कल मुझे सूरत के एक वृद्धाश्रम मे जाने का सोभाग्य मेरे कवि मित्र श्री सुरेन्द्र ठाकुर (अज्ञानी ) के कारण प्राप्त हुआ ! जहा अज्ञानी जी व साथी कवियों ने काव्य पाठकर वृद्धजनो को चेहरे पर हास्य के रंग मे मशगूल कर दिया मे स्वयं मंच पर बेठे एक चिंतन कर रहा था वृद्धाश्रम क्यों?
कुछ लोग कहते हुए हम सुनते हैं कि जिन माता-पिता ने अपने जीवन की सारी पूँजी और खुशियाँ अपने बच्चों के पोलने-पोसने और उनका भविष्य बनाने में लगा दी क्या उनके प्रति संतान का कोई कर्तव्य नहीं है?
कर्तव्य है, परंतु कर्म पर हमारा अधिकार है, फल पर नहीं। श्रीमदभगवद्गीता में कहा गया है “कर्मण्येवाधिकारस्ते माफलेषु कदाचन।” संतान के पालन-पोषण करने और उसे योग्य बनाने में माता-पिता जो खर्च करते हैं, कुछ को लगता है उसका कई गुना करके संतान उन्हें लौटाए। संतान का पालन-पोषण करना निवेश नहीं, उत्तरदायित्व है। माता-पिता ने तो अपना उत्तरदायित्व पूरा कर दिया; अब संतान को अपना कर्तव्य पूरा करना है। लेकिन आज के नवयुवक भूल जाते हैं कि झुर्रियों का भी अपना सौंदर्य होता है। बुजुर्गों के आशीर्वाद के लिए उठे हुए हाथ और उनके पोपले मुँह से निकली हुई दुआओं का भी महत्व होता है।
भारत-जैसे सांस्कृतिक देश में वृद्धाश्रमों की आवश्यकता क्यों होनी चाहिए? यदि हम उनके अकेलेपन के साथी बन जाएँ, तो उनका बुढ़ापा अभिशाप नहीं, वरदान बन सकता है। आवश्यकता है उन्हें समझने की, अपनत्व देने की, उनके साथ बातचीत करने की, उनकी भावनाओं की कद्र करने की, विशेष रूप से उन्हें मोरेल सपोर्ट देने की, उनके अनुभव से कुछ सीखने की। ऐसे करके हम इनपर कोई अहसान नहीं करेंगे, बल्कि अपना भविष्य ही सँवारेंगे। कल हमें भी इस अवस्था में पहुँचना है और हमारे बच्चों को युवा होना है।
प्रश्न यह है वृद्धाश्रम क्यों?
भारतीय संस्कृति में संयुक्त परिवार की कल्पना की गई है। इसमें एक ही छत के नीचे तीन पीढ़ियाँ एक साथ प्रेम, सौहार्द्र और सद्भाव के साथ रहती हैं। घर-परिवार के कामों में बुजुर्गों का सलाह-मशविरा लिया जाता है। माता-पिता को सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था का स्तंभ माना जाता है। लेकिन वर्तमान समय की सचाई है कि “जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरियसि” वाले देश में माता-पिता को विशेष रूप से बुजुर्गों को तिरस्कृत, उपेक्षित और अपमानित किया जाने लगा है। उन्हें यह अहसास कराया जाता है कि परिवार के अहम् फैसलों में उनकी कोई भूमिका नहीं है। चुपचाप घर में पड़े रहें और दो रोटियाँ मिल रही हैं, खाते रहें। उन्हें घर में अलग-थलग कर दिया जाता है। उनकी अनुभवसिक्त बातों पर दकियानूसी होने का लेबल चस्पा कर दिया जाता है। आधुनिकता के इस दौर में अपने ढंग से जीने की ललक और व्यक्तिगत जिंदगी आजादी से गुजारने की चाह में संवेदहीन हुए लोग बुजुर्गों की भावनाओं को समझ पाने में असमर्थ हो गए हैं। इसके अतिरिक्त अधिकांश नवयुवक अपनी जिंदगी को बेहतर बनाने के लिए अपने पैतृक घर से दूर चले जाते हैं। भौतिक दूरियाँ बढ़ने के साथ-साथ दिलों की दूरियाँ भी बढ़ती जा रही हैं। यही कारण है देश में वृद्धाश्रमों की संख्या बढ़ती जा रही है। और जो परिवार के साथ रहते हैं वे भी सुखी कहाँ है? एक शोध के अनुसार अपने परिवार के साथ रह रहे लगभग 40 प्रतिशत बुजुर्गों को मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना का शिकार होना पड़ता है। इनमें से 16-17 प्रतिशत मामले ही सामने आ पाते हैं। हिंदी में एक कहावत प्रसिद्ध है – माता-पिता मिलकर दस संतानों को पाल देते हैं, लेकिन दस संतान मिलकर माता-पिता को नहीं पाल सकतीं।
वृद्धावस्था वर्तमान की ही समस्या नहीं है; हमारे प्रचीन ग्रंथ ‘वैराग्य शतक’ में भी इसका बड़ा मार्मिक और दर्दनाक वर्णन मिलता है, जिसमें पत्नी के सेवा न करने और पुत्र के शत्रुवत् व्यवहार की पीड़ा है। वतर्मान समय में यह समस्या विकराल रूप धारण करती जा रही है और बुढ़ापा अभिशाप लगने लगा है। कहा जाता है कि माता पिता के चरणों में स्वर्ग होता है एवं माता पिता की सेवा से साक्षात ईश्वर की प्राप्ति होती है ! हमारे देश में जहाँ श्रवण कुमार जैसे पुत्र ने जन्म लिया हो, यह देखकर हैरत होती है कि अत्यंत संपन्न व समृद्ध परिवार के महानुभाव भी अपने बुजुर्गों को भगवान् भरोसे “वृद्धाश्रम” में छोड़ देते है !
शारीरिक रूप से सर्वथा अशक्त व असहाय हो चुके वृद्धों को जिस समय अपनों के अपनेपन की सर्वाधिक आवश्यकता होती है, उस समय वे निराश, हताश, अपनी प्रिय संतानों से दूर, वृद्धाश्रम में एकाकी जीवन व्यतीत करने को बाध्य होते दिखाई देते हैं ! निसंदेह आज के ये वृद्धाश्रम आधुनिक सुविधा संपन्न होते हैं तथा उन्हें सुरक्षा व सुविधा भी प्रदान करते हैं पर अपनी उम्र के इस पड़ाव पर हमारे वृद्धों को ये आश्रम क्या भावात्मक सुरक्षा, आत्मीयता स्नेह दे सकते हैं जो अपनी संतान से और पारिवारिक सदस्यों से प्राप्त हो सकता है ? यह चिंतनीय व विचारणीय बिंदु है
लेखक - उत्तम जैन (विद्रोही )
संपादक - विद्रोही आवाज़
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