Sunday, 23 December 2018

कडवे घूंट जीवन के ---उत्तम जैन ( विद्रोही )

कडवे घूंट जीवन के ---
हमारी वर्तमान दशा व दिशा सिर्फ अपने कारण से होती है इस दशा मे मुख्य कारण एक चिंता व नकारात्मक भाव है !चिंताओं का विश्लेषण किया जाए तो ४०%- भूतकाल की, ५०% भविष्यकाल की तथा १०% वर्त्तमान काल की होती है ! इस स्वीकार भाव से ही हमारे भाव बदलने शुरू होते हैं। रोग का जन्म ही नकारात्मक भावनाओं में है । विकृत भाव व चिन्तन रोग के माता-पिता है । हम भावनाओं में जीते है । उन्हे बदल कर ही हम सुखी हो सकते है । आज अधिकतर लोग चिन्ता से चिन्तित रहते हैं। पिता को अपनी बेटी की शादी की चिन्ता है। एक गृहिणी को पूरा महीना घर चलाने की चिन्ता है। एक विद्यार्थी को अच्छे अंक प्राप्त करने की चिन्ता है। एक मैनेजर को अपने प्रोमोशन की चिन्ता है। एक व्यापारी को अपने व्यापार में लाभ कमाने की चिन्ता है। एक नेता को चुनाव से पहले वोट लेने और जीतने की चिन्ता है। किसी को अपनी सफलता की दावत देने की चिन्ता है।न जाने इंसान कितनी चिंताओ से ग्रसित रहता है लोगों ने जाने-अनजाने में अपनी जिम्मेदारी के साथ चिन्ता को भी जोड़ दिया है। क्या हर जिम्मेदारी के साथ चिन्ता का होना आवश्यक है? क्या चिन्ता किए बिना जिम्मेदारी का निभना संभव नहीं है? एक मां अपने बच्चे से कहती है, 'तुम्हारी परीक्षा सिर पर आ गई है, अब तो चिन्ता कर लो।' बच्चा शायद समझदार है। वह चिन्ता नहीं करता, पढ़ाई करता है और अपनी परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाता है। जिम्मेदारी है पॉजिटिव और चिन्ता करना है नेगेटिव। हम जब जिम्मेदारी को निभाते हैं तो हमारी ऊर्जा पॉजिटिव काम में लगती है और हमें लाभ देती है। लेकिन जब हम चिन्ता करते हैं तो हमारी ऊर्जा नेगेटिव काम में लगती है और नष्ट हो जाती है। मान लो यदि हमारी 20 प्रतिशत ऊर्जा चिन्ता में चली जाती है तो जिम्मेदारी को निभाने के लिए कितनी बची? यदि साधारण हिसाब की बात करें तो बचती है 80 प्रतिशत। लेकिन यदि हम गहराई में जाएं तो परिणाम कुछ और ही होगा। चिन्ता है नेगेटिव और जिम्मेदारी है पॉजिटिव। जब दोनों एक साथ होंगे तो एक दूसरे की विपरीत दिशा में काम करेंगे। जिस तरह 'टग ऑफ वार' खेल में दो विभिन्न समूह एक मोटे रस्से को दो विपरीत दिशाओं में खींचते हैं तो एक समूह की सामूहिक ऊर्जा, दूसरे समूह की सामूहिक ऊर्जा के साथ बराबर हो जाती है। उसके बाद जिस समूह के पास थोड़ी ऊर्जा ज्यादा बचती है, उसका पलड़ा भारी हो जाता है और वह विजयी घोषित किया जाता है। इसी तरह चिन्ता और जिम्मेदारी के मध्य भी चलता है 'टग ऑफ वार'। यदि 20 प्रतिशत ऊर्जा चिन्ता के पास है तो उसे बराबर करने के लिए 20 प्रतिशत ऊर्जा जिम्मेदारी की ओर से खर्च करनी होगी। इस तरह हमारे पास जिम्मेदारी निभाने के लिए बचती है सिर्फ 60 प्रतिशत ऊर्जा। जितनी ऊर्जा हम लगाएंगे, परिणाम भी वैसे ही आएंगे। 100 प्रतिशत ऊर्जा लगाने के परिणाम अधिक और अच्छे होंगे और 60 प्रतिशत ऊर्जा लगाने के परिणाम कम ही होंगे। लेकिन लोगों को लगता है कि काम चल जाएगा। यदि हमारी 50 प्रतिशत ऊर्जा चली गई चिन्ता की ओर तो चिन्ता शेष 50 प्रतिशत ऊर्जा भी खींच लेगी जिम्मेदारी से। और इस तरह हमारे पास अपनी जिम्मेदारी निभाने के लिए कोई ऊर्जा बचेगी ही नहीं। जब ऊर्जा न हो तो अच्छा से अच्छा उपकरण भी काम नहीं कर पाता। फिर हमारा दिमाग भी बिना ऊर्जा के काम कैसे कर सकता है। हम बहुत छोटी-छोटी जिम्मेदारियां भी नहीं निभा सकते और स्वयं से कहते हैं, 'ये मुझे क्या हो गया है, मेरा दिमाग ही काम नहीं कर रहा।' चिन्ता हमारी ऊर्जा को नष्ट कर देती है, जिससे हम अपनी जिम्मेदारी को निभाने में अपने आप को असमर्थ महसूस करते हैं। हम अपनी जिम्मेदारी से नाता नहीं तोड़ सकते। हमें अपनी जिम्मेदारी को निभाने के लिए ऊर्जा चाहिए। इसलिए यह हमारी सबसे बड़ी जरूरत है कि हम अपनी ऊर्जा को चिन्ता में नष्ट होने से रोकें। हमें चिन्ता न करने का अभ्यास करना है। लेकिन कोई भी अभ्यास करने के लिए आवश्यक है अभ्यास करने का अवसर। प्रतिदिन हमारे पास अनगिनत समस्याएं आती हैं, जिनके लिए हम चिन्ता करते हैं। तो हर समस्या आने पर स्वयं से बात करें कि चिन्ता करने पर मेरी मूल्यवान ऊर्जा नष्ट हो रही है, जो मुझे नहीं करनी। सिर्फ अपने मन को इस बात की याद दिला कर भी हम अपनी काफी ऊर्जा नष्ट होने से बचा सकते हैं।
यदि आप चिन्ता मुक्त होना चाहते है तो आपको सकारात्मक विचारों को अपने जीवन में लाना पड़ेगा । चिन्ता जन्मजात नहीं होती है । ये एक आदत है जो पड़ जाती है । जब हम इस आदत को मजबूत बना लेते है तो इसको तोड़ना मुश्किल पड़ जाता है । यदि हमको पता चल जायें कि चिन्ता से डर का जन्म होता है और डर एक बहुत भयानक वस्तु है जो आपको मुर्त्यु का ग्रास बना सकती है!
उत्तम जैन (विद्रोही )

