Thursday 7 December 2017

सुख की अनुभूति


जीता हुआ मन ही हमारा सच्चा मित्र मन किस प्रकार अपना ही मित्र एवं शत्रु हो सकता है, यह बात सहज ही एक शंका के रूप में हमारे सामने आती है। कहा गया है ......
बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः । अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्॥ 

इसका शब्दार्थ देखें— जिस (येन) विवेकयुक्त बुद्धि द्वारा (आत्मना) मन ही (आत्मा एव) जीत लिया है- वशीभूत कर लिया गया है (जितः), मन (आत्मा)उसके (तस्य) जीवात्मा का (आत्मनः) मित्र है (बन्धुः, किंतु (तु) अवशीभूत व्यक्ति का (अनात्मनः) मन (आत्मा) शत्रु की तरह (शत्रुवत्) शत्रुता का आचरण करने में (शत्रुत्वे) प्रवृत्त हो जाता है (वर्तते)। अर्थात् जिसने अपने आत्मा द्वारा अपने मन एवं इन्द्रियों सहित शरीर को जीत लिया है, उसके लिए यह आत्मा मित्र है; किंतु जिसने अपने आत्मा को जीता नहीं है, उसका आत्मा ही उसका विरोधी हो जाता है और उसके प्रति बाह्य शत्रु की तरह व्यवहार करता है। जीव को वह हर प्रकार की हानि पहुँचाता है। ,
जिसने अपने अहंकार को जीत लिया, उसके लिए उसका बौद्धिक व्यक्तित्व मित्र है (बन्धुरात्मात्मनस्तस्य) और यदि हम किसी कारणवश अपने मन, इन्द्रियों, बुद्धि वाले पक्ष पर नियंत्रण नहीं कर पाए तो, यह अविजित बुद्धि ही हमारे विरुद्ध एक भयावह अजेय शत्रु की तरह काम करती है। यहाँ वह अवधारणा स्पष्ट हो जाती है कि मनुष्य का अपना आपा कब मित्र हो जाता है, कब शत्रु। जिसने अपने को जीत लिया, अपनी इंद्रियों पर अपना स्वयं का नियंत्रण स्थापित कर लिया, उसका मन उसका मित्र है। संसार की आसक्तियों से स्वयं को हटाते चलना एवं भगवान् में मन लगाते चलना,  परमात्मा में स्वयं को सम्यक् रूप में स्थित करना ही एकमात्र बंधनमुक्ति का उपाय है।
मित्र- शत्रु हमारे अपने ही अंदर हम स्वभाव से बहिर्मुखी हैं। अपने मित्र एवं शत्रु हम बाहर ही ढूँढ़ते रहते हैं। वस्तुतः बाहर—बहिरंग जगत् में न तो हमारा कोई मित्र है और न कोई शत्रु ही है। ये सभी हमारे भीतर अंतरंग में विद्यमान हैं। हमारा अपना अहं जो अनुशासनों के पालन की बात आने पर बाधक बनने लगता है तथा हमारे अपने बौद्धिक व्यक्तित्व- परिष्कृत आत्मतत्त्व के मार्गदर्शन में चलने से इनकार कर देता है तो यह हमारी अभीप्साओं का, आध्यात्मिक आकांक्षाओं का आंतरिक शत्रु बन जाता है। इसके विपरीत सोचें—हमारा अहंकेंद्रित व्यक्तित्व हमारे मन- मस्तिष्क के, हमारे हित के लिए निर्धारित निर्देशों और सहज प्रभुकृपावश मिले मार्गदर्शन का अनुकरण करने लगता है तो यह हमारे आध्यात्मिक विकास में सहायक, हमारी भरपूर सहायता करने वाला हमारा मित्र बन जाता है। इसीलिए आत्मनिरीक्षण- ध्यान द्वारा अपने चित्त- मन का पर्यवेक्षण—परिशोधन अत्यंत अनिवार्य है।
शांति को पाने का मार्ग जिसने अपने मन को जीत लिया है, वह किन्हीं भी परिस्थितियों का सामना कर सकता है। परिस्थितियाँ उसके लिए बाधित नहीं होतीं। उसका मनोबल इतना प्रचंड होता है कि वह फिर किसी भी परिस्थिति से अप्रभावित रह अपनी आत्मिक प्रगति का पथ प्रशस्त करता चलता है। उसकी आत्मा उसके वश में होती है। यही नहीं, वह उस पराशांति को पहुँचा हुआ होता है, जहाँ उसकी परम आत्मा यह हुआ कि उसके ज्ञान में सिर्फ परमात्मा है और कुछ है ही नहीं। यह बहुत बड़ी उपलब्धि है एवं यह ध्यान से प्राप्त होती है, यह श्रीकृष्ण स्पष्ट कर रहे हैं। संयम की परिणति बड़ी विलक्षण है। इसका परिपालन करने पर हम सबके लिए वह दिव्य अनुभव संभव है, जिसमें हर क्षण हमें परमात्मा का