Friday 24 August 2018

जब श्री राम को हुआ सत्ता का धमंड

श्री राम लंका विजय के बाद वापस अयोध्या आ गये थे | भरत ने उन्हें राज्य गद्दी  सौप दी थी  | लक्ष्मण ने अपने बड़े भाईराम की  आज्ञा से माता सीता को जंगल में छोड़ आये थे |
आज अयोध्या में  हर्षो उल्लास का माहौल था , क्योंकि श्री राम अश्वमेध यज्ञ की घोषणा करने वाले थे |प्रजा राज महल के सामने एकत्रित  थी | श्री राम अपने मंत्रीयों और कूल गुरु वसिष्ठ  के साथ पधार चुके थे | तभी किसी के ह्रदय विदारक चीख ने सबको चौका दिया | एकबार सब अन्दर तक कांप  गए | इस शुभ घडी में कैसा करुण क्रंदन ?
"एक ब्राह्मण अपने मृत पुत्र के शरीर को लेकर आया था और छाती पीट पीट कर रो रहा था |
"महाराज , वह आपको ..."कहते कहते द्वारपाल रुक गया |
"रुक क्यों गए द्वारपाल ,"राजा राम नें आश्चर्य से पूछा |
"महाराज ,वह क्षुब्ध हो कर बेकार की बात कर रहा था | वह आपको हो अपने पूत्र की मृत्यु का कारण बता रहा था | "
सबने सुना  |सब  स्तब्ध थे | श्री राम के  मुख पर क्रोध की रखायें खिंच आयीं | उन्होंने अपने चारों ओर देखा | उनका मुख खुलता इसके पहले सैनिकों की विशाल भुजाओंसे जकड़ा  हुआ एक ब्राह्मण राम के सामने खड़ा था | उसकी ऑंखें स्थिर थी ,पर मुख फेन से भरा था | उसने श्री राम को सर से पाँव तक देखा और अपने पुत्र के मृत शरीर को धरती पर रख कर चिल्ला उठा ,"राम,आज तक पिता के रहते कोई भी पुत्र मृत्यु को प्राप्त नहीं हुआ| तुम्हारे राज्य में पाप और अधर्म ऐसे पनप रहे हैं जैसे वर्षा ऋतू में धान. मैंने अभी तक ऐसा कोई कार्य नहीं किया हैं जिसका कारण पुत्र शोक हो|   ऐसी अनहोनी घटनाएँ अधर्मी ,पापी और अयोग्य राजा के राज में ही  होती है । तुम मेरे पुत्र के हत्यारे हो राम  |"  उस ब्राह्मण का गला रुद्ध गया |   
वह अपने पुत्र के शरीर को उठाया और विधुत गति से राज महल से बहार चला गया |सारा जन समूह पत्थर की तरह खड़ा रहा   | राम की आँखों के सामने अँधेरा सा  छा गया|  इस समय इनकी  दशा उस वृक्ष के समान थी जो , भयंकर तूफान में खुद को स्थिर रहने का प्रयास कर रहा हो  और उसकी शाखाएँ धरती को छूना चाह  रही हो ,धरती से उखड़ जाना चाहती हो |
महर्षि नारद आगे बढे | निस्त्ब्धा को तोड़ते हुए उन्होंने  कहा ,"राम ,धर्मशास्त्रों के अनुसार तप और जप से मोक्ष से लाभ का अधिकार केवल ब्राह्मण ,क्षत्रिय तथा वैश्य को है इस सतयुग में निश्चय ही कोई पटकी शुद्र अपने दास धर्म को त्याग कर मोक्ष के लिए तपस्या कर रहा है|  "



इनकी बात सुनकर राम की जान में जान आई | उन्होंने कृतज्ञता से नारद की देखा ओर उसके बाद शस्त्रों से सुसज्जित सेनापति की ओर देखा और उच्चे स्वर में कहा ,"सेनापति ,मुझे पाप और अधर्म का मर्दन करना है | सैनिकों से कह दी कि कल सूर्योदय के पहले ही इस अयोध्या को प्रस्थान करना है   |"