Tuesday, 11 December 2018

विधानसभा चुनाव नतीजे कांग्रेस को मोका तो भाजपा को संदेश

अभी हाल मे पाँच विधानसभा चुनाव नतीजे कांग्रेस को मोका तो भाजपा को संदेश की द्रष्टि से देखना उचित होगा ! तीनों राज्यो राजस्थान , मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ के चुनाव भाजपा व कांग्रेस के लिए मुछ की लड़ाई बने हुए थी ! ऊपरी तोर पर कयास भी यही था इस बार सत्ता विरोधी लहर काम करेगी ! मतदान के बाद सर्वेक्षणो मे भाजपा की स्थिति मजबूत लग रही थी ! भाजपा ने विशेष कर मध्यप्रदेश व राजस्थान मे अपना किला बचाने मे कोई कसर बाकी नहीं रखी वंही   छत्तीसगढ़  भाजपा को विश्वास था छत्तीसगढ़ की जनता मुख्यमंत्री रमण सिंग के कामकाज से लोग संतुष्ट है इसलिए वहा ज्यादा ज़ोर लगाने की जरूरत नहीं समझी ओर सबसे बड़ी पटखनी भाजपा को वंही से मिली ! इतनी बड़ी पराजय का अंदेशा शायद किसी को नहीं था !पिछले  लोकसभा चुनावो भाजपा  ने जो विजय का परचम लहराया था वह जीत भाजपा की नहीं थी वह विकास के सपनों की जीत थी आम जनता को  हमारे देश मे विकास के सपनों के रूप मे सिर्फ  नरेंद्र मोदी जी नजर आ रहे थे ओर जनता ने मोदी जी के नेतृत्व मे भाजपा को एतिहासिक विजय व समर्थन दिया ! मोदी जी ने काफी हद तक विकास भी किया मगर कुछ फेसले पर उनके होने वाले  परिणामो को नजर अंदाज कर के लिए गए न उसकी पूर्व तेयारी की गयी ओर आनन फानन मे फेसले ले लिए गए जिसके कुछ दुष्परिणाम भी सामने आए ! मोदी जी की विदेश नीति बेशक अच्छी रही विदेशो मे भारत की साख मे काफी हद तक बढ़ोतरी हुई ! इस चुनाव मे सबसे दिलचस्प नतीजे मध्यप्रदेश मे आए आखिरी समय तक बहुमत के पास पहुँचकर भाजपा कांग्रेस आगे पीछे चलती रही बहुत सी सीटो पर मामूली मतो का अंतर रहा बहुत से दिगज धराशाही हुए तो बहुत दिगज्ज मामूली अंतर से जीत पाये ! आखिरकार कांग्रेस बहुमत के निकट पहुँच पायी ! मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री श्री शिवराज चोहान काफी लोकप्रिय मुख्यमंत्री रहे मगर किसानो की अवेहलना व व्यापम घोटाला उनके लिए कठिन साबित हुआ हालांकि विधानसभा के नतीजे प्रायः लोकसभा की तस्वीर पेश नहीं करते पर आम चुनाव मे महज पाँच महीने बचे है इसलिए  राजस्थान , मध्यप्रदेश व छत्तीसगढ़ के चुनाव वंहा   की  जनता    मिजाज का संकेत तो देते  है
पूर्व मे गुजरात चुनावो मे भाजपा को चुनाव जीतने के लिए काफी पसीना बहाना पड़ा इन सभी संकेतो पर अगर हम मंथन करे तो अब जनता न झुमले पसंद करती है न चुनावी वादे जनता को सिर्फ विकास , रोजगार चाहिए वर्तमान भाजपा सरकार को इन विधानसभा चुनावो ने साफ संकेत दिया है आज भी जनता को नरेंद्र मोदी जी से अपेक्षा है उन्हे आत्मवलोकन करने के लिए मोका दिया है की 2019 के चुनाव निकट है मंदिर मस्जिद , आरोप प्रत्यारोप की राजनीति से दूर रहकर विकास की ओर अग्रसर होना है ! हिंदुस्तान की जनता का शिक्षा का स्तर बढ़ा है शोशल मीडिया जब से सक्रिय हुआ ओर आम जनता उसका उपयोग करने लगी है मतदान अब रुपयो व शराब व प्रलोभन पर कम ओर अन्तर्मन की आवाज पर ज्यादा होता है ! जनता जागृत हुई है अगले 2019 आम चुनाव मे हमारे देश का   नेता उन्हे ही चुनेगी जो विकास की ओर अगसर होगा ! अब समय है दोनों मुख्य पार्टी सबक ले की सिर्फ भाषणबाजी से जीत का परचम नहीं लहरेगा आम जनता व किसानो के हित को देखते हुए विकास की ओर अग्रसर होना पड़ेगा ! कांग्रेस जीत का जश्न मनाने मे ही न लगी रहे उनके द्वारा किए गए वादे पूरे करने होंगे आम जनता की नब्ज टंटोलनी होगी की आम जनता क्या चाहती है सिर्फ इस जीत के आधार पर आम चुनाव मे मे सफलता मिल जाएगी इस सपने मे न रहे जनता ने मोका दिया है जनता की अपेक्षा व उसकी कसोटी पर खरा उतरना होगा ! आज भी जनता को मोदी जी से काफी अपेक्षा है मोदी सरकार स्वयम मंथन करे अपनी कमियो को सुधारे देश की अर्थव्यवस्था की दो मूल रीढ़ की हड्डी किसान व व्यापारियो के हित को देखते हुए अमूलचूक परिवर्तन करे ! सरल नीतीय बनाए अब सिर्फ कश्मीर मुद्दे , मंदिर मस्जिद मुद्दे , आरक्षण व झुमलों पर  सत्ता पर काबिज नहीं हो सकते यही  कांग्रेस को मोका तो भाजपा को संदेश है  अब देखो ऊंट किस करवट बेठता है  
लेखक - उत्तम जैन ( विद्रोही ) 
संपादक - विद्रोही आवाज   

Monday, 26 November 2018

हम उन प्रत्याशी का समर्थन करते है जो धर्म संस्कृति के पक्षधर है - अक्षय जैन


इंदौर। विधानसभा चुनाव के इस महासंग्राम में पहली बार जैन समाज अपनी वोट बैंक राजनीतिक दलो को एहसास करवाने में लगा है। मध्य प्रदेश राजस्थान और छग में करीब साढ़े आठ लाख मतदाता जैन है। इसी संख्या बल को रेखांकित कर इस चुनाव में जैन सिद्धांत समर्थन करने वाले प्रत्याक्षियो के पक्ष में मतदान की अपील सोशल मिडिया और समाज के प्लेटफार्म पर आंतरिक बैठक लेकर की जा रही है। जानकर सूत्रो की माने तो करीब चालीस जैन सन्त समुदाय के दिशा निर्देशो पर जगह जगह उम्मीदवार के साथ जैन सिद्धातों के पक्ष रखने वाले प्रत्याशी का समर्थन की रणनीति बनाई गई ।
जैन धर्म अनुयायियों के बीच अब यह धारणा घर कर गई है कि भारतीय राजनीती में जातिगत समीकरण आधारित नफे नुक्सान की हो चली हे ऐसे में हमे अपने अस्तित्व पर फोकस करना नितांत जरूरी हो गया। पहले जैन समाज पार्टी विचारधारा आधारित मतदान करते आ रहा था लेकिन इस बार समाज हित पहलू पर मतदान करेगा।
जैन समाज ने पिछले दिनों राजनितिक उपेक्षा अपने सबसे बड़े तीर्थ सम्मेद शिखर मह तीर्थ झारखण्ड सरकार के पर्यटन के नाम पर अपवित्र करने की साजिश के मुद्दे पर भोगी हालाँकि अब झारखण्ड सरकार ने फैसला वापस ले लिया। लेकिन राजनीतिक दलो की खामोशी और असहयोग की पीड़ा ने जैन धर्मालम्बियो को लामबंद होने का रास्ता दिखा दिया । जैन साधू-साध्वियो के विहार में होने वाली घटनाओ पर सरकारो की बेरुखी भी एक बड़ा कारण माना जा रहा है। जैन समाज अहिंसक समाज होकर सहिष्णुतावादी हे लेकिन अब वह अपनी समाजिक शक्ति को राजनीतिक निर्णयो पर निर्णायक बनाने का लक्ष्य लेकर तिन राज्यो के चुनाव परिणाम में अपना प्रभाव दिखाना चाह रहा है इस कार्य के लिए अखिल भारतीय जैन एकता परिषद अगुवाई कर रही है । अकेले मध्य प्रदेश में जैन समाज के साढ़े चार लाख मतदाता है। जी विधानसभा क्षेत्रो में जैन प्रत्याशी को टिकट मिला वहा जैन समाज उसके लिए पूरी ताकत से लगा । जहा प्रत्याशी खुले तौर पर जैन सिद्धान्तों का पक्षधर होकर अहिंसावादी पथगामी हे उसके पक्ष में मतदान करवाने की पहल कर रहा है। जैन समाज व्यापारिक होकर आम जन जीवन में।गहरी पकड़ रखता है जिसके चलते इस बार जैन समाज को दोनों राजनितिक दल महत्व दे रहे है। बड़नगर में विराजित जैन आचार्य श्री रत्न सुंदर जी के यहाँ भाजपा अध्यक्ष अमित शाह , शिवराज सिंह चौहान कांग्रेस के श्री ज्योतिरादित्य सिंधिया चलते चुनाव में पहुंचे। मोहनखेड़ा जैन तीर्थ में विराजित आचार्य ऋषभ चन्द्र विजय जी के यहाँ संघ प्रमुख मोहन भागवत से लगाकर सभी दलो के नेता हो आये हे।
हमारा एक वोट जैन धर्म सम्मान करने वाले के पक्ष में ..... यह अभियान किसी दल विशेष राजनीतिक विचारधारा के लिए नही ..... अखिल भारतीय जैन एकता परिषद का मानना है कि भारतीय राजनीति का प्रतिनिधित्वता में जैन बन्धुओ का स्थान सुनिश्चित हो .... जैन तीर्थ साधु - साध्वियों के सम्मान की को ठेस पहुंचाने की प्रवर्तीर्यो पर अंकुश लगे .....।
इस बारे में अखिल भारतीय जैन एकता परिषद के राष्ट्रीय अध्यक्ष अक्षय जैन ने बताया कि मौजूदा परिस्थितियों में हमे सामाजिक तौर पर सुरक्षा ग्यारंटी की आवशयक्ता महसूस हो रही है। हमारा समाज कभी किसी दल के बन्धन में नहीं चला । हम राष्ट्र हित में अपनी सोच शामिल रखते है । हमारा राजनीति में सीधा हस्तक्षेप का कभी इरादा नही रहा लेकिन वर्तमान में कुछ परिस्थितयो को देख इस बार हमारे समाज को लगता है कि जैन धर्म सम्मान को सर्वापरि मानने वालो के पक्ष में हम मतदान करे। इस दिशा में हमारे लोग मध्य प्रदेश और राजस्थान छग में जैन समाज बाहुल्य वाले क्षेत्रो में ज्यादा प्रभावी मतदान करवाने की मुहीम चला रहे है।