सान्निध्य मिलता रहता है। ध्यान मात्र मन का व्यायाम या कसरत नहीं है, यह तो सीधे परमात्मा से संबंध स्थापित कराने वाली साधना है, पर यह इतनी आसान भी नहीं है। इसके लिए  श्रीकृष्ण ने कहा  हैं—(१) जिसने अपने ऊपर नियंत्रण स्थापित कर लिया हो (जितात्मनः), (२) जिसका मन पूर्णतः शांत हो (प्रशान्तस्य), वह सदैव परमात्मा की निरंतर बनी रहने वाली अनुभूति का लाभ लेता है (परमात्मा समाहितः)। फिर चाहे परिस्थितियाँ कैसी भी हों, उसका मन प्रचंड शक्ति से संपन्न होने के कारण जरा भी नहीं गड़बड़ाता। स्वयं पर नियंत्रण एवं मन की शांति—ऐसी दो अवस्थाएँ हैं, जिनसे हम इंद्रियों के बहिर्मुखी स्वभाव और मन- बुद्धि की बहिरंग प्रधान प्रवृत्तियों को नियमित बना पाते हैं। यह नियमन साधक के व्यक्तित्व के तीनों स्तर शरीर- मन, इन तीनों स्तरों पर होना है, इसीलिए गीताकार यहाँ मुहावरे का प्रयोग करते हैं ।। वे कहते हैं, चाहे कितनी भी ठंडी या गरमी का वातावरण (शीत उष्णेषु) हो, सुख- दुःखप्रधान परिस्थितियाँ (सुखदुःखेषु)हों और मान- अपमान की (मानापमानयोः) स्थिति हो, वह सदैव परमात्मा में लीन रह अपने अंतरंग—मन को शांतिपूर्वक साधता हुआ जीवन जीता है।
       शीत- उष्ण की बात शरीर के स्तर पर, सुख- दुःख की बात मन के स्तर पर तथा मान- अपमान की बात बौद्धिक स्तर पर लागू होती है। ये अनुभव दोनों प्रकार के हो सकते हैं—अनुकूल भी, प्रतिकूल भी। मुक्तपुरुष जो बिना किसी कामना या आसक्ति के कर्म करता है, उस पराशांति की स्थिति में पहुँचा हुआ होता है, जहाँ उसकी परमात्मसत्ता उसके सामने सतत विद्यमान रहती है। यह सत्ता मन की जाग्रत् अवस्था में भी, वासना और अशांति की परिस्थितियों के मौजूद होते हुए भी तथा शीतोष्ण, सुख- दुःख, मानापमान आदि द्वंद्वों की स्थिति में भी समाहित रहती है। यह मनुष्य की उच्चतर विकसित स्थिति है। ध्यानयोग की पूर्व तैयारी वस्तुतः दिव्यकर्मी साधक, जिसे श्रीकृष्ण ध्यान करना सिखा रहे हैं, इस समय अर्जुन के रूप में उनके समक्ष मौजूद है। हम सबका वह एक प्रतीकरूप में माध्यम है, अपने गुरु योगेश्वर से यह जानना चाह रहा है कि जब मैं इस स्थिति में प्रवेश करूँगा तो क्या परेशानियाँ आ सकती हैं? श्रीकृष्ण तो मन को पढ़ लेते हैं। अभी अर्जुन का एक प्रश्र थोड़ी देर बाद प्रतीक्षित है, जिसमें वह मन की चंचलता की बात कहता है; किंतु उससे भी पूर्व श्रीकृष्ण उसे ध्यानयोग की तैयारी के विषय में बता रहे हैं। जब व्यक्ति चित्त में प्रवेश करता है तो चित्त के संस्कार, कई प्रकार की यादें, अतृप्त कामनाएँ मस्तिष्क- पटल पर आने लगती हैं। ऐसी स्थिति में दिखने वाला मन व देखने वाला मन दोनों ही द्रष्टा बन जाते हैं। यदि इंद्रियाँ मजबूत नहीं हुईं, उन पर नियंत्रण नहीं हुआ तो ध्यान लगाना तो दूर, कई प्रकार के चित्र- विचित्र दृश्य कुसंस्कारों के ‘प्रोजेक्शन’ के रूप में दिखाई देने लगेंगे। हमारा अचेतन परिष्कृत हो, इंद्रियाँ हमारी अपने ही नियंत्रण में हों तथा हम शांत मनःस्थिति में हों, तो हमारे ध्यानस्थ होने की तैयारी पूरी हो जाती है। जब मनुष्य संसार की आसक्तियों से हटकर भगवान् की ओर बढ़ता है, तो उसका मन धीरे- धीरे शांत होने लगता है। श्री रामकृष्ण परहंस के अनुसार, ‘‘जैसे- जैसे हम काशी की ओर बढ़ते हैं, कलकत्ता पीछे छूटता चला जाता है।’’ इस पंक्ति के पीछे संकेत है कि जैसे- जैसे भोगवाद से पीछा छूटता है, व्यक्ति मन की शांति, आत्मिक प्रगति की ओर बढ़ने लगता है।
संग्रहीत -----
उत्तम जैन ( विद्रोही ) 

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