गुजरात और हिमाचल प्रदेश के विधानसभा सदस्यों के चुनाव परिणाम बीजेपी के पक्ष मे आये हैं और जनमत स्वयं ही उठते हुए प्रश्नों का उत्तर देता प्रतीत हुआ है, फिर भी इस दौरान चर्चा में आए कुछ वक्तव्य अनायास ध्यान आकृष्ट करते हैं। अभी कांग्रेस के नव निर्वाचित अध्यक्ष राहुल गाँधी ने यह कहकर सोचने को विवश कर दिया कि वर्तमान केन्द्रीय पार्टी बी.जे.पी देश को पीछे ले जा रही है।
मन में एक प्रश्न उठता है कि कहीं यह सच तो नहीं। बीजेपी के केन्द्रीय सत्ता में आते ही जिस प्रकार हिन्दुत्व को मुख्य मुद्दा बनाकर हिन्दू संगठनों ने गो रक्षा, बीफ निषेध आदि कार्यक्रमों को हिंसक तौर पर अंजाम देना आरंभ किया, उसने एक बार तो देश को झकझोर दिया। पूरे बौद्धिक समाज को नागवार प्रतीत हुआ। घोर प्रतिक्रियाएँ हुईं, विशेषकर उस जनसंख्या के द्वारा, जो खाने पीने में में किसी प्रकार के वाह्य बंधन को स्वीकार करना नहीं चाहती।
ग्रामीण परिवेश को छोड़ दें तो भी किसी भी श्रेणी के नगरों में रहने वाले प्रगतिशील नागरिक जो मिश्रित संस्कृति को प्रश्रय दे रहे हैं, इस बंधन को स्वीकार करने से कतरा रहे और तत्सम्बन्धित स्वतंत्रता के पक्षपाती हैं, उनमें अधिकांश परिवार के सदस्य विदेशों में भी रहते हैं। विदेशी सभ्यता मे घुलमिल गये हैं। वहाँ के रहन सहन को अपनाकर अपने को भारतीय मानते हैं, हिन्दू की वृहत परिभाषा के अन्तर्गत स्वयं को हिन्दू मानते हैं। इसके लिए उन्हें किसी जनेऊ के सर्टीफिकेशन की आवश्यकता नहीं पड़ती।
उनकी इच्छा पर ही बीफ खाना या नहीं खाना निर्भर करता है। वे वहाँ भी अपनी सामाजिक विचारधाराओं का पोषण करते हैं। उनके खान पान सम्बन्धी विचार भी यहाँ आयातित होते रहते हैं। परिणामतः तत्सम्बन्धित बन्दिशों को वे स्वीकार करना नहीं चाहते और किसी भी स्थिति मे गोबर खाकर शुद्धि की आवश्यकता उन्हें नहीं पड़ती। ये भारतीय विवश उदारता के शिकार हैं, जिसकी आज के उस समाज में परम आवश्यकता है।
यों भी इस देश की धर्म निरपेक्ष लोकतंत्रीय व्यवस्था के कारण हम किसी के खान पान पर बंदिशें नहीं लगा सकते। सुदूर उत्तर पूर्वी राज्यों से लेकर दक्षिण और पूर्वी से लेकर पश्चिमी राज्यों तक में खान पान की इतनी निज की विविधताएँ हैं। हम उनमें से किसी के प्रयोग में हस्तक्षेप नहीं कर सकते। गौ के प्रति हिन्दुओं के पूज्यभाव के परिणामस्वरूप अचानक बीफ के प्रयोग के प्रति आक्रोश जनित हलचल ने बीजेपी को आलोचना का केन्द्र बना दिया। साथ ही गोरक्षा से सम्बन्धित कानूनों ने खरीदने बेचने पर रोक लगाकर अचानक ही बीजेपी ने अपनी तस्वीर विवादास्पद बना ली। हालांकि जनविरोधों को देखते हुए और उच्चतम न्यायालय के हस्तक्षेपों से उन्होंने ऐसे कानूनों को वापस लिया।
अयोध्या में सामाजिक समरसता को चोट तो उन लोगों के माध्यम से लगती है जो अभी भी वहाँ राम मन्दिर का विरोध करते नजर आते हैं। एक भारतीय होने के नाते राम और कृष्ण की संस्कृति को अगर हर व्यक्ति अपने धर्म से जोड़े बिना ही सामाजिक आदर्श रूप में स्वीकार करे तो क्या हानि है? वे सामाजिक आदर्श हैं, किसी के देवता हों या न हों। इन आदर्शों पर भारतीय समाज स्थापित है और विश्व में विशेष आदर का पात्र भी। इन आदर्शों में जो स्थायित्व है, सार्वदेशिक सार्वकालिक सत्य है वह सबके लिए अनुकरणीय हो ही सकता है।
मूल बात से न भटकते हुए हम यह कहना चाहूँगा कि यद्यपि बीजेपी समाज की पिछली सामाजिक व्यवस्था और चिंतन की ओर मुड़मुड़ कर देखती है, उसे अपनाने की दिशा में आगे बढ़ना चाहती है पर आधुनिक स्थितियों में संभल भी जाती है। यह उसकी कमजोरी नहीं बहुत बड़ी विशेषता है और जहाँ तक देश को आधुनिकतम विकास की ओर ले जाने की बात है, वह पीछे नहीं हट रही है। गुजरातमें अपने प्रचार के दौरान जल और नभ में चलने वाले समुद्री वायुयान सीप्लेन से सफर कर एक उदाहरण प्रस्तुत किया। बुलेट ट्रेन की बुनियाद रखी।