Wednesday, 7 November 2018

नूतन वर्ष अभिनंदन - उत्तम जैन ( विद्रोही )

                                              उत्तम जैन( विद्रोही) का नमस्कार…जय जिनेन्द्र
जाने वाले को विदा और आने वाले का स्वागत करना यही हमारी भारतीय संस्कृति है. हर साल की तरह दीपावली के बाद अगले दिन हम नूतन वर्ष अपने साथ कडकडाती हुई ठण्ड और नए साल की आहट लेकर आता है. हम ठहरे उत्सवधर्मी. प्रत्येक क्षण, प्रत्येक दिन आनंद और उत्साह से बिताया जाये यही सिखाया है ! नया वर्ष, नयी दिशा, नयी सोच, नयी कामना, नयी आस, नयी भावना के साथ स्वागत कीजिये नए साल का आप सभी को नूतन वर्ष की विशेष शुभकामनाएं…….
नया साल मुबारक सबको
पूरी हो सबकी अभिलाषाये
जो रह गयी है आशाये अधूरी
वो नव वर्ष में पूरी हो जाये
नये साल की शुभकामनाये ….!
बिछ्डों को अपने मिल जाये
टूटे दिल फिर से जुड जाये
आने वाला साल अपने संग
हर रात दीवाली सी लाये
नये साल की शुभकामनाये ….!
रहे हर देश में खुशहाली
हाथ रहे ना कोई खाली
धरा भी हो जाये हरियाली
ऐसी इक क्रान्ति ले आये
नये साल की शुभकामनाये ….!
वेद-काल से आज तक भारत में जो उत्सवों की परम्परा रही है, वे समयानुकूल परिवर्तन वाले उत्सव रहे हैं. भारत की उत्सव परम्परा, प्रकृति-प्रेम को बलवान बनाने वाली, बालक से लेकर के हर व्यक्ति को संस्कारित करने वाली रही हैं
अब नया साल के लिए विशेष – नई सफलता की रणनीति तय करने का जिससे की आप सभी मुश्किलों को दूर कर के सफलता को प्राप्त कर सकते हैं । इस साल के प्रथम दिन में ही हमे व आपको अपने नए साल के संकल्पों को लेना जरूरी है आपको अपने लक्ष्य पर अपना फोकस बनाये रखना पड़ेगा और पिछले साल की गलतियों को बारीकियों से तुलना करते हुए इस वर्ष अपने सोच में नहीं लाना है
अपने नया साल नई सफलता की रणनीति तय करने के लिए नए प्रस्ताव या संकल्प करना बहुत जरूरी हैं । लेकिन संकल्प लेने से पहले लोग खासकर दो गलतियाँ कर जाते हैं ।
1…लोग सोचते हैं उन्हें करना क्या चाहिए ! जबकि उनसे सोचना चाहिए की उनकी पसंद क्या है और क्या सच मैं उस कार्य को करना चाहिए ।
2 .दूसरी बड़ी गलती वह सोचते हैं क्या-क्या उन्हें नहीं करना चाहिए ! पर उन्हें सोचना चाहिए जो गलतिया पिछले साल की उन्हे फिर से नही करनी है
आपको अपने लक्ष्य को पाने के लिए अपने आप से अटल वादा करना पड़ेगा, तभी आप हमेशा अपने संकल्पों को सफल बनाने के लिए प्रेरित रहेंगे पक्का कर लें कि चाहे रास्ते में जितनी बड़ी मुश्किल आए या छोटी-मोटी असफलता आए आपको रुकेंगे नहीं चाहे बार-बार आपको कोशिश करना पड़े नया साल के लिए नई सफलता की रणनीति तय करने के लिए सबसे अच्छा समय है क्योंकि इस शुरुवाती समय में हर जगह एक ख़ुशी भरा समारोह है और हर किसी के मन में प्रेरित विचार होते । यह एक ऐसा समय है जब हर कोई व्यक्ति एक दुसरे से मदद और समर्थन देने के लिए तैयार रहते हैं ।
लेखक– उत्तम जैन ( विद्रोही)
प्रधान संपादक – विद्रोही आवाज़

Tuesday, 25 September 2018

जैन धर्म मे आरती करना कहा तक उपयुक्त - उत्तम जैन ( विद्रोही )

जैन समाज कि- एक कुरीति आरती 

जैन समाज के मुख्य दो घटक है श्वेतांबर व दिगंबर इन दो घटको मे भी कही पंथ है जेसे श्वेतांबर संप्रदाय मे मूर्तिपूजक , तेरापंथी , स्थानकवासी व दिगंबर संप्रदाय मे तेरापंथी , बीसपंथी व अन्य काफी पंथ मुझे ज्ञात नही की इन पंथो की रचना कब व केसे हुई ! मगर स्वाभाविक रूप से पंथो की रचना कुछ धर्म गुरुओ के आपसी विचारधारा मे मतभेद होने से ही हुई होगी ! खेर मुझे इस विषय पर आज चर्चा नही करनी की ये पंथो का विस्तार केसे हुआ ! आज मुख्य मेरी विचारधारा दीपक से आरती की जाती है क्या जैन धर्म जो अहिंसा के मूल सिदान्त को मानता है उपयुक्त है या नही ! मेरी सोच से दीपक से आरती करना जैन सिद्धांत के अनुकूल नहीं है ! आरती के लिए रात्रि में दीपक जलाना पड़ता है ! जो किसी भी तरह से उचित नहीं है ! रात्रि का समय तो सामायिक का है ! सामयिक के समय को टालकर उसको आरती के काम में लगाना किसी शास्त्र से सिद्ध नहीं होता ! मच्छर/कीट/पतंगे इत्यादि चतुरिंद्रिय जीव प्रकाश के व्यसनी होते हैं वे आकर्षित होकर दीपक की लौ की ओर खिंचे चले आते हैं, और मृत्यु को प्राप्त होते हैं !अब कोई कहे कि घर में खाना बनाते हैं, या रौशनी करते हैं, उसमे भी तो जीवों का घात होता है, फिर मंदिर के कार्य में क्यों टोकते हो ?मेरे मंतव्य से 
घर के कार्यों में धर्म का अनुसरण नहीं होता है, किन्तु आरती से जो जीवों का घात होता है वह धर्म के नाम पर होता है ! अतः आरती करना किसी विज्ञ और दयालु पुरुष का ध्येय नहीं हो सकता !
"देव धर्मतपस्विनाम् कार्ये महति सत्यपि !
जीव घातो न कर्तव्यः अभ्रपातक हेतुमान !!

