यह धारणा पुरानी और रद्दी हो चुकी है कि भारत में चुनाव चुनाव आयोग कराता है। नई धारणा और तथ्य यह है कि भारत में चुनाव न्यूज़ चैनल कराते हैं। चैनल के लोग रिटर्निंग अफसर की भूमिका में हर कार्यक्रम में किसी एक दल की जीत का एलान करते रहते हैं। चुनाव के वक्त नए नए चैनल खुल जाते हैं। नई वेबसाइट बन जाती है। इन्हें लेकर आयोग की कोई रणनीति नज़र नहीं आती है। इसलिए पारंपरिक रूप से अति महिमामंडन की शिकार इस संस्था का तरीके से मूल्यांकन होना चाहिए। चुनाव आयोग समय से पीछे चलने वाली एक पुरातन संस्था है। आयोग के पास राजनीतिक निष्ठा और भय के कारण किसी एक दल की ओर झुके मीडिया को पकड़ने का कोई तरीका नहीं है। पेड न्यूज़ की उसकी समझ सीमित है। आयोग अभी तक एग्ज़िट पोल के खेल को ही समझ पाया है। उसके पास किसी सर्वे के सैंपल जांचने या देखने की कोई समझ नहीं है। अधिकार तो तब मांगेगा जब समझ होगी। न्यूज़ एंकर पार्टी महासचिव की भूमिका में पार्टी का काम कर रहे हैं। एक दल की दिन भर पांच पांच रैली दिखाई जाती है। एक दल की एक भी रैली नहीं दिखाई जाती है। सत्ताधारी दल ने बड़ी आसानी से प्रचार के ख़र्चे और तरीके को बदल कर मीडिया को मिला लिया है। एंकर और पत्रकार अब राजनीतिक दलों के महासचिव हैं और इसमें एक दल की प्रमुखता कायम हो गई है। आयोग के पास ऐसी कोई समझ नहीं है कि वो रैलियों के प्रसारण को लेकर संतुलन कायम करने का कोई नियम बनाए। अख़बार तो आयोग से बिल्कुल ही नहीं डरते हैं। एफ आई आर के बाद भी कुछ फर्क नहीं पड़ा है। राजनीतिक दलों ने अपने ख़र्चे और रणनीति मीडिया को आउटसोर्स कर दिया है। बार्टर(वस्तु विनिमय) सिस्टम आ गया है। विज्ञापन दीजिए और उसके बदले रैली का सीधा प्रसारण घंटों दिखाइये।
इस युग में किसी चुनावी रणनीति की कल्पना बग़ैर मीडिया के नहीं हो सकती है। मायावती ने अपने जीवन के सबसे महत्वपूर्ण चुनाव को बग़ैर मीडिया के लड़ा है। उनके लिए ऐसा करना आसान नहीं रहा होगा। कायदे से उन्हें मीडिया के लिए उपलब्ध होना चाहिए था मगर क्या यह सच नहीं है कि मीडिया बसपा को पार्टी ही नहीं मानता है। मायावती को घेरन वाले विरोधी दल टीवी के इस्तमाल से समानांतर माहौल रच रहे थे। कोई भी देखने वाला चकरा जाए कि शायद चुनाव का यही माहौल है। मायावती मीडिया की लगातार बनाई जा रही घारणाओं को नज़रअंदाज़ करती रहीं हैं।
इस बात के लिए भी रिसर्च होनी चाहिए कि बग़ैर घनघोर मीडिया के एक नेता आज भी अपने वोटर से और वोटर अपने नेता से कैसे संबंध बनाए रखता है। मायावती भले न दबाव में आती हों मगर वोटर तो उसी मीडिया समाज में रहता है। उस मतदाता के लिए अपने नेता के साथ खड़े रहना कम आसान नहीं रहा होगा। बसपा का कार्यकर्ता तो दस जगह उठता बैठता होगा,वो कैसे उस पार्टी के लिए काम करता होगा जो मीडिया में नज़र नहीं आती है मगर उसकी नेता चार बार मुख्यमंत्री बन चुकी हैं।
