Wednesday, 22 March 2017

नाजायज़ विरोध है मुसलमानो का


यह एक कटु सत्य है कि आज भारतीय महाद्वीप में जितने भी मुसलमान हैं , उनके पूर्वज कभी हिन्दू थे, जिनको मुस्लिम बादशाहों ने जबरन मुसलमान बना दिया था ! राम मंदिर का निर्माण हिन्दुओ का सदेव मुद्दा रहा है क्यू की हिन्दूओ की आस्था प्रमुख कारण है  समय समय पर इन आस्थाओ को नेताओ व राजनीतिक पार्टियो ने राजनीतिक स्वार्थ के लिए खूब अच्छे से भुनाया भी है ! मगर आज हर हिन्दू का सपना है राम जन्म भूमि पर मंदिर निर्माण करना है अब उत्तरप्रदेश मे योगी जी के मुख्यमंत्री बनने व भाजपा के पूर्ण बहुमत से सरकार बनने व माननीय अदालत के सुझाव की दोनों पक्ष आपस मे बेठकर निर्णय करे फिर यह मुद्दा ताजा हुआ है !
 न्यायालय का यह सुझाव कि मंदिर विवाद दोनों पक्ष आपस में सुलझा लें मुसलमानों ने मानने से इनकार कर दिया है। जफरयाब गिलानी ने कहा कि राम का तो अस्तित्व ही नहीं था फिर आस्था कैसी? निश्चित तौर पर गिलानी की इस बात पर हर मुसलमान ताली पीट रहा होगा। जो मुसलमान राम के पाँच हजार साल पहले के अस्तित्व को नकार रहे हैं वो अपने आराध्य के मात्र डेढ़ हजार साल से भी कम समय के अस्तित्व का कोई प्रमाण दे दें क्योंकि यह तो आसान होना चाहिए परन्तु बात वही है कि सपने तो सपने ही होते हैं सपनो का प्रमाण नहीं होता।
राम मंदिर स्थल की खुदाई में बहुत सी ऐसी वस्तुएँ मिली हैं जो सैकड़ों हजारों वर्ष पीछे की कहानी कहती हैं। ये वस्तुएँ राम मंदिर का प्रमाण भी देती हैं। कोई किसी के घर में कब्जा कर ले तो जिसके घर पर कब्जा हुआ है वो अपना अधिकार जरूर ही माँगेगा भले सौ या हजार साल बाद माँगे क्योंकि वो तभी माँगेगा जब वह सक्षम हो जाएगा। वैसे भी भारत में राम ही पैदा हुए थे न कि बाबर फिर बाबरी मस्जिद कैसे बन सकती है। निश्चित ही आततायी बाबर आया और हिजड़े और आपस में दुश्मनी रखने वाले हिंदू राजाओं को मार काट कर मंदिर की जगह मस्जिद बनवा गया। नमाज़ पढ़ने के लिए कुछ नपुंसक कायर हिंदुओं को मुसलमान बनाया उनकी औरतों को बलात्कार कर दोगली संतानें पैदा की और यह सब इतना किया कि यह संख्या काफी बढ़ गई। इनको पीढ़ी दर पीढ़ी गँवार बनाए रखा और डर भय से कट्टर बनाया। वही लोग है जो आज हमको सेकुलर देखना चाहते हैं परन्तु खुद बाबर बनकर हमें दबाना चाहते हैं। और जो कुछ अच्छे मुसलमान निकल जाते हैं उनको ये कट्टरपंथी मुसलमान तक नहीं मानते हैं। आज के दोगले हिंदू नेता ही आज की विषम परिस्थितियों के जिम्मेदार अधिक हैं। सत्य यही है कि बात चाहे आस्था की की जाए या फिर साक्ष्यों की अयोध्या राम की नगरी थी है और रहेगी। वहां राम मंदिर था और होना चाहिए। शायद कुछ अच्छे लोगों की अच्छाई को मान्यता मिलेगी और मंदिर निर्माण होगा। कांग्रेस सपा बसपा जद (ए टू जेड) टीएमसी आदि के गंदगी के कीड़े जैसे लोग नाली की गंदगी और नहीं फैला पाएंगे। बदबू समाप्ति की ओर है…. 
उत्तम जैन (विद्रोही )

अंगदाता परिवार सन्मान समारोह

अंगदाता परिवार सम्मान समारोह में सादर आमंत्रण
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जैसा कि आप सभी को विदित ही होगा कि गत दिनों अड़ाजण रोड़ निवासी उर्विश भाई एंव विश्वा बेन  गोलवाला की साढ़े तीन वर्षीय लाडली बिटिया डिजा को मष्तिस्क में पानी भर जाने से  BAPS  हॉस्पिटल में उपचार हेतु भर्ती कराया गया था, जहां डॉक्टरों ने डिजा का ब्रेन डेड घोषित कर दिया था, और इस नन्ही सी खूबसूरत परी को बचाया नही जा सका, इन परिस्थितियों के चलते शहर में अंगदान हेतु जागरूकता अभियान में सेवारत 'डोनेट लाइफ' के अध्यक्ष श्री नीलेश भाई मांडलेवाला ने डिजा के अभिभावकों से सम्पर्क कर डिजा के अंगदान हेतु निवेदन किया, जिसे गमगीन परिवार जनों ने स्वीकृति प्रदान कर दी थी, तथा 'डोनेट लाइफ' के प्रयासों से डिजा के शरीर से 2 किडनी  एक लिवर व नेत्र संग्रहित कर दिया गया, डिजा के शरीर से प्राप्त एक किड़नी पोरबन्दर के 8 वर्षीय गोकुलेश ओडेदरा तथा दूसरी किड़नी अहमदाबाद की 6 वर्षीय रितिका देसाई व लिवर विसनगर के 5 वर्षीय श्रेय पटेल के प्रत्यारोपण कर दिया गया था व नेत्र लोकदृष्टि नेत्र बैंक के डॉ प्रफुल्ल भाई सिरोय्या ने स्वीकार किए थे, दिवंगत डिजा जाती जाती तीन बच्चों को नवजीवन प्रदान कर गई, इस मानवतावादी प्रयासों हेतु डिजा के परिवार जनों की जितनी प्रशंसा की जाए उतनी कम हैं, इन प्रयासों को सम्मान प्रदान करने हेतु 'बेटी बचाओ राष्ट्रीय अभियान' द्वारा आगामी शुक्रवार 24 मार्च 17 को शाम 7 बजे सिटीलाइट स्थित अग्रसेन भवन के बोर्ड रूम में एक सम्मान समारोह आयोजित किया गया हैं, इस सम्मान कार्यक्रम में शहर की तमाम संस्थाएं तथा सदस्य गण अंगदाता परिवार का सम्मान कर सकते हैं, आप सभी से अनुरोध हैं कि इस मानवता वादी प्रयासों की अनुमोदना करने हेतु आप अपने इष्ट मित्रों सहित अवश्य उपस्थित रहें,
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अंगदाता परिवार का सम्मान कार्यक्रम
दिनांक- शुक्रवार, 24 मार्च, शाम 7 बजे
स्थान- अग्रसेन भवन, सिटीलाइट, सूरत
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              ÷सम्पर्क सूत्र÷
नरेश मंड्रेलिया-07405294311
विनोद अग्रवाल-09374529441
गणपत भंसाली-09426119871