याने,
देव, धर्म और गुरुओं के निम्मित भी महान से महान कार्य पड़ने पर जीव घात नहीं करना चाहिए ! जो इसकी परवाह नहीं करते वे जिनेन्द्र भगवान के वचन रूपी चक्षुओं से रहित हैं !जीव-घात नियम से ही नरकादि गतियों में ले जाने वाला है !और ऊपर से अगर धर्म मान कर ऐसा कार्य किया जाए तो उसमे "मिथ्यात्व' का दोष भी जोड़ लें, जो कि अनंत संसार का मूल कारण है ! अन्य स्थानों में किया गया पाप मंदिरजी जाकर कट जाता है, किन्तु धर्मस्थान में किया हुआ पाप, वज्र लेप समान है ! जिसे कोई नहीं काट सकता !
याद रखें :- आरती का सम्बन्ध दीपक से कदापि नहीं है ! 
आरती का अर्थ केवल स्तुति और गुणगान से ही है, उसके अलावा कुछ भी नहीं !
- अब कोई कहे की मंदिरजी में बड़े-बड़े बल्ब/लाइट/जनरेटर जलते हैं रात में तो उससे भी तो तीव्र हिंसा होती है ! इसके २ समाधान बनते हैं :-
१ - आज के भौतिकवादी हो चुके समाज में श्रावकों की इतनी श्रद्धा नहीं रही जैसी पहले हुआ करती थी ! यह पंचम काल का प्रभाव ही है कि यदि मंदिरों में बल्ब नहीं जलाये तो स्वाध्याय तो दूर मंदिरजी आने-जाने का क्रम भी लुप्त हो जाएगा! 
जबकि विवेकवान पुरुष तो रात्रि के समय में सब आरम्भ-परिग्रहों से विरक्त होकर सामायिक आदि क्रियाओं में लग जाते हैं !
दूसरा और सबसे मुख्य तथ्य 
२ - मंदिरजी में बल्ब/लाइट जलाना धर्म नहीं माना जाता, किन्तु दीपक जलकर आरती करने को लोग धर्म मानते हैं, और उल्टी/विपरीत मान्यता होने के कारण मिथ्यात्व ही है ! हमे विवेक का परिचय करते हुए, इस प्रचलित प्रथा को सही दिशा देने का प्रयास करना चाहिए तथा रूढ़िवाद, अज्ञानता और पक्षपात को छोड़कर जैसा भगवान ने बतलाइं वैसी ही क्रियाएँ करनी चाहिए !
- पर्वों/आयोजनों में 108,1008 दीपकों से महाआरती की जाती है !
- कभी कभी सुनता हु अमुक महाराज जी की 25,000 दीपकों से महाआरती की जाएगी ! कल्पना से परे हैं ऐसे भक्त और ऐसे मुनि ... - जहाँ "अहिंसा परमो धर्म" बताया है, वहां हिंसा का अनुसरण करती हुई किसी क्रिया को कोई साधु या कोई श्रावक कदापि नहीं कर सकता ! किन्तु फिर भी बहुत कर रहे हैं ! पंचम काल प्रभावी हो रहा है ! - अखंड ज्योत जलाना भी मूढ़ता है ! वैष्णव परंपरा की नकल मात्र है ! कृपया विवेक से काम लें !!! जो पहले से होता आ रहा है ज़रूरी तो नहीं कि वो सही ही हो ! वेसे श्वेतांबर परंपरा के तेरापंथ , स्थानकवासी परंपरा मे मूर्ति पुजा को मान्यता नही है ! साधना , स्वाध्याय बिना पुजा के भी संभव है ! जैन समाज के साधू , संतो , आचार्यो , श्रावकों को इस गहन विषय पर विचार करना चाहिए ! क्या आरती , द्रव्य पुजा , अभिषेक आदि से हिंसा तो नही हो रही है जो जैन धर्म का मूल सिदान्त है ! जैन समाज को आज सिर्फ हिंदुस्तान ही नही विश्व मे अहिंसक के रूप मे जाना जाता है ! जहा अहिंसा परमो धर्म का ध्वज फहराया जाता है !
लेखक - उत्तम जैन  ( विद्रोही )

Saturday, 15 September 2018

क्षमा याचना - एक सच्ची एवं निष्कपट - उत्तम जैन ( विद्रोही )

क्षमा याचना - एक सच्ची एवं निष्कपट - उत्तम जैन ( विद्रोही ) 

क्षमा मांगना एक यान्त्रिक कर्म नहीं है बल्कि अपनी गलतियों को महसूस कर उस पर पश्चाताप करना है । पश्चाताप में स्वयं को भाव होता है । ताकि हम अपनी आध्यात्मिक यात्रा आगे बढ़ा सकें । भूल करना मानव की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है; हम सभी भूल करते हैं। परंतु उन्हें दोहराने का यह औचित्य नहीं हो सकता। हमे अपनी भूल का अहसास हो गया है यह दिखाने की केवल दो विधियाँ हैं। पहली विधि है कि भूल को ना दोहराएं और दूसरी एक सच्ची क्षमा याचना द्वारा।सही ढंग से क्षमा मांगना कोई विशेष कला या ज्ञान नहीं। यह तो केवल इस पर निर्भर है कि आप स्पष्ट रूप से सत्य बोल पाते हैं कि नहीं। जब हमे वास्तव में अपने कार्य पर पछतावा होता है, तो सही शब्द स्वत: ही बाहर आने लगते हैं और क्षमा मांगना अत्यंत सरल हो जाता है।वास्तव में क्षमा याचना विश्वास का एक पुनःस्थापन है। इस के द्वारा आप यह कह रहे हैं कि मैं ने एक बार आप का विश्वास तोड़ा है किंतु अब आप मुझ पर भरोसा कर सकते हैं और मैं ऐसा फिर कभी नहीं होने दूँगा। जब हम एक भूल करते हैं, तो दूसरे व्यक्ति के विश्वास को झटका लगता है। अधिकतर सकारात्मक भावनाओं की नींव विश्वास ही होती है।जब आप किसी से प्रेम करते हैं, तो आप उन पर विश्वास करते हैं कि वे वास्तव में वैसे ही हैं जैसा वे स्वयं को दर्शाते हैं। किंतु जब वे उसके विपरीत कार्य करते हैं, तो आप का विश्वास टूट जाता है। इस विश्वासघात से आप को बहुत कष्ट होता है और यह दूसरे व्यक्ति के प्रति आप की भावनाओं को भी प्रभावित करता है।यदि आप अपराध को दोहराने का विचार कर रहें हैं, तो ऐसी क्षमा याचना विश्वसनीय नहीं है।इसी प्रकार यदि आप किसी के विश्वास को तोड़ते हैं संभवत: वह आप को एक बार क्षमा कर सकते हैं। परंतु यदि आप ऐसा फिर से करते हैं तो आप उनसे क्षमा की आशा नहीं कर सकते। इसलिए, एक निष्ठाहीन क्षमा याचना सम्पूर्ण रूप से व्यर्थ है। तो आप पूछेंगे कि एक निष्कपट क्षमा याचना क्या है?एक सच्ची क्षमा याचना में “यदि” और “परंतु” जैसे शब्दों का कोई स्थान नहीं होता। यह कहना कि आप ने ऐसा क्यों किया इसका भी कोई अर्थ नहीं। सर्वश्रेष्ठ क्षमा याचना वह है जहाँ आप यह पूर्ण रूप से समझें, महसूस करें तथा स्वीकार करें कि आप के कार्यों ने अन्य व्यक्ति को ठेस पहुँचाया है। एक कारण या औचित्य दे कर अपनी क्षमा याचना को दूषित न करें। यदि आप सच्चे दिल से क्षमा नहीं मांगते हैं तो आप अपनी क्षमा प्रार्थना का नाश कर रहे हैं। इस से दूसरे व्यक्ति को और अधिक कष्ट होगा। आप एक क्षमा याचना अथवा एक बहाने में से केवल एक को ही चुन सकते हैं, दोनों को नहीं।क्षमा याचना विश्वसनीय तभी होती है जब आप यह ठान लें कि आप अपने अपराध को दोहरायेंगे नहीं और जब आप कोई बहाना या औचित्य नहीं देते हैं। आप अपने कार्य का पूरा उत्तरदायित्व लेते हैं और सच्चे दिल से आप क्षमा मांगते हैं। पश्चाताप की भावना से रहित क्षमा याचना व्यर्थ है। वास्तव में, इस से दूसरे व्यक्ति को और अधिक कष्ट होगा। अक्सर लोग कहते हैं, “मुझे क्षमा करें परंतु मैं ने ऐसा सोच कर यह काम किया था…”, अथवा “मुझे क्षमा करें परंतु मैं ने यह कार्य इस कारण किया था…” अथवा “मुझे क्षमा करें यदि मेरे कारण आप को कोई चोट पहुँची हो”। ये क्षमायाचना नहीं केवल बहाने हैं।जैन दर्शन के अनुसार वास्तव में क्षमावाणी के पीछे अपनी कमियां, कमजोरी व मतलब के कारण दूसरों को हानि पंहुचाने की वृति को बदलना है । हम इस तरह की गलतियां बार-बार किन कारणों से करते आये हैं । उनको पहचान कर अपनी आदतों को बदलना है । यह एक तरह से स्वयं का परीक्षण करना है ।

