायी प्रदान करते हैं जो किसी रचना को साहित्य की परिधि में लाता है।
कितनी सादगी से निदा फ़ाज़ली कह जाते हैं----
मैं रोया परदेस में, भीगा माँ का प्यार
दुख नें दुख से बात की, बिन चिट्ठी बिन तार।
यहाँ शब्द और अर्थ के बीच सादगी की स्पर्धा है किंतु भाव इतने गहरे कि रोम रोम से इस सृजन को महसूस किया जा सकता है। यही साहित्य है। साहित्य शब्द की चीर-फाड करने पर एक और छुपा हुआ आयाम दीख पडता है वह है इसका सामाजिक आयाम। बहुत जोर दे कर एक परिभाषा की जाती है कि “साहित्य समाज का दर्पण है”। रचनाकार अपने सामाजिक सरोकारों से विमुक्त नहीं हो सकता, यही कारण है कि साहित्य अपने समय का इतिहास बनता चला जाता है।
अपने समय पर तीखे हो कर दुष्यंत कुमार लिखते हैं:---
कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये।
न हो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिये।
संक्षेप में “साहित्य” - शब्द, अर्थ और भावनाओं की वह त्रिवेणी संगम है जो जनहित की धारा के साथ उच्चादर्शों की दिशा में प्रवाहित है।
लेखक - उत्तम जैन ( विद्रोही )
संपादक - विद्रोही आवाज

No comments:

Post a Comment