Saturday, 18 March 2017

भूतकाल व वर्तमान ...... बीती ताही बिसार दे

हममें से अधिकतर लोग क्या भूत के विलाप और भविष्य की चिन्ता में ही जीवन  बिता देते है  ओर वर्तमान क्षण के सुख से वंचित रह जाते हैं। हम जीवन के सौन्दर्य व आनन्द को भूल जाते हैं। यह सब हमारी मनःस्थिति के कारण होता है।हमारा   दृष्टिकोण ऐसा ही होना चाहिए की  हमारे पास केवल यही क्षण है। इसमें अपने पूर्वनिर्धारित मतों के साथ प्रवेश न करे । जब हम भूतकाल पर विलाप करते हुए अथवा भविष्य की चिंता में जीते हैं तो वर्तमान क्षण के सौन्दर्य की अनुभूति से चूक जाते हैं।  विषमताओं को देख कर हमें न तो हवा में उड़ना चाहिए और न ही कागज़ की किश्तियों जैसे डूब जाना चाहिए। लिखते समय, हम एक वाक्य के बाद विराम-चिन्ह क्यों लगाते हैं? ताकि नया वाक्य शुरू कर सकें। हमारा जीवन भी ऐसा ही होना चाहिए। पीड़ा के समय लक्ष्य  को कस कर पकड़े रहें। और इससे भी बढ़ कर, जीवन का अन्त करने का प्रयास तो कभी नहीं करना चाहिए। भटकता मन हमें बहुत कुछ कहेगा। पर कठिन समय के चलते हमारा मन टूट कर बिखर न जाए। मन को सम्भालो। काल का पहिया घूमता रहता है। प्रारब्ध कितने ही रूपों में हमारे सामने आता है। परिवर्तन कभी शीघ्र आता है तो कभी देरी से। इसलिए कठिनाइयों के कारण जीवन का अन्त करने का विकल्प कभी अपने मन में न लायें। कठिन समय को प्रार्थना व लक्ष्य  बदल सकता है। प्रार्थना व लक्ष्य के माध्यम को पकड़े रखो। हर समस्या का समाधान होता है। कुछ रोगों का इलाज दवा से होता है, कुछ को ओपरेशन की ज़रूरत होती है। ऐसा ही कठिनाईयों को ले कर भी होता है। अतः लक्ष्य व आत्म विश्वाश को कस कर पकड़े रखो। इसके लिए, प्रयत्न करना होगा। कुछ अच्छा पाने के लिए, प्रयत्न की सदैव आवश्यकता होती है, जबकि चिंता या निराशा में डूबने के लिए कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता। हमें चाहिए – समय, प्रयत्न तथा लक्ष्य की ओर ध्यान दे ।  हमारे पुरुषार्थ का फ़ल भी तत्काल तो नहीं प्राप्त होता, समय से ही होता है।  हमें वर्तमान में ही रहना चाहिए और इसे सुंदर बनाना चाहिए क्योंकि न तो भूतकाल एंव न ही भविष्यकाल पर हमारा नियंत्रण है |“अगर खुश रहना है एंव सफल होना है तो उस बारे में सोचना बंद कर दें जिस पर हमारा नियंत्रण न हो !  
उत्तम जैन (विद्रोही ) 