Thursday, 13 September 2018

संवत्सरी शुद्ध रूप से आध्यात्मिक पर्व

संवत्सरी शुद्ध रूप से आध्यात्मिक पर्व है। यह आत्म-चिंतन आत्म-निरीक्षण, आत्म-मंथन व आत्म शोधन का पर्व है। जैन धर्म की त्याग प्रधान संस्कृति में संवत्सरी पर्व का अपना अपूर्व एवं विशिष्ट आध्यात्मिक महत्व है। यह एकमात्र आत्मशुद्धि का पर्व है, इसीलिए यह पर्व ही नहीं, महापर्व है। जैन लोगों का सर्वमान्य विशिष्टतम पर्व है। संवत्सरी पर्व- त्याग तपस्या, ध्यान, मौन, जप, स्वाध्याय आदि अनेक प्रकार के अनुष्ठानों के द्वारा मनाया जाता है। संवत्सरी अंतरात्मा की आराधना का पर्व है, आत्मशोधन का पर्व है, सोना तपकर निर्खाद बनता है इंसान तपकर भगवान बनता है। यह पर्व अज्ञानरूपी अंधकार से ज्ञानरूपी प्रकाश की ओर ले जाता है।
तप जप ध्यान स्वाध्याय के द्वारा क्रोध, मान, माया, लोभ,राग, द्वेष आदि आंतरिक शत्रुओं का नाश होगा तभी आत्मा अपने स्वरूप में अवस्थित होगी अतः यह आत्मा का आत्मा में निवास करने की प्रेरणा देता है।
संवत्सरी महापर्व आध्यात्मिक पर्व है, इसका जो केंद्रीय तत्व है, वह है- आत्मा। आत्मा के निरामय, ज्योतिर्मय स्वरूप को प्रकट करने में यह महापर्व अहं भूमिका निभाता है। अध्यात्म यानी आत्मा की सन्निकटता। यह संवत्सरी पर्व मानव-मानव को जोड़ने व मानव हृदय को संशोधित करने का महान पर्व है।जिसे त्याग-प्रत्याख्यान, उपवास, पौषध सामायिक, स्वाध्याय और संयम से मनाया जाता है।
वर्षभर में कभी समय नहीं निकाल पाने वाले लोग भी इस दिन जागृत हो जाते हैं। कभी उपवास नहीं करने वाले भी इस दिन धर्मानुष्ठान करते नजर आते हैं।
संवत्सरी महापर्व कषाय शमन का पर्व है। यह पर्व 8 दिनों तक मनाया जाता है जिसमें किसी के भीतर में ताप, उत्ताप पैदा हो गया हो, किसी के प्रति राग-द्वेष की भावना पैदा हो गई हो तो यह उसको शांत करने का पर्व है। संवत्सरी पर्व आदान-प्रदान का पर्व है। इस दिन सभी अपनी मन की उलझी हुई ग्रंथियों को सुलझाते हैं, अपने भीतर की राग-द्वेष की गांठों को खोलते हैं, वे एक- दूसरे से गले मिलते हैं। पूर्व में हुई भूलों को क्षमा द्वारा समाप्त करते हैं व जीवन को पवित्र बनाते हैं।
संवत्सरी महापर्व का समापन क्षमावाणी (मैत्री दिवस) के रूप में आयोजित होता है जिसे क्षमापना दिवस भी कहा जाता है। इस तरह से संवत्सरी महापर्व एवं क्षमापना दिवस- ये एक-दूसरे को निकटता में लाने का पर्व है। ये एक-दूसरे को अपने ही समान समझने का पर्व है। 
मानवीय एकता, शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व, मैत्री, शोषणविहीन सामाजिकता, अंतरराष्ट्रीय नैतिक मूल्यों की स्थापना, अहिंसक जीवन आत्मा की उपासना शैली का समर्थन आदि तत्व संवत्सरी महापर्व के मुख्य आधार हैं।
संवत्सरी पर्व प्रतिक्रमण का प्रयोग है। पीछे मुड़कर स्वयं को देखने का ईमानदार प्रयत्न है। आत्मशोधन व आत्मोत्थान का पर्व है। यह पर्व अहंकार और ममकार के विसर्जन करने का पर्व है। यह पर्व अहिंसा की आराधना का पर्व है। आज पूरे विश्व को सबसे ज्यादा जरूरत है अहिंसा की, मैत्री की। यह पर्व अहिंसा और मैत्री का पर्व है। देश और दुनिया में समय-समय पर रह-रहकर सांप्रदायिक हिंसा और आतंकवादी घटनाएँ ऐसा वीभत्स एवं तांडव नृत्य करती रही हैं, जिससे संपूर्ण मानवता प्रकंपित हो जाती है। इन दिनों काश्मीर में वहां की जनता की सक्रिय भागीदारी से बौखलाए आतंकवादी अपनी गतिविधियों में तेजी लाते हुए वहां हिंसा का माहौल निर्मित कर रहे हंै, अहिंसा की एक बड़ी प्रयोग भूमि भारत में आज साम्प्रदायिक-आतंकवाद की यह आग- खून, आगजनी एवं लाशों की ऐसी कहानी गढ़ रही है, जिससे घना अंधकार छा रहा है। चहूँ ओर भय, अस्थिरता एवं अराजकता का माहौल बना हुआ है। भगवान महावीर हो या गौतम बुद्ध, स्वामी विवेकानंद हो या महात्मा गांधी- समय-समय पर ऐसे अनेक महापुरुषों ने अपने क्रांत चिंतन के द्वारा समाज का समुचित पथदर्शन किया। ऐसे समय में संवत्सरी महापर्व की प्रासंगिकता सहज ही बहुगुणित हो गयी है।  संवत्सरी महापर्व अहिंसा के मूल्यों को पल्लवित एवं पोषित करने का अवसर है। सारे मानवीय-मूल्य अहिंसा की आबोहवा में पल्लवित, विकसित होते हैं एवं जिन्दा रहते हैं। वस्तुतः अहिंसा मनुष्यता की प्राण-वायु (आॅक्सीजन) है। प्रकृति, पर्यावरण, पृथ्वी, पानी और प्राणीमात्र की रक्षा करने वाली अहिंसा ही है। हम अहिंसा का मार्ग नहीं अपनाते हैं तब प्रकृति अपना काम करती है। इसलिए संवत्सरी एक ऐसा अवसर है जो हमें महाविनाश से महानिर्माण की ओर अग्रसर करके जीवन निर्माण की प्रेरणा देता है।   

Monday, 10 September 2018

ध्यान दिवस -मन और मस्तिष्क का मौन हो जाना ही ध्यान है-- लेखक उत्तम जैन ( विद्रोही )



ध्यान एक ऐसी यात्रा है, जिसमें आपको कुछ करना नहीं होता, यह अपने आप होती है जब हम ध्यान करते हैं, चक्रों को जागृत करते हैं तो आपका ध्यान चक्रों पर ही रहता है, इसका मतलब यह होता है कि आप अपने ‘हार्मोन्स एवं ओरा को व्यवस्थित कर रहे हैं। हर आदमी का एक ओरा और एक आभा मंडल है। हमारे शरीर के सभी केन्द्र, ऊर्जा के केन्द्र हैं। 
 ध्यान चार प्रकार के होते हैं भगवान महावीर की साधना के दो अंग तपस्या और ध्यान बताए व आचार्य महाप्रज्ञ ने ध्यान को प्रेक्षाध्यान  बताया  प्रेक्षाध्यान से तनाव मुक्ति व कार्य क्षमता का विकास संभव है। भौतिकवादी युग में तनाव जटिल समस्या है। उन्होंने कहा कि प्रेक्षाध्यान से आत्म साक्षात्कार हो सकता है तथा अपनी सोई शक्ति को जगाया जा सकता है। हमें जीवन  में अधिक से अधिक धर्म आराधना में तप एवं त्याग करके अपने कर्मों का क्षय करना है। मोक्ष में जाने के लिए पहला कदम दान है। जैसा कि सिकंदर कितने धनाढ्य थे, लेकिन उन्होंने कहा था कि मनुष्य खाली हाथ आया और खाली हाथ जाएगा। साथ में यह दानरूपी धर्म ही साथ आने वाला है। दान पुण्य की पूंजी है जो रिजर्व बैंक में जमा हो जाती है
 हमारे मन में एक साथ असंख्य कल्पनाएं और विचार चलते रहते हैं। इससे मन-मस्तिष्क में कोलाहल-सा मचा रहता है। हम नहीं चाहते, फिर भी यह चलता रहता है। इस तरह लगातार सोच-सोचकर हम खुद को कमजोर करते रहते हैं। ध्यान ऐसी गैर जरूरी कल्पनाओं और विचारों को मन से हटाकर शुद्ध और निर्मल मौन में चले जाना है। ध्यान जैसे-जैसे गहराता है, व्यक्ति साक्षी भाव में आने लगता है। उस पर किसी भी भाव, कल्पना और विचारों का प्रभाव नहीं पड़ता।  वास्तव में मन और मस्तिष्क का मौन हो जाना ही ध्यान है। विचार, कल्पना और अतीत के सुख-दुख में जीना ध्यान के खिलाफ है। ध्यान कोई क्रिया नहीं है, इसलिए इसमें करने जैसा कुछ भी नहीं। ध्यान बस हो जाता है और इसके लिए कोशिश करने की जरूरत नहीं। ध्यान की अवस्था में पहुंचने पर ध्यान करने वाला अपने आसपास के वातावरण को और खुद को भी भूल जाता है। बेशक ध्यान करने से आत्मिक तथा मानसिक शक्तियों का विकास होता है।
 ध्यान का अभ्यास शुरू करने वालों के लिए  विशेष  --

1. ध्यान के लिए ऐसा समय और स्थान चुनें, जिसमें आपको कोई परेशान न कर सके। सूर्योदय और सूर्यास्त का समय इसके लिए आदर्श है। 