उत्तर प्रदेश में चुनाव खत्म होते हैं, परिणाम आते ही कांग्रेस और सपा की ओर से हार स्वीकार कर ली जाती है और आत्ममंथन की बात कह कर बात खत्म कर दी जाती है। क्या राजनीति सिर्फ इतनी होती है? नहीं! राजनीति जीत और हार पर खत्म नहीं होती; बल्कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया में जीत और हार से ही राजनीति शुरू होती है। जिसे साबित करते हुए मायावती सामने आती हैं और “भाजपा की जीत” का कारण ईवीएम को बता देती हैं।
ध्यान दीजिये ” मायावती ने परंपरागत रूप से अपनी हार को स्वीकार नहीं करतीं बल्कि दोष तकनीक और सरकार पर डालती हैं”। विश्लेषक इसे अपने हिसाब से देखते होंगे , मगर ये उससे ऊपर की बात है। यहाँ पर मायावती ने वही किया जो पूरे देश में महज चन्द विधानसभा सीटों पर रह जाने वाली पार्टी के नेता द्वारा किया जाना चाहिए। राजनीतिक प्रबंधन के सूरमा कहे जाने वाले प्रशांत किशोर के दिमाग में ये रणनीति शायद आयी ही न हो जो मायावती ने अपने लिए खेल डाली! आज पूरे देश के समाचारों में विजेता मोदी के साथ अगर किसी की चर्चा की जा रही है तो वह नाम है मायावती। ये अखिलेश भी नहीं है जो कि पूरे चुनावी रण में मोदी से सीधे टक्कर लेते रहे, ये नाम उस पार्टी की नेता का है जो महज़ 19 सीटों के साथ गर्त में डूब चुकी है। अखिलेश की तरह मायावती भी “हार स्वीकार” करते हुए आत्म-मंथन पर चली जातीं तो क्या होता ? अगले दिन की सुर्खियां सिर्फ मोदी और भाजपा की प्रचंड जीत पर केंद्रित होकर रह जाती, 19 सीटों वाली मायावती को कोई न पूछता कि कहाँ हैं, कहाँ गयीं? सिर्फ इतना ही नहीं उन्हें वोट देने वाले लोग भी यह समझ जाते कि हमारा नेतृत्व समाप्त हो चुका है और अब पाला बदलने में ही लाभ है। जिसका परिणाम यही होता कि भविष्य में होने वाले चुनावों में मायावती को कोई महत्व नहीं मिल पाता।
मगर मायावती ने अपने अस्तित्व को इस हश्र से बचा लिया है, उन्होंने अखिलेश की तरह हार स्वीकार करने की भूल नहीं की; बल्कि एक तीर से दो शिकार किये हैं । एक ओर जहाँ मायावती ने हार मान चुके नेताओं के बीच मोदी के सामने डटे रहने की दम दिखाई है, वहीं अपने खत्म होते वोट-बैंक को पूरी तरह अलग होने से बचा लिया है। अब तर्क चाहे जो भी दिए जाएँ जनता के मन में यह डाल दिया गया है कि मोदी की यह जीत मशीन की देन है। ये बात मायावती भी अच्छी तरह से जानती हैं कि ईवीएम में कोई खराबी नहीं है। मगर जब बात अस्तित्व के ही खत्म होने की हो तो यह दांव जरूरी था, और इस दांव से मायावती ने स्वयं को अपने समर्थकों के सामने न सिर्फ ‘छल की शिकार’ के रूप में प्रस्तुत किया है बल्कि छिटके हुए वोटर्स के मन में भी ‘पीड़ित’ वाली छाप छोड़ने का प्रयास किया है। अब मायावती और बसपा का भविष्य क्या होगा यह भविष्य ही बताएगा; लेकिन हाल फिलहाल में तो EVM के हंगामे ने सुर्ख़ियों में बचा ही लिया है।
उत्तम जैन ( विद्रोही )
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