Thursday, 16 March 2017

बसपा सुप्रीमो मायावती ने वही तो किया जो उन्हें करना चाहिए---


यह धारणा पुरानी और रद्दी हो चुकी है कि भारत में चुनाव चुनाव आयोग कराता है। नई धारणा और तथ्य यह है कि भारत में चुनाव न्यूज़ चैनल कराते हैं। चैनल के लोग रिटर्निंग अफसर की भूमिका में हर कार्यक्रम में किसी एक दल की जीत का एलान करते रहते हैं। चुनाव के वक्त नए नए चैनल खुल जाते हैं। नई वेबसाइट बन जाती है। इन्हें लेकर आयोग की कोई रणनीति नज़र नहीं आती है। इसलिए पारंपरिक रूप से अति महिमामंडन की शिकार इस संस्था का तरीके से मूल्यांकन होना चाहिए। चुनाव आयोग समय से पीछे चलने वाली एक पुरातन संस्था है। आयोग के पास राजनीतिक निष्ठा और भय के कारण किसी एक दल की ओर झुके मीडिया को पकड़ने का कोई तरीका नहीं है। पेड न्यूज़ की उसकी समझ सीमित है। आयोग अभी तक एग्ज़िट पोल के खेल को ही समझ पाया है। उसके पास किसी सर्वे के सैंपल जांचने या देखने की कोई समझ नहीं है। अधिकार तो तब मांगेगा जब समझ होगी। न्यूज़ एंकर पार्टी महासचिव की भूमिका में पार्टी का काम कर रहे हैं। एक दल की दिन भर पांच पांच रैली दिखाई जाती है। एक दल की एक भी रैली नहीं दिखाई जाती है। सत्ताधारी दल ने बड़ी आसानी से प्रचार के ख़र्चे और तरीके को बदल कर मीडिया को मिला लिया है। एंकर और पत्रकार अब राजनीतिक दलों के महासचिव हैं और इसमें एक दल की प्रमुखता कायम हो गई है। आयोग के पास ऐसी कोई समझ नहीं है कि वो रैलियों के प्रसारण को लेकर संतुलन कायम करने का कोई नियम बनाए। अख़बार तो आयोग से बिल्कुल ही नहीं डरते हैं। एफ आई आर के बाद भी कुछ फर्क नहीं पड़ा है। राजनीतिक दलों ने अपने ख़र्चे और रणनीति मीडिया को आउटसोर्स कर दिया है। बार्टर(वस्तु विनिमय) सिस्टम आ गया है। विज्ञापन दीजिए और उसके बदले रैली का सीधा प्रसारण घंटों दिखाइये।
इस युग में किसी चुनावी रणनीति की कल्पना बग़ैर मीडिया के नहीं हो सकती है। मायावती ने अपने जीवन के सबसे महत्वपूर्ण चुनाव को बग़ैर मीडिया के लड़ा है। उनके लिए ऐसा करना आसान नहीं रहा होगा। कायदे से उन्हें मीडिया के लिए उपलब्ध होना चाहिए था मगर क्या यह सच नहीं है कि मीडिया बसपा को पार्टी ही नहीं मानता है। मायावती को घेरन वाले विरोधी दल टीवी के इस्तमाल से समानांतर माहौल रच रहे थे। कोई भी देखने वाला चकरा जाए कि शायद चुनाव का यही माहौल है। मायावती मीडिया की लगातार बनाई जा रही घारणाओं को नज़रअंदाज़ करती रहीं हैं।
इस बात के लिए भी रिसर्च होनी चाहिए कि बग़ैर घनघोर मीडिया के एक नेता आज भी अपने वोटर से और वोटर अपने नेता से कैसे संबंध बनाए रखता है। मायावती भले न दबाव में आती हों मगर वोटर तो उसी मीडिया समाज में रहता है। उस मतदाता के लिए अपने नेता के साथ खड़े रहना कम आसान नहीं रहा होगा। बसपा का कार्यकर्ता तो दस जगह उठता बैठता होगा,वो कैसे उस पार्टी के लिए काम करता होगा जो मीडिया में नज़र नहीं आती है मगर उसकी नेता चार बार मुख्यमंत्री बन चुकी हैं।
उत्तर प्रदेश में चुनाव खत्म होते हैं, परिणाम आते ही कांग्रेस और सपा की ओर से हार स्वीकार कर ली जाती है और आत्ममंथन की बात कह कर बात खत्म कर दी जाती है। क्या राजनीति सिर्फ इतनी होती है? नहीं! राजनीति जीत और हार पर खत्म नहीं होती; बल्कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया में जीत और हार से ही राजनीति शुरू होती है। जिसे साबित करते हुए मायावती सामने आती हैं और “भाजपा की जीत” का कारण ईवीएम को बता देती हैं।
ध्यान दीजिये ” मायावती ने परंपरागत रूप से अपनी हार को स्वीकार नहीं करतीं बल्कि दोष तकनीक और सरकार पर डालती हैं”। विश्लेषक इसे अपने हिसाब से देखते होंगे , मगर ये उससे ऊपर की बात है। यहाँ पर मायावती ने वही किया जो पूरे देश में महज चन्द विधानसभा सीटों पर रह जाने वाली पार्टी के नेता द्वारा किया जाना चाहिए। राजनीतिक प्रबंधन के सूरमा कहे जाने वाले प्रशांत किशोर के दिमाग में ये रणनीति शायद आयी ही न हो जो मायावती ने अपने लिए खेल डाली! आज पूरे देश के समाचारों में विजेता मोदी के साथ अगर किसी की चर्चा की जा रही है तो वह नाम है मायावती। ये अखिलेश भी नहीं है जो कि पूरे चुनावी रण में मोदी से सीधे टक्कर लेते रहे, ये नाम उस पार्टी की नेता का है जो महज़ 19 सीटों के साथ गर्त में डूब चुकी है। अखिलेश की तरह मायावती भी “हार स्वीकार” करते हुए आत्म-मंथन पर चली जातीं तो क्या होता ? अगले दिन की सुर्खियां सिर्फ मोदी और भाजपा की प्रचंड जीत पर केंद्रित होकर रह जाती, 19 सीटों वाली मायावती को कोई न पूछता कि कहाँ हैं, कहाँ गयीं? सिर्फ इतना ही नहीं उन्हें वोट देने वाले लोग भी यह समझ जाते कि हमारा नेतृत्व समाप्त हो चुका है और अब पाला बदलने में ही लाभ है। जिसका परिणाम यही होता कि भविष्य में होने वाले चुनावों में मायावती को कोई महत्व नहीं मिल पाता।
मगर मायावती ने अपने अस्तित्व को इस हश्र से बचा लिया है, उन्होंने अखिलेश की तरह हार स्वीकार करने की भूल नहीं की; बल्कि एक तीर से दो शिकार किये हैं । एक ओर जहाँ मायावती ने हार मान चुके नेताओं के बीच मोदी के सामने डटे रहने की दम दिखाई है, वहीं अपने खत्म होते वोट-बैंक को पूरी तरह अलग होने से बचा लिया है। अब तर्क चाहे जो भी दिए जाएँ जनता के मन में यह डाल दिया गया है कि मोदी की यह जीत मशीन की देन है। ये बात मायावती भी अच्छी तरह से जानती हैं कि ईवीएम में कोई खराबी नहीं है। मगर जब बात अस्तित्व के ही खत्म होने की हो तो यह दांव जरूरी था, और इस दांव से मायावती ने स्वयं को अपने समर्थकों के सामने न सिर्फ ‘छल की शिकार’ के रूप में प्रस्तुत किया है बल्कि छिटके हुए वोटर्स के मन में भी ‘पीड़ित’ वाली छाप छोड़ने का प्रयास किया है। अब मायावती और बसपा का भविष्य क्या होगा यह भविष्य ही बताएगा; लेकिन हाल फिलहाल में तो EVM के हंगामे ने सुर्ख़ियों में बचा ही लिया है।
उत्तम जैन ( विद्रोही )

Sunday, 12 March 2017

होली -----बचपन -- शुभकामना

 
न छंदो का ज्ञान, न गीत न गजल लिखता हु
दिलोदिमाग मे उपजे विचारो को शब्दो मे पिरोता हु !
इसे जो पढ़ सके निपुण वो है प्रबुद्ध ज्ञानी ....
विनम्रता से उन्हे प्रणाम करता हु !
अपने विचारो को संप्रेषित करते हुए
होली की शुभकामना प्रेषित करता हु !!!
दुख दर्द दहन हो होली में,
हो रंग ख़ुशी के होली में।
तन मन आंनदित हो जाये,
जब रंग उड़ेंगे होली में।
सब भेद भाव मिट जायेंगे,
जब गले मिलेंगे होली में।
जब पिया गुलाल लगायेंगे,
तन मन सिहरेगा होली में।
मन से मन का जब रंग मिले,
तन रंग न चाहे होली में।
बचपन गाव की होली आज भी मानसपटल पर एक स्मृति के रूप मे अंकित है ! फटे पुराने कपड़े पहन कर सुबह जल्दी उठकर झुंड के झुंड मित्र सभी इकक्ठे होकर दादा जी द्वारा दिलाई हुई पिचकारी , दादा जी की दुकान से गहरे रंग , गुलाल फटे हाफ पेंट की जेब मे लेकर निकाल जाता था बार बार जेब को टंटोलते हुए हुए की फटी हुई जेब से रंग कही गिर न जाये ! सभी मित्रो को रंग लगाना पूरे गाव मे टोले मे घूमना घर आकार नहाना फिर दोस्तो द्वारा रंग लगा देना शाम को गाव मे गेर खेलना सच मे कहु वो बचपन वो गाव अब इन शहरो मे कहा न वेसे दोस्त न ही गाव जेसा माहोल ... रंग पंचमी , सीतला सप्तमी वो ओलिया ( दहि का विशेष रूप से बनाया हुआ ) आज भले शहरो मे भी गाव की परंपरा अभी तक चल रही है मगर न गाव जेसे ओलिया का स्वाद है न गाव जेसा माहोल अब तो सिर्फ यादे है !
होली रंगों का त्यौहार है लेकिन आज कल रंगों में मिलावट और घटिया रंगों के कारण हर व्यक्ति रंगों से दूर होता जा रहा है / हालाकि होली आपसी भाईचारे का रंग भरा त्यौहार है लेकिन कभी कभी मजाक मस्ती भारी पड़ जाती है / अत इस होली पर घटिया और गहरे रंगों की बजाय गुलाल से होली खेले / आपस में गले मिले और भाईचारे को बढाये / मजाक में भी किसी के साथ जोर जबरदस्ती न करे / इस मोके पर अनेक मनचले मनमानी करते है और आम लोगो को अपनी मस्ती मजाक के कारण परेशान करते है / इसलिए इस होली पर प्यार से मुस्कान के साथ हलके रंगों के साथ होली मनाये / दिल में खुशिया जगाये -----
होली का त्योहार, बुराई पर अच्छाई की जीत के रूप में मनाया जाता है; जहाँ होलिका बुराई और भक्त प्रहलाद अच्छाई का प्रतीक है. व्यापक अर्थ में देखा जाए तो- होली की अग्नि प्रज्ज्वलित करने में, क्षुद्र सांसारिक इच्छाओं का दमन और आध्यत्मिक उन्नति के पथ पर बढ़ने का संकेत निहित है. उसी तरह- जिस तरह त्रिकालदर्शी भगवान शिव ने अपने तीसरे नेत्र से कामदेव को भस्म कर दिया था. इस दिन झूठे अहम् और शत्रुता को भूलकर लोग, एक दूसरे को गले लगा लेते है. यह भी इस पर्व का सामाजिक /आध्यात्मिक पक्ष ही कहा जाएगा. जाति और धर्म की सीमाओं से ऊपर उठकर यह पर्व, इंसान से इंसान के प्रेम को अभिव्यक्ति प्रदान करता है
फिर से सभी को होली की शुभकामना ....