2. सीधे बैठें और रीढ़ की हड्डी को सीधी रखें। अपने कंधे और गर्दन को आरामदायक स्थिति में रखें और पूरी प्रक्रिया के दौरान आंखें बंद करके रखें। 
3. अगर शाम के समय में ध्यान करने वाले हैं, तो सुनिश्चित करें कि कम से कम तीन घंटे से कुछ न खाया हो। 
4. ध्यान से पहले सूक्ष्म क्रियाएं कर लेनी चाहिए। इससे शरीर की जड़ता और बेचैनी दूर होती है और शरीर हल्का महसूस होता है। ऐसे में स्थिरता के साथ ज्यादा समय बैठ सकेंगे| 
5. ध्यान से पहले अनुलोम-विलोम प्रणायाम करने लेना अच्छा होता है। इससे सांस की लय स्थिर हो जाती है और मन आसानी से ध्यान में चला जाता है।
 6. चेहरे पर सौम्य मुस्कान बनाकर रखें। इससे आप आराम और शांति महसूस करेंगे। इससे आपका ध्यान का अनुभव बेहतर होगा। 
7. नए लोग निर्देशित ध्यान का सहारा ले सकते हैं। आपको सिर्फ आंखों को बंद करके आराम करना है और निर्देशों को सुनकर उनका पालन करते हुए अनुभव का आनंद लेना है।
 8. ध्यान से कब बाहर आना है, इसके लिए अलार्म का प्रयोग न करें। कुछ दिनों के अभ्यास से आप खुद ही तय समय पर ध्यान से बाहर आने लगेंगे। कभी-कभार कुछ समय कम भी रह जाए तो चिंता न करें।
 9. ध्यान के बाद आंखों को धीरे-धीरे खोलें। आखों को खोलने में जल्दबाजी न करें और आंखें खोलने के बाद अपने और वातावरण के प्रति सजग होने के लिए समय लें। 
10. आदर्श स्थिति यह है कि सुबह और शाम दोनों वक्त 20-20 मिनट के लिए ध्यान किया जाए, लेकिन अगर इतना समय नहीं है, तो कम समय के लिए भी ध्यान में बैठा जा सकता है। आप अपने जीवन केा अनुशासित करो, शरीर को अनुशासित और मन को प्रशिक्षित करें, अपनी ऊर्जा को संतुलित कर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ो। एक आसन पर बैठकर जब आप अपने मस्तिष्क को खाली कर लेते हैं, जब आपके दिमाग में विचारों का मेला नहीं रहता है तब आप आनंद की धारा में बहने लगते हैं उसी आनंद को थोड़े समय के लिए रोक दें और एक अच्छे विचार पर आप अपने ध्यान को स्थिर कर दें। तब आप एक ऐसे बिन्दु पर पहुंच जाते हैं जहां कोई विचार नहीं रहता, आप निर्विचार हो जाते हैं। जैसे-जैसे आपका ध्यान पक्का होता जाएगा वैसे-वैसे आप ‘समाधि’ की तरफ पहुंचते जाएगें। ध्यान की प्रगाढ़ अवस्था ही ‘समाधि’ है। 
कै
से उतरें ध्यान में --
1. ध्यान में जाने से पहले सूक्ष्म क्रियाएं करें। शरीर के सभी जोड़ों की बारी-बारी से रोटेशन एक्सरसाइज कर लें। 
2. सुखासन में बैठ जाएं। आंखें बंद कर लें और चेहरे पर मुस्कान बनाए रखें। 
3. अब एक लंबी गहरी सांस लें और जाने दें। तीन बार ओम का जाप करें। 
4. इसके बाद अनुलोम-विलोम प्रणायाम के 9 राउंड करें। इसके फौरन बाद ध्यान में उतर जाएं। इसके लिए कोई कोशिश नहीं करनी है, बस अपनी सांसों पर ध्यान लगाना है। आती-जाती सांसों पर अपने मन को ले जाएं। मन में जो विचार आ रहे हैं, उन्हें आने दें, रोकें नहीं। विचार आएंगे और खुद चले जाएंगे। कुछ देर के लिए मन खाली होगा, फिर विचार आएंगे और चले जाएंगे। 20 मिनट के बाद जब मन करे, सहजता से आंखें खोल सकते हैं। 
5. कुछ दिनों के अभ्सास से धीरे-धीरे अपने आप ही विचार आने कम होने लगेंगे और ध्यान लगने लगेगा। 

आत्मसाक्षात्कार प्रेक्षाध्यान के द्वारा, अर्थात प्रेक्षाध्यान द्वारा खुद को खुद से साक्षात्कार करने का अवसर प्राप्त होता है। आचार्य महाप्रज्ञ ने वर्षों तक अपने ऊपर प्रयोग करके प्रेक्षाध्यान पद्धति को प्रतिपादित किया था। उन्होंने ध्यान के लिए मन को एकाग्र करने को जरूरी बताया। मन और इन्द्रियों को पवित्र और स्थिर करने के लिए सबको ‘प्राणायाम’ और ध्यान करना आवश्यक है। इससे मनुष्य में दिव्यशक्तियों का अभ्युदय होता है। प्राणायाम से रोगी भी निरोगी बन जाता है। प्राणायाम करने से मन और इन्द्रियों के दोष दूर हो जाते हैं और मन निर्मल हो जाता है। मन, शांत और स्थिर हो जाता है, चित्त की वृत्तियों का निरोध हो जाता है। आयुष्य (आयु) की वृद्धि होती है। सूक्ष्म और स्थूल दोनों शरीरों का विकास होता है।

Sunday, 9 September 2018

जप दिवस

जप का बड़ा महत्त्व होता है। माला तो गिनती की सुविधा के लिए एक साधन मात्र है। जप श्वास के साथ भी कर सकते हैं। गीत और भजन भी भक्ति का एक प्रकार होता है। शरीर साथ न दे तो बैठ कर ही नहीं लेट कर भी जप किया जा सकता है बस भाव शुद्ध होना चाहिए मन धर्म ध्यान में एकाग्र रहे। यदि साधु संगति ना हो सके प्रवचन सत्संग में ना जा सकें तो भी घर बैठे जप तो किया ही जा सकता है। जप के लिए नवकार या नमस्कार मन्त्र एक बहु उपयोगी महामंत्र है। ]
जप सबसे सरल एवं सबसे कठिन तप है। स्थूल शरीर की स्थिरता रहे बिना जप सफल नहीं होता। तेजस शरीर जप के साथ सक्रिय होना चाहिए। जप का लक्ष्य है निर्जरा, जप शब्द दो अक्षरों से बना है। जप से जन्म मरण की परम्परा का विच्छेद एवं पाप की वृतियों का नाश होता है। जप मानसिक एवं वाचिक दोनों प्रकार से किया जाता है। जप के मंत्र का शुद्ध उच्चारण, अर्थ का ध्यान, तन्मयता एवं श्रद्धा से किया गया जप फलित होता है।  जन्म-मरण की परंपरा का नाश ही जप है। शब्दों में इतनी ताकत होती है कि शांति को अशांति में बदल सकती है। शब्दों में ताकत नहीं होती तो महाभारत नहीं होता। आचार्य श्री महाप्रज्ञ ने भी बताया कि अपने शरीर के तापमान को शब्दों के उच्चारण से कम अधिक किया जा सकता है। जप करना है लेकिन एकाग्रता से करें। एक माला फेरनी है उसमें भी इतने विचार मन में आते हैं कि एकाग्र नहीं कर सकते। घर में पूजा कक्ष के अलावा उपासक कक्ष होना चाहिए। उत्तर-पूर्व दिशा उर्जा प्राप्त करने के लिहाज से बेहतर है। जप में स्थान, समय, दिशा और आसन बहुत महत्व रखते हैं। आसन बिछाने का और बैठने का दोनों तरह के होते हैं। बैठने के लिए हम सुखासन, वज्रासन, पद्मासन, अर्द्धपद्मासन श्रेष्ठ हैं। बिना आसन बिछाये ध्यान नहीं करना चाहिए। हम जो उर्जा प्राप्त करते हैं तो बिना आसन के वह उर्जा गुरुत्वाकर्षण के कारण धरती में चली जाती है। ध्यान और जप दो ऐसे माध्यम हैं जिनके माध्यम से आत्म उद्धार की दिशा में बढ़ा जा सकता है। जप क्यों किया जाए, यह पहला सवाल होता है। जप के मंत्रों में वह शक्ति होती है जो पारिवारिक-सामाजिक समस्याओं का समाधान करता है। व्यक्ति निराश-हताश होता है तब उसे आलम्बन की की जरूरत होती है। इंसान के भीतर अहंकार का भूत होता है। जब तक उसे पांच बार कहा नहीं जाए तब तक वह झुकने को तैयार नहीं होता। जहां जीवन है, वहां समस्या है। जिस समस्या से व्यक्ति निजात पा सकता है। जाप का महत्व पुरातन ऋषि-मुनियों ने बताया। मंत्र का पुनः पुनः उच्चारण जप है। मंत्र को भावों से परिमित कर दिया जाए तो उसकी शक्ति अपरिसीमित हो जाती है। हालांकि पुस्तकों में हजारों मंत्र हैं लेकिन अगर उनके साथ भाव नहीं जुड़े तो उनका कोई अर्थ नहीं है। मन की पवित्रता जप की आवश्यक सामग्री है। जप जब तक लयबद्ध नहीं होगा, तब तक मंत्र के धार पर नहीं आती है। वह शक्तिशाली नहीं बनता है। मंत्र कर्म काटने का महत्वपूर्ण हथियार है। लयबद्धता उसे धार देती है और मंत्र शक्तिशाली बन जाता है। जप करने की विधि को जानना जरूरी है, तभी वह प्राणवान बनता है। जप करते समय आसन बिछा हुआ होना चाहिए। नौ बार हाथ के पौरों पर जप किया जाए। अंगुलियों के बीच छिद्र न हो, रेखा का स्पर्श न हो। अनामिका अंगुली व अगुष्ट का प्रयोग होना चाहिए। दोनों का योग जीवन एवं रिश्तों को सरस बनता है। उत्तर दिशा चंचलता को नियंत्रित करती है। पूर्व दिशा शक्ति संचार करने वाली है। शक्ति का सही उपयोग जप का लक्ष्य होना चाहिए। शक्ति का सही उपयोग हुए बिना व्यक्ति फिसल जाता है, पथच्युत  हो सकता है। ऐसी अवस्था खतरनाक बन जाती है। जैन धर्म एक महामंत्र है जिसे सभी मंत्र से बड़ा माना गया है  