भ्रष्टाचार मिटाने की दिशा में, एवं स्वच्छ भारत की दिशा और जीएसटी जैसे दूरगामी परिणामों वाले कार्यक्रमों में इमानदारी से किए गए प्रयत्न और हर क्षेत्र में आधुनिकता का समावेश करने की कोशिश तो की ही गयी है। भूलों को मानते हुए सुधार भी किए। ऐसी स्थिति में चंद सहायक पार्टियों के द्वारा किए गए गैर संवैधानिक, गैर जिम्मेदाराना ढंग से कानून उल्लंघन के प्रयासों से उसके अस्तित्व का आकलन नहीं करना चाहिए। उन पर रोक लगाने की दिशा में प्रयत्नशील होना चाहिए। आखिर विपक्षी दलों की अनिवार्य भूमिका की ऐसे समयों में ही परख होती है। उनकी राजनीति नकारात्मक नहीं सकारात्मक होनी चाहिए और अगर हम अपनी विशिष्ट संस्कृति की रक्षा करते हुए आगे बढ़ते जाएँ तो कोई हानि नहीं है।
धुर विरोधी प्रवृतियों के कारण ही काँग्रेस आज बहुसंख्यक समाज में अपनी पैठ खो रही है। राजनीति की तुष्टीकरण की नीति आखिर कब तक कारगर हो सकती है। उसने हिन्दुओं को आतंकवादी का दर्जा दे दिया और आतंकवाद को प्रश्रय देने वाले देश के साथ गुपचुप साँठगाँठ में प्रवृत्त हुई। यह सब प्रमाणित हो या नहीं पर भारतीय जनता अब उस दल के द्वारा स्वतंत्रता पश्चात के सारे हथकंडों को समझ चुकी है। मंदिर-मंदिर जाकर अब सिर झुकाने से पुरानी धारणाएँ मिटने वाली नहीं हैं। यह एक नाटकीयता है। कृत्रिमता का आभास हुआ। भारतीय संस्कृति की ओर मुड़ना प्रिय तो लगा, अगर यह आगे भी जारी हो तो इसके दूरगामी फल अवश्य होंगे। अध्यक्ष के रूप में राहुल गाँधी से ऐसी कुछ अपेक्षाएँ तो अवश्य हैं कि वे अपने दल की विचारधाराओं में संशोधन के पक्षधर होंगे।
एक दूसरा वक्तव्य जो समाचारपत्रों से उभर कर सामने आया वह धर्मांतरण से सम्बद्ध है। वस्तुतः धर्मांतरण अगर बलात् करवाया जाए तो यह पूर्णतः गलत है। पर धर्म तो निजी विश्वास पर आधारित है। हम घर में राम कृष्ण की पूजा कर चर्च जाकर अनायास हृदय पर क्रास अंकित कर लेते हैं तो हमारा धर्म हमसे रुष्ट नहीं होता। अगर हम अपने धर्म को मानते हुए दूसरे धर्म को आदर दें, उसके संदेश को समझें तो गलत क्या है?
अपने धर्म को मानते हुए दूसरे से घृणा करना आवश्यक तो नहीं। घर वापसी अभियान अच्छा है। अगर बलात् दूसरे धर्म को मानकर कोई कष्ट पारहा हो तो अपने धर्म के दरवाजे उसके लिए खोल देना हमारे उदार दिल का परिचायक होगा। पर इस धर्मनिरपेक्ष देश में किसी क्रिश्चियन संस्थान में क्रिसमस पर्व को इसलिए मनाने से रोकने को कहना कि वहाँ अधिसंख्यक हिन्दू विद्यार्थी हैं और यह क्रिश्चियन धर्म में प्रवृत्त करने का उनका आरंभिक तरीका हो सकता है, गलत है।
मार-मारकर किसी को हकीम नहीं बनाया जा सकता। उसके लिए हकीमी इल्म की जानकारी और प्रवृति होनी चाहिए। अगर इन संस्थानों से ऐसा ही भय हो तो अन्य धर्म के लोगों को उसमें प्रवेश ही नहीं लेना चाहिए। लगाम मन की प्रवृतियों पर लगानी चाहिए। दूसरों पर लगाम लगाने की क्रिया अगर बी जे पी अथवा हिन्दू जन जागरण मंच द्वारा की जाती है तो उसपर लगाम लगाने की आवश्यकता है।
यह भय पालकर कि दूसरे अपने धर्म में उन्हें सम्मिलित कर लेंगे- नहीं जिया जा सकता। इसका स्पष्ट ही तात्पर्य है कि हमारे धर्म में कुछ कमियाँ हैं जिसको दूसरे धर्म अपनी विशेषताओं से दूर करते हैं। क्यों न ऐसी कमियों को हम दूर कर लें। हमें आत्मानुशीलन कर आत्म नियंत्रण की कला सीखनी होगी अन्यथा ऐसे व्यवहारों से लोकप्रियता घट सकती है।
लेखक - उत्तम जैन ( विद्रोही )
मो -84607 83401
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