उत्तम जैन ( विद्रोही )

Saturday, 11 March 2017

जीवन को सुख से जीने की कला

जीवन एक यात्रा के सजब सपने हमारे हैं तो कोशिशें भी हमारी होनी चाहिए। जब पहुंचना हमें है तो यात्रा भी हमारी ही होनी चाहिए। पर सच तो यह है जीवन की यह यात्रा सीधी और सरल नहीं है इसमें दुख हैं, तकलीफें हैं, संघर्ष और परीक्षाएं भी हैं। ऐसे में स्वयं को हर स्थिति-परिस्थिति में, माहौल-हालात में सजग एवं संतुलित रखना वास्तव में एक कला है। इसे सफलता से जीना एक कला है. अपने उत्साह और दूसरों की प्रशंसा करने का मौका कभी नहीं छोड़ना चाहिए.! जीवन जीना भी एक कला है अगर हम इस जीवन को किसी Art-Work की तरह जिए तो बहुत सुन्दर जीवन जिया जा सकता है ! वर्तमान में जब चारों ओर अशांति और बेचैनी का माहौल नजर आता है । ऐसे में हर कोई शांति से जीवन जीने की कला सीखना चाहता है । जीवन अमूल्य है ! जीवन एक यात्रा है ! जीवन एक निरंतर कोशिश है ! इसे सफलता पूर्वक जीना भी एक कला है ! जीवन एक अनंत धडकन है ! जीवन बस एक जीवन है ! एक पाने-खोने-पाने के मायाजाल में जीने और उसमे से निकलने की बदिश है ! इसे किस तरह जिया जाये कि एक सुखद, शांत, सद्भावना पूर्ण जीवन जीते हुये, समय की रेत पर हम अपने अमिट पदचिन्ह छोड़ सकें ?
प्रतिदिन हम सुबह शाम तक ही नही बल्कि देर रात तक हमारे मित्र अनर्गल वार्तालाप, अनर्गल सोच विचार, करते रहते है, ऑफिस में सहकर्मियों से, दोस्तों से, बाजार में दुकानदार, घर में परिवार के सदस्यों से कंही मतभेद तो कही मनभेद करते है क्यों ? क्‍या आपने कभी यह सोचा है कि - जीवन का उद्देश्य क्या है ? क्या है यह जीवन ? इस तरह के प्रश्न बहुत कीमती हैं । जब इस तरह के प्रश्न मन में जाग उठते हैं तभी सही मायने में जीवन शुरू होता है । ये प्रश्न आपकी जिंदगी की गुणवत्ता को बेहतर बनाते हैं आप यहां शिकायत करने नहीं आए हो,अपने दुखड़े रोने नहीं आए हो या किसी पर दोष लगाने के लिए नहीं आए हो । ना ही आप नफ़रत करने के लिए आए हो । ये बातें आपको जीवन में हर हाल में खुश रहना सिखाती हैं । उत्साह जीवन का स्वभाव है । दूसरों की प्रशंसा करने का और उनके उत्साह को प्रोत्साहन देने का मौका कभी मत छोड़ो । इससे जीवन रसीला हो जाता है । जो कुछ आप पकड़ कर बैठे हो उसे जब छोड़ देते हो, और स्वकेंद्र में स्थित शांत हो कर बैठ जाते हो तो समझ लो आप के जीवन में जो भी आनंद आता है, वह अंदर की गहराइयों से आएगा ।
किसी भी उपलब्धि को पाने का शार्ट कट पथ के राहगीर न बने जीवन में ये शार्ट कट भले ही त्वरित क्षुद्र सफलतायें दिला दें पर स्थाई उपलब्धियां सच्ची मेहनत से ही मिलती हैं । कहना तो बड़ा आसान है, लेकिन करना बड़ा कठिन । हमारा छोटे से छोटा कृत्य भी अपना प्रभाव डाले बिना नहीं रहता है इसलिए हर कार्य को सोच समझ कर करें ।आज से एक सीधी सी बात कहूँगा कि- जीवन में छोटी छोटी बातो में खुशियाँ ढूंढें ! क्योंकि अक्सर बड़ी बड़ी चीजे हमें दुःख देती है ! जरूरत है अंतर्मन की गहराइयों तक जाकर आत्मनिरीक्षण के जरिए आत्मशुद्धि की इस साधना को अपनाना होगा ! हमे हमें अपने अतीत से प्रेरणा लेनी चाहिए , भविष्य की योजनाएं बनाना चाहिए एवं वर्तमान का आनंद लेना चाहिए। हम वर्तमान में जी रहे हैं इसलिए वर्तमान का आनंद लेना ही हमें जीवन जीने की कला सीखा सकता है। ......
उत्तम जैन विद्रोही
लेखक - संपादक
विद्रोही आवाज़  

Wednesday, 8 March 2017

अजमेर दरगाह ब्लास्ट: असीमानंद बरी,RSS नेता इंद्रेश कुमार को क्लीन चिट

जयपुर में एनआईए की विशेष अदालत आज 2007 के अजमेर दरगाह बम विस्फोट मामले में अपना फैसला सुनाते हुए स्वामी असीमानंद को बरी कर दिया है। अदालत ने इस मामले में तीन को दोषी और पांच को बरी कर दिया है। अदालत दोषी की सजा पर फैसला 16 मार्च को सुनाएगी। अदालत ने इस मामले में आरएसएस नेता इंद्रेश कुमार को क्लीन चिट दी है। राष्ट्रीय जांच एजेन्सी के मामलों की विशेष अदालत के न्यायाधीश दिनेश गुप्ता ने अजमेर स्थित सूफी संत ख्वाजा मोइनुददीन हसन चिश्ती की दरगाह परिसर में 11 अक्टूबर 2007 को आहता ए नूर पेड़ के पास हुए बम विस्फोट मामले में देवेन्द्र गुप्ता, भावेश पटेल और सुनील जोशी को दोषी करार दिया है।