अणुव्रत चेतना - लेखक उत्तम जैन ( विद्रोही )

                               पर्युषण पर्व का पांचवा दिन अणुव्रत चेतना दिवस 
                   
                       A Way To Innovate Ourself  
अणु अर्थात छोटे, व्रत अर्थात नियम- छोटे-छोटे नियमों को अणुव्रत कहते है। अणुव्रत की आवश्यकता इसलिए हुई क्योंकि इस कलियुग में आज हर व्यक्ति में त्याग की चेतना की जगह भोग चेतना, पदार्थ चेतना, स्वार्थ चेतना ही घर कर रही है। व्यक्ति अपने मूल उद्देश्य से भटकता जा रहा है। भारत की आजादी के बाद तो धर्म और देश ती परिस्थितियां काफी बदल चुकी है। देखा जाये तो पूर्व पश्चिम में समा रहा है तो पश्चिम पूरब की तरफ आ रहा है। सभी सुख चाहते है। सुख तो कही भी मिल सकता है। लेकिन लोगों में उसे खोजने का तरीका अलग-अलग है। लोग स्वार्थ में, पदार्थ में या भोग में सुख की खोज करते है जबकि परम सुख है अणुव्रत और संयम। अणुव्रत के नियमों का पालन करके चरित्र निर्माण किया जा सकता है।      
 श्रावक की पहली भूमिका है - सम्यक्त्व दीक्षा। उसके पश्चात व्रत दीक्षा स्वीकार की जाती है।
व्रत-दीक्षा का अर्थ है असंयम से संयम की ओर प्रस्थान। एक गृहस्थ श्रावक पूरी तरह से संयमी नही हो सकता है। इसी दृष्टि से भगवान महावीर ने उसके लिए बारह व्रत रूप संयम धर्म का निरुपण किया।   इन्ही व्रतों को सर्वग्राही बनाने के लिए आचार्य श्री तुलसी ने असाम्प्रदायिक धर्म के तौर पर अणुव्रत आंदोलन का सूत्रपात किया।

जिस प्रकार अणु का एक कण समूचे ब्रह्मांड में विस्फोट कर सकता है, वैसे ही अणुव्रत के छोटे छोटे नियम हर समस्या को सुलझा सकते हैं। इस सकारात्मक सोच के साथ तेरापंथ धर्मसंघ के नौंवे आचार्य तुलसी ने आज से करीब 70 साल पहले अणुव्रत आंदोलन शुरू किया। जिसकी गूंज गरीब की झोपड़ी से लेकर राष्ट्रपति भवन तक पहुंची अणुव्रत चरित्र निर्माण का आंदोलन है, जीवन विकास का प्रारंभ है, शक्ति को जगाने का दिव्य मंत्र है, आचरण की शुद्धि का उपक्रम यानि मानव धर्म है। अहिंसा, शांति, पवित्रता व चरित्र का उदगम स्थल है, नाश के मार्ग से बचाकर व्यक्ति को मार्ग पर स्थापित करता है। उन्होंने कहा कि अणुव्रत के तीन कार्य हैं। पहला व्यक्ति को चरित्रवान बनाना, दूसरा व्यवहार की शुद्धि करना तथा तीसरा धर्म समन्यव करना है।
चित-अनुचित में हम फर्क नहीं कर पाए तो पषु और मानव में कोई फर्क नहीं रह जाएगा। अच्छे इंसान के लिए दुर्व्यसन का त्याग जरूरी है। जिसे ये दुर्व्यसन लग जाए तो उसका पतन निश्चित है। यम, नियम, योग, प्राणायाम कैसे कर सकते हैं, इस पर विचार करना चाहिए। हर परिस्थिति को समभाव से संभालना है। इंद्रिय संयम व्रत चेतना के साथ जरूरी है। व्रत चेतना जरूरी है अन्यथा स्वार्थवाद टकराता है। स्वार्थों का त्याग जरूरी है नहीं तो परिवार में टकराव-बिखराव हो जाता है।भगवान महावीर ने व्रत, महाव्रत का प्रतिपादन किया। आचार्य तुलसी को अणुव्रत का प्रतिपादक इसलिए कहा जाता है कि उन्होंने इन्हें जीवन के साथ जोड़ने का प्रयास किया। जिस प्रकार तालाब की सुरक्षा के लिए पाल बनाई जाती है ठीक उसी प्रकार अहिंसा अणुव्रत के 5 व्रत दिए जो पाल का काम करते हैं। अधिकार मत छीनो, सत्य मत हड़पो। इन्द्रियों का संयम करो। इच्छाओं को सीमित करो। गृहस्थ के लिए पांचों नियम आवष्यक है। धार्मिकता की ओट में आज नैतिकता छिपा देते हैं। ये धर्म के साथ धोखा है। जहां नैतिकता नहीं, वहां धार्मिकता नहीं हो सकती। आचार्य तुलसी महावीर की वाणी के आधार पर इन अणुव्रत का प्रतिपादन किया। प्रत्येक व्यक्ति में अणुव्रत नैतिकता की चेतना जाग जाए। लोग तो भगवान के साथ भी धोखा कर जाते हैं जीवन में पांच पी पावर, प्रेक्टिस, प्लेजर, पोजीषन एवं पर्सनालिटी की आवष्यकता मानी जाती है लेकिन इस पांच में एक और पी प्योरिटी जुड़ जाए तो जीवन सफल हो जाता है। जो भी हो, पवित्रता के साथ हो। व्रत की चेतना का विकास कैसे हो, इस पर ध्यान जरूरी है। शरीर अनित्य है लेकिन आत्मा अजर अमर है। भगवान महावीर ने बताया कि धर्म आगार और अणगार दो प्रकार के होते हैं। आगार धर्म में पंच महाव्रत का रास्ता है जो साधु जीवन के लिए है वहीं अणगार धर्म श्रावक-श्राविकाओं के लिए है जिसमें 12 व्रतों की पालना जरूरी बताई गई है। अध्यात्म का प्रथम सोपान अणुव्रत है। भगवान महावीर का कहना था कि जैसा तुम्हें ठीक लगे, वही करो लेकिन जल्दी करो। उस काम को करने में देरी मत करो। छोटे छोटे नियमों से व्रतों का उद्धरण होता है, वह अणुव्रत कहलाता है। इच्छाओं का परिष्कार करें, अणुव्रत की चेतना का विकास करें। इच्छाओं का संयम बहुत मुष्किल है। धर्म का प्रगति से कोई विरोध नहीं लेकिन प्रति के साथ आध्यात्मिक भी होना चाहिए। आज जरूरत है अध्यात्म को जानने, समझने और सीखने की।
बदले युग की धारा ,
नई दृष्टि हो ,नई सृष्टी हो अणुुव्रतों के द्वारा
बदले युग की धारा ।।