राम अपनी चतुरंग्नी सेना केसाथ  ध्वजा से सुसोभित स्वर्ण रथ पर उस अद्भुत और अप्रितम हरे भरे पर्वतों के गोद में समा चुके थे , जहाँ के मनोहर छटा देखकर राम का हृदय गदगद हो गया | सुखद पवन के झोकों से उनका रोम रोम खिल उठा था | उन्होनें दूर गगन चुम्बी धवल चोटी की ओर इशारा करते हुए कहा ,"सेना पति ऐसा जान  पड़ता है कि हम महामुनि नारद द्वारा बताएं प्रदेश में आ चुके हैं "
 सेना पति ने एक बार अपने चारों ओर देखा | ऐसा लग रहा था मानो इस रमणीक दृश्य को अपने आँखों में समा लेना चाहता हो | उसने धीरे धीरे अपने नेत्रों को खोला और कहा ,"महाराज ,यहाँ के पर्वतों का सौंदर्य और वनों की शोभा स्वर्ग जैसा है | यहाँ तो राक्षस भी अपनी राक्षसी प्रवृति छोड़ कर तामस जीवन जीने को लालायित हो जायेगा   अवश्य ही महाराज नारद को कोई भरम हुआ होगा |  "
कुछ पल के लिए सब चुप रहें  घोड़ो की  पद ध्वनि और रथों के पहीये के गडगडाहट के अलावा वहां कुछ सुनाई नहीं दे रही थी
श्री राम ने पर्वतों की गोद में फैलें उन झोपड़ों को देखा और कहा ,"राजगुरु ,वहां सुदूर मनोहर लातिकायों और फूलों से ढाका झोपड़ियों का झुण्ड कैसा है ?"
" कोई ऋषि का आश्रम होगा महाराज | " राज गुरु वसिष्ठ ने उत्तर दिया |
"कैसा शांति का राज्य है ",राम ने कहा और सेना पति को आदेश दिया कि ऋषि आश्रम में हमारे आने की सूचना दे दी जा य | "
जैसे श्री राम के आने के  सन्देश  मिला  ,वृद्ध तपस्वी की एक  टोली  अतिथि सत्कार के लिए  निकल पड़ी | श्री राम अपने रथ से उतरे | उनके साथ रथ पर सवार अन्य गण भी उतरे | राम ने उन वृद्ध तपस्वी को सर झुकाकर प्रणाम किया |
"तपस्वियों ,आपके आश्रम की शोभा अपूर्व है | मैं इस आश्रण के अधिष्ठता के दर्शन करना चाहता हूँ |"श्री राम ने कहा |
राजन  , यह आश्रम चारों वेदों और धर्म  शास्त्रों के प्रकांड विद्वान महर्षी शम्बूक का है हम सब उन्हीं के छत्रछाया में विधा उपार्जन करते हैं  " एक वृद्ध तपस्वी ने कहा |
श्री राम अति प्रसन  हुए और शम्बूक से मिलने चल दिए
कोलाहल सुनकर ध्यानमग्न  महर्षि शम्बूक  का नेत्र पट धीरे -धीरे खुले | श्री राम ने झट आगे बढ़ कर प्रणाम किया और कहा ,"महर्षि मैं दशरथ पुत्र  राम हूँ , आपके आश्रम की  अनुपम शोभा देख कर आपके दर्शनो की अभिलाषा हुयी आपका वंश कौन सा  है ?"
शम्बूक ने खड़े हो कर श्री राम को आशीर्वाद दिया और कहा ,"राम , मैं शम्बूक हूँ  मैं शुद्र हूँ |"
सुनते ही राम की  ऑंखें गुस्से से लाल हो गयी  उनकी भवें धनुष के सामान तन गयी | उन्होंने खडग पर हाथ रखते हुए कहा "शुद्र , तुमनें ब्राह्मण बनने की धृष्टता की है तेरा अपराध अक्षम्य है "
| शम्बूक ने निभिकता से  सर उठाया | उसके मुख परअलौकिक तेज़ था उसने चकित हो कर पूछा ,"कैसा अपराध महाराज ?"