बचाव पक्ष के वकील जगदीश एस राणा ने संवाददाताओं को बताया कि अदालत ने स्वामी असीमानंद समेत सात लोगों को सन्देह का लाभ देते हुए बरी कर दिया है। दोषी पाये गये अभियुक्तों में से सुनील जोशी की मत्यु हो चुकी है। अदालत देवेन्द्र गुप्ता और भावेश पटेल को आगामी 16 मार्च को सजा सुनाएगी।
उन्होंने बताया कि अदालत ने स्वामी असीमानंद, हर्षद सोलंकी, मुकेश वासाणी, लोकेश शमार्, मेहुल कुमार, भरत भाई को सन्देह का लाभ देते हुए बरी कर दिया। उन्होंने बताया कि न्यायालय ने देवेन्द्र गुप्ता, भावेश पटेल और सुनील जोशी को भारतीय दंड संहिता की धारा 120 बी, 195 और धारा 295 के अलावा विस्फोटक सामग्री कानून की धारा 3:4 और गैर कानूनी गतिविधियों का दोषी पाया है।

गौरतलब है कि 11 अक्टूबर 2007 को हुए इस धमाके में तीन लोगों की मौत हो गयी थी जबकि 17 से अधिक लोग घायल हो गए थे। इस मामले में एनआईए ने 13 आरोपियों के खिलाफ आरोप पत्र दाखिल किया था। इनमें से आठ आरोपी साल 2010 से न्यायिक हिरासत में बंद है। न्यायिक हिरासत में बंद आठ आरोपी स्वामी असीमानंद, हषर्द सोलंकी, मुकेश वासाणी, लोकेश शर्मा, भावेश पटेल, मेहुल कुमार ,भरत भाई, देवेन्द्र गुप्ता हैं। एक आरोपी चन्द्र शेखर लेवे जमानत पर है।

एक आरोपी सुनील जोशी की हत्या हो चुकी है और तीन आरोपी संदीप डांगे, रामजी कलसांगरा और सुरेश नायर फरार चल रहे है। इस मामले में अभियोजन पक्ष की ओर से 149 गवाहों के बयान दर्ज करवाए गए, लेकिन अदालत में गवाही के दौरान कई गवाह अपने बयान से मुकर गए।
राज्य सरकार ने मई 2010 में मामले की जांच राजस्थान पुलिस की एटीएस शाखा को सौंपी थी। बाद में एक अप्रैल 2011 को भारत सरकार ने मामले की जांच एनआईए को सौप दी थी।

Tuesday, 7 March 2017

नारी का सम्मान आज जरूरी



भारतीय संस्कृति में नारी के सम्मान को बहुत महत्व दिया गया है। संस्कृत में एक श्लोक है- 'यस्य पूज्यंते नार्यस्तु तत्र रमन्ते देवता:। अर्थात्, जहां नारी की पूजा होती है, वहां देवता निवास करते हैं। किंतु.वर्तमान में जो हालात दिखाई देते हैं, उसमें नारी का हर जगह अपमान होता चला जा रहा है। उसे 'भोग की वस्तु' समझकर आदमी 'अपने तरीके' से 'इस्तेमाल' कर रहा है। यह बेहद चिंताजनक बात है। लेकिन हमारी संस्कृति को.बनाए रखते हुए नारी का सम्मान कैसे किय जाए, इस पर विचार करना आवश्यक है।
माता का हमेशा सम्मान हो-.........  
मां अर्थात माता के रूप में नारी, धरती पर अपने सबसे पवित्रतम रूप में है। माता यानी जननी। मां को ईश्वर से भी बढ़कर माना गया है, क्योंकि ईश्वर की जन्मदात्री भी नारी ही रही है।किंतु बदलते समय के हिसाब से संतानों ने अपनी मां को महत्व देना कम कर दिया है। यह चिंताजनक पहलू है। सब धन-लिप्सा व अपने स्वार्थ में डूबते जा रहे हैं। परंतु जन्म देने वाली माता के रूप में नारी का सम्मान .अनिवार्य रूप से होना चाहिए, जो वर्तमान में कम हो गया है, यह सवाल आजकल यक्षप्रश्न की तरह चहुंओर पांव पसारता जा रहा है। इस बारे में नई पीढ़ी को आत्मावलोकन करना चाहिए।
कंधे से कंधा मिलाकर चलती नारी ------
नारी का सारा जीवन पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने में ही बीत जाता है। पहले पिता की छत्रछाया में उसका बचपन बीतता है। पिता के घर में भी उसे घर का कामकाज करना होता है तथा साथ ही अपनी पढ़ाई भी जारी रखनी होती है। उसका यह क्रम विवाह तक जारी रहता है।  उसे इस दौरान घर के कामकाज के साथ पढ़ाई-लिखाई की दोहरी जिम्मेदारी निभानी होती है, जबकि इस दौरान लड़कों को पढ़ाई-लिखाई के अलावा और कोई काम नहीं रहता है। कुछ नवुयवक तो ठीक से पढ़ाई भी नहीं करते हैं, जबकि उन्हें इसके अलावा और कोई काम ही नहीं रहता है। इस नजरिए से देखा जाए, तो नारी सदैव पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिलाकर तो चलती ही .है, बल्कि उनसे भी अधि‍क जिम्मेदारियों का निर्वहन भी करती हैं। नारी इस तरह से भी सम्माननीय है।
विवाह पश्चात -------
विवाह पश्चात तो महिलाओं पर और भी भारी जिम्मेदारि‍यां आ जाती है। पति, सास-ससुर, देवर-ननद की सेवा के पश्चात उनके पास अपने लिए समय ही नहीं बचता। कोल्हू के बैल की मानिंद घर-परिवार में ही खटती रहती हैं संतान के जन्म के बाद तो उनकी जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है घर-परिवार, चौके-चूल्हे में खटने में ही एक आम महिला का जीवन कब बीत जाता है, पता ही नहीं चलता कई बार वे अपने अरमानों का भी गला घोंट देती हैं घर-परिवार की खातिर। उन्हें इतना समय भी नहीं मिल पाता है वे अपने लिए भी जिएं। परिवार की खातिर अपना जीवन होम करने में भारतीय महिलाएं सबसे आगे हैं। परिवार के प्रति उनका यह त्याग उन्हें सम्मान का अधि‍कारी बनाता है।
बच्चों में संस्कार डालना --------
बच्चों में संस्कार भरने का काम मां के रूप में नारी द्वारा ही किया जाता है। यह तो हम सभी बचपन से सुनते चले आ रहे हैं कि बच्चों की प्रथम गुरु मां ही होती है। मां के व्यक्तित्व-कृतित्व का बच्चों पर सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रकार का असर पड़ता है। 
अंत में... यही कहना चाहूँगा -----
अंत में हम यही कहना ठीक रहेगा कि हम हर महिला का सम्मान करें अवहेलना, भ्रूण हत्या और नारी की अहमियत न समझने के परिणाम स्वरूप महिलाओं की संख्या, पुरुषों के मुकाबले आधी भी नहीं बची है। इंसान को यह नहीं भूलना चाहिए, कि नारी द्वारा जन्म दिए जाने पर ही वह दुनिया में अस्तित्व बना पाया है और यहां तक पहुंचा है। उसे ठुकराना या अपमान करना सही नहीं है। भारतीय संस्कृति में महिलाओं को देवी, दुर्गा व लक्ष्मी आदि का यथोचित सम्मान दिया गया है अत: उसे उचित सम्मान दिया ही जाना चाहिए।
लेखक - उत्तम जैन ( विद्रोही )
संपादक - विद्रोही आवाज़