आचार्य तुलसी द्वारा  प्रदत - अणुव्रत के ग्यारह नियम
१. मैं किसी निरपराध प्राणी का संकल्पपूर्वक वध नहीं करूंगा ।
       ° आत्महत्या नही करूंगा
       ° भ्रूणहत्या नहीं करूंगा ।

२.मैं किसी पर आक्रमण नहीँ करूंगा ।
   ° आक्रामक नीति का समर्थन भी नही करूंगा ।
   ° विश्व - शांति तथा निः शस्त्रीकरण के लिए प्रयत्न करूंगा ।
३.मैं हिंसात्मक उपद्रवों एवं तोड़ -फोड़ मूलक प्रवृतियों में भाग नहीं लूंगा ।।
४.मैं मानवीय एकता में विश्वास रखूंगा ।
   ° जाति , रंग आदि के आधार पर किसी को ऊंच -नीच नहीं मानूंगा ।
   ° अस्पृश्य नहीं मानूंगा ।
५. मैं धार्मिक सहिष्णुता का भाव रखूंगा ।
६. मैं व्यवसाय और व्यवहार में प्रामाणिक रहूंगा ।
    ° मैं अपने लाभ के लिए दूसरे को हानि नहीं पहुंचाऊंगा ।।
     °छलनापूर्ण व्यवहार नहीँ करूंगा ।
७.मैं  ब्रह्मचार्य  की साधना और संग्रह की सीमा निर्धारण करूंगा ।
८.मैं चुनाव के संबंध में अनैतिक आचरण नहीं करूंगा ।
९.मै सामाजिक कुरूढियों को प्रश्रय नहीं दूंगा ।
१०.मैं व्यसन -मुक्त जीवन जीऊंगा ।
  °मादक तथा नशीले पदार्थो -जैसे शराब , गांजा ,चरस ,हेरोईन ,भांग , तम्बाकू आदि का सेवन नहीं करूंगा ।
११. मैं पर्यावरण की समस्या के प्रति जागरूक रहूंगा ।
  ° हरे भरे वृक्ष नहीं काटूंगा।
  ° पानी का अपव्यय नहीं करूगां ।

वाणी संयम दिवस - वाणी संयम मनुष्य जीवन का आभूषण

       वाणी संयम मनुष्य जीवन का आभूषण है 

        तेरापंथ  धर्मसंघ  पर्युषण पर्व  का चतुर्थ दिवस - वाणी संयम 

                                 लेखक - उत्तम जैन ( विद्रोही ) 

       
   एक शिक्षक  से शिष्य ने जिज्ञासा वश पूछा सदैव प्रसन्न रहने के लिए क्या करना चाहिए?’
शिक्षक ने कहा, ‘अपनी वाणी से अमृत बिखेरते रहो। सभी से प्रेम करो, निश्चय ही सभी से प्रेम पाते रहोगे।  इससे प्रसन्नता मिलेगी।’
कुछ क्षण रुककर उन्होंने एक कथा सुनानी शुरू की, ‘फारस देश में एक स्त्री थी। वह शहद बेचने का काम करती थी। शहद तो वह बेचती ही थी, उसकी वाणी भी शहद जैसी ही मीठी थी। उसकी दुकान पर खरीददारों की भीड़ लगी रहती थी। एक ओछी प्रवृति वाले व्यक्ति ने देखा कि शहद बेचने से एक महिला इतना लाभ कमा रही है, तो उसने भी उस दुकान के नजदीक एक दुकान में शहद बेचना शुरू कर दिया। उसका स्वभाव कठोर था।एक दिन एक ग्राहक ने सहज में ही उससे पूछ लिया कि शहद मिलावटी तो नहीं! उसने भड़ककर कहा कि जो स्वयं नकली होता है, वही दूसरे के सामान को नकली बताता है। ग्राहक उसकी कड़क आवाज से घबड़ाकर लौट गया। वही आदमी फिर महिला के पास पहुंचा और वही सवाल पूछ बैठा। महिला ने मुस्कराते  हुए कहा कि जब वह खुद असली है, तो वह नकली शहद क्यों बेचेगी! ग्राहक मुस्कुरा उठा और शहद ले गया।कहानी सुनाने के बाद शिक्षक ने शिष्य को  उपदेश देते हुए कहा, ‘विनम्र स्वभाव और मीठी वाणी का हर तरह की सफलता में योगदान रहता है, इसलिए मनुष्य को हमेशा मीठी वाणी बोलनी चाहिए।
हमेशा याद रखिये कि “वाणी में इतनी शक्ति होती है कि कड़वा बोलने वाले का शहद भी नहीं बिकता और मीठा बोलने वाले की मिर्ची भी बिक जाती है।” वास्तव में मीठी वाणी बोलना न सिर्फ अपने, बल्कि दूसरों के कानों को भी सुकून देता है। किसी ने सत्य ही कहा है,
जरूरी नहीं कि आप केवल मिठाई खिलाकर दूसरों का मुंह मीठा करें,
आप मीठा बोलकर भी लोगों का मुंह मीठा कर सकते हैं!
आदमी को कभी भी बिना पूछे नहीं बोलने का प्रयास करना चाहिए। आदमी को बोलने में विवेक रखने का प्रयास करना चाहिए। जब तक कहीं पूछा न जाए आदमी को अपने ज्ञान को उजागर करने का प्रयास नहीं करना चाहिए। मौन को आचार्यश्री ने पंडितों और अपंडितों का विभूषण बताते हुए कहा कि मूखों के बीच में पंडितों को मौन हो जाना चाहिए और पंडितों के बीच मूर्खों को मौन हो जाना चाहिए। इस प्रकार मौन पंडित और अपंडित दोनों का विभूषण होती है। आदमी से जब कुछ पूछा जाए तो आदमी को झूठ नहीं सत्य बोलने का प्रयास करना चाहिए। सत्य बोलना कठिन हो सकता है, किन्तु आदमी को सत्य बोलने का प्रयास करना चाहिए। यदि आदमी सत्य बोलने की हिम्मत न कर सके तो मौन हो जाए तो भी वह अपनी वाणी को संयमित कर सकता है और झूठ बोलने वाले पाप से भी बच सकता है। आदमी को अपने गुस्से को असत्य करने का प्रयास करना चाहिए। मन में कभी गुस्सा भी आए तो वाणी से गाली के रूप में या हाथ से मारपीट में प्रकट करने से रोकने का प्रयास करना चाहिए। ऐसा प्रकार कर आदमी अपने गुस्से को असत्य कर सकता है। गुस्सा कमजोरी को प्रदर्शित कर सकता है। आदमी को ऐसा प्रयास करना चाहिए कि मन में भी गुस्सा न आए।
यहां तक कि विभिन्न वेदों और शास्त्रों में भी वाणी संयम को सर्वश्रेष्ठ तप कहा गया है:
                             या ते जिव्हा मधुमति सुमेधाने देवेषूच्यत उरुचि 
 यानी, तू मीठी और सद्बुद्धि युक्त वाणी का प्रयोग कर, जिसे देव बोलते हैं। शास्त्र में कहा गया है, ‘झूठ बोलना, कटु बोलना, असंगत बात कहना, अहंकारयुक्त शब्द बोलना, निंदा करना आदि वाणी के ऐसे उद्वेग दोष हैं, जिनसे मनुष्य पग-पग पर संकट में पड़ता है। अत: एक-एक शब्द सोच-समझकर बोलना चाहिए।असंयमपूर्ण बोलने की अपेक्षा मौन रहना श्रेयस्कर है। सत्य, प्रिय और धर्मयुक्त वचन ही उच्चारित करने चाहिए। मनमाने ढंग से ऊटपटांग बोल देने वाला पग-पग पर शत्रु पैदा करता है।’ मीठे वचनों में इतनी शक्ति और आकर्षण होता है कि पराया आदमी भी मित्र व हितैषी बन जाता है, जबकि कटु वचन बोलने वाला भाई-बांधवों और मित्रों को भी दुश्मन बना लेता है।संत कबीर  ने भी कहा था ----
ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोय।
औरन को शीतल करै, आपहु शीतल होय। 
तलवार का घाव देर-सबेर भर जाता है, किंतु कटु वाणी से हुआ घाव कभी नहीं भरता। इसलिए हमेशामीठा और उचित बोलिए। खुद भी प्रसन्न होइए और दूसरों को भी प्रसन्न कीजिये।”
वाणी का संयम करने से वचन सिद्धि प्राप्त होती है। व्यक्ति बोली को तोल करके बोले, वाचाल व्यक्ति व अधिक बोलने वाला व्यक्ति इ'जत नहीं पाता, न ही उसकी बात का कोई मोल होता है। बोली के कारण ही महाभारत हुई।मृदुभाषी, मितव्ययी एवं उदारता वाला व्यक्ति विकास कर सकता है।