श्री राम ने सर ऊँचा उठाकर  कहा ,"मुर्ख ,तूने धर्मं के नियमों का तोड्नें का दुसाहस किया है | तूने परम्परा और सामाज के विरोध विद्रोह किया हैं  |तूने शुद्र का सेवा धर्मं त्याग कर द्विज बनाने का जघन्य पाप किया हैं  तेरे ही पाप के कारण मेरे राज्य में उस ब्राह्मण का पुत्र अल्पायु में मृत्यु को प्राप्त हो गया है  राज्य दंड के अनुसार तू मृत्यु दंड का भागी है |"
शम्बूक का मुख रक्त के सामान लाल हो गया  उसका कृश शरीर बेल के भांति कांप उठा | उसके होंठ आँधियों में सूखे पत्ते की तरह कांप रहे थे शम्बुंक ने सागर की तरह गंभीर गर्जन करते हुए कहा ,"राम,तुम थोडा अपने मन के दर्पण में झांक कर देखो आज से कुछ वर्ष पहले के आकृति में और आज के आकृति में कितना फर्क हैं |
 दंभ और अज्ञान के अंधकार से कुछ क्षण के बहार निकल कर देखो तुम्हें खुद पता लग जायेगा कि  तुम कितना भ्रष्ट हो गए हो    मैंने सपनों में भी कभी नहीं सोचा थे कि दशरथ पुत्र राम का इतना नैतिक पतन हो जायेगा  और वह अपने कुकर्मो का फल दूसरों के उपर  लाद कर राजदंड की आर में तपस्वी की हत्या करने के लिए उद्धत हो जायेगा | |ब्राह्मण लड़के के मृत्यु का कारण मैं नहीं तुम खुद तुम हो राम | तुम्हारे अपने पाप कर्म है | "
श्री राम का ऊँचा उठा हुआखड्ग  धीरे धीरे नीचे  हो गया  उन्होंने त्रस आँखों से वसिष्ठ  और आस पास खड़े हुए ऋषियों की ओर देखा |
"मेरे पाप कर्म | "राम के मुख से आनायास ही निकल पड़ा |
शम्बूक ने एक बार राज गुरु वसिष्ठ की ओर देखा और स्वाभिमान से कहा ,"हा तुम्हारे पाप कर्म |धर्म कर्म को त्याग कर तुम्हारे राजमहल के स्वादिस्ट भोजन पर पलने वाले ये ब्राह्मण और ऋषिजन तुम्हें क्या बताएगें | ये तो अचेतन वाद्यों के समान है जो तुम जैसा राग छेड़ते हो वैसा ही अल्पाते हैं।  "
इस आसहा प्रहार से राज गुरु वसिष्ठ क्रोधित हो उठे |
शम्बूक के मुखमंडल पर आत्म बल के अलौकिक तेज़ चमक रहा था  | उसने राम को देखते हुए कहा ,"राम ,तुम उस सर्प की तरह हो जो धोखे से किसी राही को डंस लेता है तुमने बालि और सुग्रीव को मल युद्ध में व्यस्त कर सात वृक्षों की आर में बालि को मार डाला | तुमने क्षत्रिय होकर क्षात्र धर्म का पालन नहीं किया |  उस समय किसी ब्राह्मण का पुत्र नहीं मारा | और आज मैं वेदशास्त्रों का अध्ययन ,समाज के सड़े हुई अंग की सेवा शुश्रषा तथा पशुयों से भी अधिक घृणित शूद्रों के उत्थान को चेष्टा को अपराध कह कर तुम मेरी हत्या करना चाह रहे हो | "
सुनकर सब अवाक् रह गए , महाज्ञानी कुलगुरु वसिष्ठ कुछ कदम आगे बढे और चोट खाए हुए सर्प की तरह फुफकारे ,"शुद्र छोटे भाई की पत्नी पुत्री के समान होती है   | बालि ने पशुबल का सहारा लेकर सुग्रीव की पत्नी के साथ गलत सम्बन्ध स्थापित किया | इस कुकृत्य का सजा तो मिलनी ही चाहिए थी | "
शम्बूक के होठों पर एक परिहास की रेखा खींच  आई   | उसने वसिष्ठ को पैनी नज़रों से देखते हुए कहा ,"और जयेष्ट भाई की पत्नी ?"