एक दर्द - अपने धर्म से विमुक्त होता मिडिया

एक दर्द- अपने धर्म से विमुक्त होता मिडिया .
में पत्रकारिता क्षेत्र में 3 वर्ष से सक्रीय हु ! एक छोटे से साप्ताहिक समाचार पत्र का संपादक हु ! मगर इन थोड़े वर्षो में बहुत कुछ सिखा और समझा आज मिडिया की स्थिति देख सर पीटने का मन करता है !क्युकी इमानदार टिक नही पाता है! दारू के अड्डे पर 500 /- की नोट के खातिर अपना इमान बेचता हुआ पत्रकार नजर आ जायेगा ! तभी सोचता हु क्या देश की चौथी जागीर मीडिया भी " आम आदमी " की दुश्मन है ? .या ये "कलम की ताकत" भी भारत के राज नेताओं के हाथ बिक गयी है ? कलम की ताकत से एक ज़माने में अच्छे अच्छे गुन्हेगार डरते थे आज वही कलम नेता के हाथ की कठपुतली बनती नजर आ रही है और बन रही है देश के करोडो " आम आदमी " के गुन्हेगारोँ की ताकत, क्यों की कलम को क्या लिखना और क्या केमेरा में कैद करना, ये आज आम आदमी के गुन्हेगार नेता तय करते है | आज किसी सच्चे देश भक्त को आज उपवास पर नहीं बैठना पड़ता अगर मीडिया का काम सही और साफ़ सुथरा होता अगर मीडिया ध्यान देती इन भ्रष्टाचारीयों पर तो आज ये दिन नहीं आता और हर भ्रष्टाचारी जेल की हवा खाता होता छोटी छोटी बात को बड़े ही धमाके से पेश करनेवाली मीडिया की नजर में देश में हो रहे करोडो के घोटाले और बड़े बड़े भ्रष्टाचार का महत्त्व क्यों नहीं है ? खरबों रुपयों की सहायता गरीबों के लिए भारत सरकार मंजुर करती है मगर ये सहायता कभी किसी गरीब तक क्यों नहीं पहुंचती, आखिर ये सहायता जाती कहाँ है ? मगर मीडिया ने कभी इस बात को महत्त्व नहीं दिया और न ही जानने की कोशिश भी की है | मीडियाभी भ्रष्ट नेताओं की चुंगल में फंसकर खुद भी खड़ा है भ्रस्टाचार के कीचड़ में |"
खेर ..... किसी ने शायद ठीक ही कहा है “जब तोप मुकाबिल हो, तो अखबार निकालो” हमने व हमारे अतीत ने इस बात को सच होते भी देखा है। याद किजिए वो दिन जब देश गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ था, तब अंग्रेजी हुकूमत के पांव उखाड़ने देश के अलग-अलग क्षेत्रों में जनता को जागरूक करने के लिये एवं ब्रिटिश हुकूमत की असलियत जनता तक पहुंचाने के लिये कई पत्र-पत्रिकाओं व अखबारों ने लोगों को आजादी के समर में कूद पड़ने एवं भारत माता को आजाद कराने के लिए कई तरह से जोश भरे व समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का बाखूबी से निर्वहन भी किया। मीडिया यानि मीडियम या माध्यम। मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहा जाता है। इसी से मीडिया के महत्त्व का अंदाजा लगाया जा सकता है। समाज में मीडिया की भूमिका संवादवहन की होती है। वह समाज के विभिन्न वर्गों, सत्ता, केन्द्रों व् व्यक्तियों और संस्थाओं के बीच पुल का कार्य करता है। आधुनिक युग में मीडिया का सामान्य अर्थ समाचार-पत्र, पत्रिकाओं, टेलीविज़न, रेडियो, इंटरनेट आदि से लिया जाता है। किसी भी देश की उन्नति व प्रगति में मीडिया का बहुत बड़ा योगदान होता है। अगर मैं कहूँ कि मीडिया समाज का निर्माण व पुनर्निर्माण करता है, तो यह गलत नहीं होगा। इतिहास में ऐसे अनगिनत उदाहरण भरे पड़े हैं जब मीडिया की शक्ति को पहचानते हुए लोगों ने उसका उपयोग लोक परिवर्तन के भरोसेमंद हथियार के रूप में किया है।
आज भी मीडिया की ताकत के सामने बड़े से बड़ा राजनेता,उद्योगपति आदि सभी सिर झुकाते हैं। मीडिया का जन-जागरण में भी बहुत योगदान है। बच्चों को पोलियो की दवा पिलाने का अभियान हो या किसी बीमारी के प्रति जागरुकता फैलाने का कार्य, मीडिया ने अपनी ज़िम्मेदारी पूरी तरह से निभाई है।लोगों को वोट डालने के लिये प्रेरित करना,बाल मज़दूरी पर रोक लगाने के लिये प्रयास करना,धूम्रपान के खतरों से अवगत कराना जैसे अनेक कार्यों में मीडिया की भूमिका सराहनीय है। जैसे-जैसे विकास एवं आधुनिकता के नये-नये आयाम स्थापित होते जा रहे है, ठीक उसी प्रकार मीडिया की निष्पक्षता तथा समाचार को जनता के बीच प्रसारित करने की तकनीक में भी कई तरह के परिवर्तन एवं उसकी निष्पक्षता पर सवाल उठना लाजमी है। वर्तमान में मीडिया जगत में युवाओं की चमक-दमक काफी बढ़ी है, अब इसे युवक-युवतियां अपने उज्जवल कैरियर के रूप में देखने लगे हैं। चमकता-दमकता कैरियर, नाम की चाह ने युवाओं को काफी हद तक इस ओर खीचा है, जिससे हजारों युवा पत्रकार बनने की चाह लेकर मीडिया जगत में आ रहे हैं!.