वसिष्ठ ने तुरंत उत्तर दिया ,"माता के सामान | "
शम्बूक ने गर्व से सर उठाकर कहा ,"राम द्वारा बड़े भाई का वध करवा कर जब सुग्रीव ने बड़े भाई  की पत्नी को भोग विलास की वस्तु बनाकर महल में रखा तब तुम्हारी मर्यादा कहाँ थी तब तुम्हारे  बाण कहाँ थे " ,शम्बूक पल भर के लिये चुप रहा , राम की आँखों में आँख डाल कर कहा ,"सच तो यह था कि तुम दोनों की पत्नियों का हरण हो चूका था. तुम दोनों की समस्या एक ही थी तुम दोनों एक दुसरे के दुःख को समझाते थे  महाबली बलि का सामना करना तुम्हरे बस की बात नहीं थी   |  इस लिए तुमने मर्यादा की आर में उसकी हत्या कर डाली।"
"अपनी जहर उगलती जिह्वा को रोको शम्बूक अन्यथा मेरा यह खड्ग तुम्हारे टुकड़े टुकड़े कर डालेंगें। "राम क्रोध से कांप रहे थे।
"अपने अपराधों को सुनने के लिए धैर्य चाहिए राम।  तुम सत्य को झूठे तर्क से नहीं कुचल सकते।  तुमने अपने पाप की कलिमा को हमेशा  खून से धोया है। तुम्हारे लिये धर्म ,मर्यादा  कोरा पत्थरों की तरह है ,जिन्हें  तुमने अपनी बुद्धि की पैनी छेनी और राज धर्म के भारी भरकम हथोड़े से अपने स्वार्थ हित के मनचाही आकृतियों में गढ़ कर भोली प्रजा  के समाने प्रदर्शित कर दिया है|  तुमने प्रजा की आड़ में एक धोबी  के कहने पर अपनी साध्वी पत्नी सीता का त्याग कर दिया। "
राम ने गर्व से सीना उठाकर कहा ,"मैं अपने हर काम को बुद्धि की कसौटी पर कसकर निश्चय करता हूँ। भावना कर्तब्य से ऊँचा होता है शुद्र। "शम्बूक ने राम को अधखुले नेत्रों से देखा ,"राम कम से कम निज से छल तो न करो।तुम हर एक काम अपनी निज की कसौटी पर कस के करते हो। तुमने अपनी गर्भवती पत्नी को क्रोधान्ध धोंबी के कहने पर घर से निकल दिया यदि राजा के नाते प्रजा का संतुष्ट करना तुम्हारा कर्तब्य है। पत्नी और  पुत्र के प्रति यदि तुम्हारी  धर्म भावना है,तो जब भरत प्रजाजनों ,,मित्रों और सम्बन्धियों के साथ तुम्हीं वन  से लौटा लेने के लिये गए  तो उस समय प्रजा की अनुनयविनय को तुम ने यह कह कर क्यों ठुकरा दिया कि पिता की आज्ञापालन करना मेरा कर्तब्य है और मित्रों ,सम्बन्धियों तथा प्रजा की इच्छा सब कोरी भावना है। "
"वह धोबी का आक्षेप नहीं था शुद्र। वह मेरी निश्चय के विरुद्ध प्रजा के मन में उठती हुई अशांति का प्रतिक संकेत था। "
शम्बूक ने कहा ,"वह प्रजा के मन की नहीं वह तुम्हारे मन की अशांति थी। वह तुम्हारे संकुचित औरअंधकार मन का भ्रम  था.|  तुमने सीता को हजार मनुष्यों के बीच  अग्नि परीक्षा लेकर अपमान किया और कहा कि तुमने एक तुच्छ नारी केलिए  वनों,पहाड़ों और सागरों को पार किया। अपितु तुमने अपने अपमान के बदला लेने के लिये ये सब किया। उस समय तुम्हारे खिलाफ एक संगठित आवाज उठी। तुम झट समझ गये और ऋषियों और मुनियों की एक आवाज से सीता को अमृत के समान पवित्र माना।