नित्य नये-नये पत्र-पत्रिकाएँ व न्यूज चैनल भी सामने आ रहे हैं। लेकिन समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का निर्वहन कर पाने में आज ये काफी पीछे रह गये हैं। आज ये पत्रकार उद्योगपतियों व राजनीतिज्ञ के आगे घुटने टेेकते नज़र आते हैं। सामाजिक सरोकारों से इतिश्री करने के साथ ही पैसा कमाने की होड़ में आम जनता का दर्द व उनकी परेशानियां उद्योग घरानों व राजनीतिज्ञों के रूपये के आगे दबकर रह गये हैं। यहीं कारण है कि पत्रकारिता की निष्पक्षता को लेकर पत्रकार खुद जनता के कटघरे में खड़ा है ! जिस पेज व समय पर संपादकीय की जरूरत होती है, वहां आज नेताओं, उद्योगपतियों व अन्य रूपये-पैसे वालों के कसीदे पढ़ी जाती हैं। ज्वलंत मुद्दों पर त्वरित टिप्पणी पढ़ने व देखने वाली जनता को अब ज्यादातर पेज पर नेताओं, उद्योगपतियों के विज्ञापन व साक्षात्कार पढ़कर व देखकर काम चलाना पड़ता है। जिस पेज पर कल तक खोजी पत्रकारों के द्वारा ग्रामीण पृष्ठभूमि की समस्या, ग्रामीणों की राय व गांव की चौपाल प्रमुखता से छापी जाती थी,बड़े बड़े शहरों के नागरिको की समस्या की जगह आज फिल्मी तरानों की अर्द्धनग्न तस्वीरें नज़र आती हैं। पत्रकारिता ने भी सामाजिक सरोकारों को भुलाते हुए उद्योग का रूप ले लिया है। यही कारण है कि देश में बड़े-बड़े भ्रष्टाचार हो जाते हैं और मीडिया कुछ भी कहने से बचती नज़र आती है ! मीडिया ने मौन रूख अपनाते हुए राजनीतिज्ञों के साथ कदम से कदम मिलाकर चलना शुरू कर दिया है और सामाजिक सरोकार व जनजागरूकता नामक जानवर को एक कोने पर रख कर अपनी भलाई समझने की भूल कर रहा है। आज आजादी के पूर्व जेसा नही रहा मिडिया अमीर चन्द बम्बवाल ने स्वराज्य का प्रकाशन शुरू किया था । अमीर चन्द बम्बवाल ने अखबार में विज्ञापन दिया कि “सम्पादक चाहिए, वेतन मात्र दो सूखी रोटियां, गिलास भर पानी और हर सम्पादकीय लिखने पर दस वर्ष के कालेपानी की सजा।” इसके बाद भी एक-एक कर आठ सम्पादक और हुए जिन्हें कुल 125 वर्ष कालेपानी की सजा दी गई, लेकिन इसके बावजूद स्वराज्य का प्रकाशन निरंतर जारी रहा और आमजनों में आजादी के जिये जागरूकता का संचार लगातार होता रहा। लेकिन विडम्बना की आज के इस दौर में पत्रकारिता कहां पर है और आमजनों को उनकी समस्या का हल कौन देगा यह बताने वाली पत्रकारिता अपने आप से आज यह सवाल पूछ रही है कि मैं कौन हूँ? मीडिया समय-समय पर नागरिकों को उनके अधिकारों के प्रति जागरुक करता रहता है। देश में भ्रष्टाचारियों पर कड़ी नज़र रखता है। समय-समय पर स्टिंग ऑपरेशन कर इन सफेदपोशों का काला चेहरा दुनिया के सामने लाता है। इस प्रकार मीडिया हमारे लिये एक वरदान की तरह है। किंतु रुकिए! जैसे फूल के साथ काँटे होते हैं, उसी प्रकार मीडिया भी वरदान ही नहीं अभिशाप भी है। मीडिया या प्रेस को स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। मिलती भी है। लेकिन स्वतंत्रता जब सीमा लाँघ जाए तो अभिशाप बन जाती है। आज जिस पत्रकार ने छापने की धमकी देदी उसका जुगाड़ हो जाता है और बिचारा मेरे जेसे सिदान्तो पर चलने वाले को कोन पूछता है ! कुछ ऐसा ही हाल मीडिया का भी है।आज के समाज मे मीडिया पैसा कमाने के लालच में समाज को गुमराह कर रहा है। आज हमारे समाचार पत्र अपराध की खबरों से भरे रहते हैं। जबकि सकारात्मक समाचारों को स्थान ही नहीं मिलता । यदि मिलता भी है तो बीच के पन्नों पर कही किसी छोटे से कोने में। टी.वी. तो इससे भी चार कदम आगे है।टी. वी. पर चैनलों की जैसे बाढ़ सी आई हुई है। हर किसी का ध्येय है ऊँची टी. आर. पी. यानि अधिक से अधिक पैसा। ज़रा देखिए न्यूज़ चैनल पर आप को क्या देखने को मिलता है? सुबह- सुबह चाय के साथ अपना भविष्य जानिये। दिन में टी. वी. सीरियलों की गपशप देखिए। रात को देखिए ‘सनसनी’ या ‘क्राइम पैट्रोल’ चैन से सोना है तो जाग जाइए। ऐसा लगता है कि समाज में या तो केवल अपराध हैं या फिर हीरो-हीरोइनों के स्कैंडल। कब केजरीवाल ने खांसा सिर्फ टीवी चेनलो पर बार बार यही दिखाते नजर आयेंगे ! क्या कहीं कुछ अच्छा नहीं है? ‘सनसनी’ फैलाने के लिए ये देश की सुरक्षा को भी दाँव पर लगाने से नहीं चूकते। कभी कभी बड़े-बड़े चैनलों पर पूरी कार्यवाही का सीधा-प्रसारण दिखाया जाता है की अपराधी या आतंकवादी और हमारा अधिक से अधिक नुकसान करते रहे। मीडिया यदि अपने निहित स्वार्थों को भूलकर अपनी ज़िम्मेदारी निभाए तो समाज को एक दिशा प्रदान कर सकता है। मीडिया अपराध की खबरों को दिखाए पर सकारात्मक समाचारों से भी किनारा न करे। समाज में फैली बुराइयों के अलावा विकास को भी दिखाए ताकि आम आदमी निराशा में डूबा न रहे कि इस देश का कुछ नहीं हो सकता। मैं मीडिया के प्रति यही कहना चाहूँगा ----
शक्ति का तू स्रोत है, वाणी में तेरी ओज है
लोक के इस तंत्र का तू एक महान स्तंभ है
भूल अपने स्वार्थ को फिर देश का निर्माण कर
खोया तूने विश्वास फिर से तू ही विश्वास भर।
अतः मीडिया को एक बार फिर से ठीक उसी तरह निष्पक्ष होना पड़ेगा, जिस तरह की आजादी के पहले व अभी कुछ आंदोलनों में जनता के साथ देखा गया।
उत्तम जैन (विद्रोही )
मो - ८४६०७ ८३४०१
अपने धर्म से विमुक्त होता मिडिया . | विद्रोही उत्तम के ब्लोग
vidrohiawaznews.blogspot.com

Sunday, 5 March 2017

वृद्धाश्रम - यह चिंतनीय व विचारणीय बिंदु है


कल मुझे सूरत के एक वृद्धाश्रम मे जाने का सोभाग्य मेरे कवि मित्र श्री सुरेन्द्र ठाकुर (अज्ञानी ) के कारण प्राप्त हुआ ! जहा अज्ञानी जी व साथी कवियों ने काव्य पाठकर वृद्धजनो को चेहरे पर हास्य के रंग मे मशगूल कर दिया मे स्वयं मंच पर बेठे एक चिंतन कर रहा था वृद्धाश्रम क्यों?
कुछ लोग कहते हुए हम सुनते हैं कि जिन माता-पिता ने अपने जीवन की सारी पूँजी और खुशियाँ अपने बच्चों के पोलने-पोसने और उनका भविष्य बनाने में लगा दी क्या उनके प्रति संतान का कोई कर्तव्य नहीं है?
कर्तव्य है, परंतु कर्म पर हमारा अधिकार है, फल पर नहीं। श्रीमदभगवद्‍गीता में कहा गया है “कर्मण्येवाधिकारस्ते माफलेषु कदाचन।” संतान के पालन-पोषण करने और उसे योग्य बनाने में माता-पिता जो खर्च करते हैं, कुछ को लगता है उसका कई गुना करके संतान उन्हें लौटाए। संतान का पालन-पोषण करना निवेश नहीं, उत्तरदायित्व है। माता-पिता ने तो अपना उत्तरदायित्व पूरा कर दिया; अब संतान को अपना कर्तव्य पूरा करना है। लेकिन आज के नवयुवक भूल जाते हैं कि झुर्रियों का भी अपना सौंदर्य होता है। बुजुर्गों के आशीर्वाद के लिए उठे हुए हाथ और उनके पोपले मुँह से निकली हुई दुआओं का भी महत्व होता है।
भारत-जैसे सांस्कृतिक देश में वृद्‍धाश्रमों की आवश्यकता क्यों होनी चाहिए? यदि हम उनके अकेलेपन के साथी बन जाएँ, तो उनका बुढ़ापा अभिशाप नहीं, वरदान बन सकता है। आवश्यकता है उन्हें समझने की, अपनत्व देने की, उनके साथ बातचीत करने की, उनकी भावनाओं की कद्र करने की, विशेष रूप से उन्हें मोरेल सपोर्ट देने की, उनके अनुभव से कुछ सीखने की। ऐसे करके हम इनपर कोई अहसान नहीं करेंगे, बल्कि अपना भविष्य ही सँवारेंगे। कल हमें भी इस अवस्था में पहुँचना है और हमारे बच्चों को युवा होना है।
प्रश्न यह है वृद्धाश्रम क्यों?
भारतीय संस्कृति में संयुक्त परिवार की कल्पना की गई है। इसमें एक ही छत के नीचे तीन पीढ़ियाँ एक साथ प्रेम, सौहार्द्र और सद्‍भाव के साथ रहती हैं। घर-परिवार के कामों में बुजुर्गों का सलाह-मशविरा लिया जाता है। माता-पिता को सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था का स्तंभ माना जाता है। लेकिन वर्तमान समय की सचाई है कि “जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरियसि” वाले देश में माता-पिता को विशेष रूप से बुजुर्गों को तिरस्कृत, उपेक्षित और अपमानित किया जाने लगा है। उन्हें यह अहसास कराया जाता है कि परिवार के अहम् फैसलों में उनकी कोई भूमिका नहीं है। चुपचाप घर में पड़े रहें और दो रोटियाँ मिल रही हैं, खाते रहें। उन्हें घर में अलग-थलग कर दिया जाता है। उनकी अनुभवसिक्त बातों पर दकियानूसी होने का लेबल चस्पा कर दिया जाता है। आधुनिकता के इस दौर में अपने ढंग से जीने की ललक और व्यक्तिगत जिंदगी आजादी से गुजारने की चाह में संवेदहीन हुए लोग बुजुर्गों की भावनाओं को समझ पाने में असमर्थ हो गए हैं। इसके अतिरिक्त अधिकांश नवयुवक अपनी जिंदगी को बेहतर बनाने के लिए अपने पैतृक घर से दूर चले जाते हैं। भौतिक दूरियाँ बढ़ने के साथ-साथ दिलों की दूरियाँ भी बढ़ती जा रही हैं। यही कारण है देश में वृद्‍धाश्रमों की संख्या बढ़ती जा रही है। और जो परिवार के साथ रहते हैं वे भी सुखी कहाँ है? एक शोध के अनुसार अपने परिवार के साथ रह रहे लगभग 40 प्रतिशत बुजुर्गों को मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना का शिकार होना पड़ता है। इनमें से 16-17 प्रतिशत मामले ही सामने आ पाते हैं। हिंदी में एक कहावत प्रसिद्‍ध है – माता-पिता मिलकर दस संतानों को पाल देते हैं, लेकिन दस संतान मिलकर माता-पिता को नहीं पाल सकतीं।
वृद्‍धावस्था वर्तमान की ही समस्या नहीं है; हमारे प्रचीन ग्रंथ ‘वैराग्य शतक’ में भी इसका बड़ा मार्मिक और दर्दनाक वर्णन मिलता है, जिसमें पत्नी के सेवा न करने और पुत्र के शत्रुवत् व्यवहार की पीड़ा है। वतर्मान समय में यह समस्या विकराल रूप धारण करती जा रही है और बुढ़ापा अभिशाप लगने लगा है। कहा जाता है कि माता पिता के चरणों में स्वर्ग होता है एवं माता पिता की सेवा से साक्षात ईश्वर की प्राप्ति होती है ! हमारे देश में जहाँ श्रवण कुमार जैसे पुत्र ने जन्म लिया हो, यह देखकर हैरत होती है कि अत्यंत संपन्न व समृद्ध परिवार के महानुभाव भी अपने बुजुर्गों को भगवान् भरोसे “वृद्धाश्रम” में छोड़ देते है !
शारीरिक रूप से सर्वथा अशक्त व असहाय हो चुके वृद्धों को जिस समय अपनों के अपनेपन की सर्वाधिक आवश्यकता होती है, उस समय वे निराश, हताश, अपनी प्रिय संतानों से दूर, वृद्धाश्रम में एकाकी जीवन व्यतीत करने को बाध्य होते दिखाई देते हैं ! निसंदेह आज के ये वृद्धाश्रम आधुनिक सुविधा संपन्न होते हैं तथा उन्हें सुरक्षा व सुविधा भी प्रदान करते हैं पर अपनी उम्र के इस पड़ाव पर हमारे वृद्धों को ये आश्रम क्या भावात्मक सुरक्षा, आत्मीयता स्नेह दे सकते हैं जो अपनी संतान से और पारिवारिक सदस्यों से प्राप्त हो सकता है ? यह चिंतनीय व विचारणीय बिंदु है   
लेखक - उत्तम जैन (विद्रोही ) 
संपादक - विद्रोही आवाज़