तुमने यश लाभ के लिए सीता को ग्रहण किया। परन्तु तुम्हारे मन में संशय का बीज तुम्हारी कमजोरियों की खाद पा कर प्रतिदिन फूलनेफलने  लगा और एक दिन वह वृक्ष इतना बड़ा हो गया कि उसकी सघन शाखाओं ने तुम्हारे ज्ञान के प्रकाश को ढक लिया।  तुम बहाना ढूंढते  रहे और एक दिन प्रजा की आड़ में तुमने अपनी गर्भवती स्त्री को  हिंसक पशुओं की दया पर अपरचित  धने वन में छोड़ दिया।  तुमने जब पति धर्म का त्याग किया तब किसी ब्राह्मण का पुत्र अल्पायु में नहीं माराऔर आज मैं युगों युगों से दासता की श्रृखलाओं में जकड़ें हुए इन शुद्र कहे जाने वाले जनों के अंधकारमय जीवन को आलोकित करने के  प्रयास को तुम ब्राह्मण पुत्र की मृत्यु का कारण  बता रहे हो। "
"मुख बंद करो, शुद्र।"श्री राम घायल सिंह कीतरह  गरजे। उनकी आँखें लाल हो उठी थीं ।  बिजली की तरह चमकता  खड्ग म्यान से बहार निकल आया।
शम्बूक श्री राम सम्मुख खड़ा हो गया |उसके सीने  पर खड्ग की तीखी नोख थी । उसने निडरता से कहा ,"राम ,तुम राजसुख भो रहे हो और तुम्हारे दो पुत्रअनाथों की तरह  वन में दुसरे की दया पर जी रहे हैं । एक संतान के प्रति तुम्हरा पितृ धर्म कहा गया . | राम तुमने क्षत्रिय हो कर क्षात्र धर्म का  पालन नहीं किया। तुमने गृहस्थ होकर गार्हस्थ्य धर्म को त्याग किया।  तब किसी ब्राह्मण का पुत्र अल्पायु में नहीं मारा। आज.... . |
श्री राम की भौंहें तन गईं । उनकी ऑंखें लाल हो गईं ।  वह क्षुब्द होकर बोले,"एक शब्द भी तुम्हारे मुख से और निकला तो....... . "
मुझे धमकाने की चेष्टा मत करो ,राम मुझे मृत्यु का भय  नहीं है। यश और और स्वतंत्रा का लघु जीवन दासता और अपमान से भरी हुई दीर्घ आयु से लाख बार अधिक सुखकर होता है। तुम्हारे खड्ग द्वारा मेरा वध  मुझे सीधा स्वर्ग ले जायेगा ,इसलिए नहीं की तुम  मर्यादा पुरुषोतम राम हो ,बल्कि इसलिए की मैं सत्य पर हूँ और  तुम अधर्म ,पाखंडी ,राजदंड के बल पर भोले भले पंक्षियों का शिकार खेलने वाले एक व्याध हो। "
श्री राम के  खड्ग शम्बूक के ह्रदय स्थल को बेधता हुआ उसके कृश  शरीर के दूसरी ओर निकल गया।  श्री राम ने झटका दे कर खून से लथ  पथ खड्ग खींच लिया और फिर सिर से ऊँचा उठा कर एक भर पुर हाथ शुद्र के शरीर पर मारा। पलक झपकते ही शम्बूक का शरीर धड़ से दूर जा गिर गया। आश्रमवासियों की आँखें शम्बूक के धुलधुसरित सिर पर गड़े हुए थी । मरघट के सन्नाटे को भंग करता हुआ महामुनि वसिष्ठ की जुबान से "महाबली राम की जय "का घोष ऊँचें पर्वतों से टकरा कर गूंज उठा। एकाएक गगन भेदी आवाजें उठीं ,मानों फटे हुए झांझ पर किसी राक्षस ने दनादन गदा प्रहार कर दिया हो। श्री राम के सैनिक चिल्ला उठे ,"अयोध्यापति राम की जय !मर्यादा पुरुषोतम राम की जय  !महाबली राम की जय !राम की जय! "
 

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