एक दर्द- अपने धर्म से विमुक्त होता मिडिया .
में पत्रकारिता क्षेत्र में 3 वर्ष से सक्रीय हु ! एक छोटे से साप्ताहिक समाचार पत्र का संपादक हु ! मगर इन थोड़े वर्षो में बहुत कुछ सिखा और समझा आज मिडिया की स्थिति देख सर पीटने का मन करता है !क्युकी इमानदार टिक नही पाता है! दारू के अड्डे पर 500 /- की नोट के खातिर अपना इमान बेचता हुआ पत्रकार नजर आ जायेगा ! तभी सोचता हु क्या देश की चौथी जागीर मीडिया भी " आम आदमी " की दुश्मन है ? .या ये "कलम की ताकत" भी भारत के राज नेताओं के हाथ बिक गयी है ? कलम की ताकत से एक ज़माने में अच्छे अच्छे गुन्हेगार डरते थे आज वही कलम नेता के हाथ की कठपुतली बनती नजर आ रही है और बन रही है देश के करोडो " आम आदमी " के गुन्हेगारोँ की ताकत, क्यों की कलम को क्या लिखना और क्या केमेरा में कैद करना, ये आज आम आदमी के गुन्हेगार नेता तय करते है | आज किसी सच्चे देश भक्त को आज उपवास पर नहीं बैठना पड़ता अगर मीडिया का काम सही और साफ़ सुथरा होता अगर मीडिया ध्यान देती इन भ्रष्टाचारीयों पर तो आज ये दिन नहीं आता और हर भ्रष्टाचारी जेल की हवा खाता होता छोटी छोटी बात को बड़े ही धमाके से पेश करनेवाली मीडिया की नजर में देश में हो रहे करोडो के घोटाले और बड़े बड़े भ्रष्टाचार का महत्त्व क्यों नहीं है ? खरबों रुपयों की सहायता गरीबों के लिए भारत सरकार मंजुर करती है मगर ये सहायता कभी किसी गरीब तक क्यों नहीं पहुंचती, आखिर ये सहायता जाती कहाँ है ? मगर मीडिया ने कभी इस बात को महत्त्व नहीं दिया और न ही जानने की कोशिश भी की है | मीडियाभी भ्रष्ट नेताओं की चुंगल में फंसकर खुद भी खड़ा है भ्रस्टाचार के कीचड़ में |"
खेर ..... किसी ने शायद ठीक ही कहा है “जब तोप मुकाबिल हो, तो अखबार निकालो” हमने व हमारे अतीत ने इस बात को सच होते भी देखा है। याद किजिए वो दिन जब देश गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ था, तब अंग्रेजी हुकूमत के पांव उखाड़ने देश के अलग-अलग क्षेत्रों में जनता को जागरूक करने के लिये एवं ब्रिटिश हुकूमत की असलियत जनता तक पहुंचाने के लिये कई पत्र-पत्रिकाओं व अखबारों ने लोगों को आजादी के समर में कूद पड़ने एवं भारत माता को आजाद कराने के लिए कई तरह से जोश भरे व समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का बाखूबी से निर्वहन भी किया। मीडिया यानि मीडियम या माध्यम। मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहा जाता है। इसी से मीडिया के महत्त्व का अंदाजा लगाया जा सकता है। समाज में मीडिया की भूमिका संवादवहन की होती है। वह समाज के विभिन्न वर्गों, सत्ता, केन्द्रों व् व्यक्तियों और संस्थाओं के बीच पुल का कार्य करता है। आधुनिक युग में मीडिया का सामान्य अर्थ समाचार-पत्र, पत्रिकाओं, टेलीविज़न, रेडियो, इंटरनेट आदि से लिया जाता है। किसी भी देश की उन्नति व प्रगति में मीडिया का बहुत बड़ा योगदान होता है। अगर मैं कहूँ कि मीडिया समाज का निर्माण व पुनर्निर्माण करता है, तो यह गलत नहीं होगा। इतिहास में ऐसे अनगिनत उदाहरण भरे पड़े हैं जब मीडिया की शक्ति को पहचानते हुए लोगों ने उसका उपयोग लोक परिवर्तन के भरोसेमंद हथियार के रूप में किया है।
आज भी मीडिया की ताकत के सामने बड़े से बड़ा राजनेता,उद्योगपति आदि सभी सिर झुकाते हैं। मीडिया का जन-जागरण में भी बहुत योगदान है। बच्चों को पोलियो की दवा पिलाने का अभियान हो या किसी बीमारी के प्रति जागरुकता फैलाने का कार्य, मीडिया ने अपनी ज़िम्मेदारी पूरी तरह से निभाई है।लोगों को वोट डालने के लिये प्रेरित करना,बाल मज़दूरी पर रोक लगाने के लिये प्रयास करना,धूम्रपान के खतरों से अवगत कराना जैसे अनेक कार्यों में मीडिया की भूमिका सराहनीय है। जैसे-जैसे विकास एवं आधुनिकता के नये-नये आयाम स्थापित होते जा रहे है, ठीक उसी प्रकार मीडिया की निष्पक्षता तथा समाचार को जनता के बीच प्रसारित करने की तकनीक में भी कई तरह के परिवर्तन एवं उसकी निष्पक्षता पर सवाल उठना लाजमी है। वर्तमान में मीडिया जगत में युवाओं की चमक-दमक काफी बढ़ी है, अब इसे युवक-युवतियां अपने उज्जवल कैरियर के रूप में देखने लगे हैं। चमकता-दमकता कैरियर, नाम की चाह ने युवाओं को काफी हद तक इस ओर खीचा है, जिससे हजारों युवा पत्रकार बनने की चाह लेकर मीडिया जगत में आ रहे हैं!.नित्य नये-नये पत्र-पत्रिकाएँ व न्यूज चैनल भी सामने आ रहे हैं। लेकिन समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का निर्वहन कर पाने में आज ये काफी पीछे रह गये हैं। आज ये पत्रकार उद्योगपतियों व राजनीतिज्ञ के आगे घुटने टेेकते नज़र आते हैं। सामाजिक सरोकारों से इतिश्री करने के साथ ही पैसा कमाने की होड़ में आम जनता का दर्द व उनकी परेशानियां उद्योग घरानों व राजनीतिज्ञों के रूपये के आगे दबकर रह गये हैं। यहीं कारण है कि पत्रकारिता की निष्पक्षता को लेकर पत्रकार खुद जनता के कटघरे में खड़ा है ! जिस पेज व समय पर संपादकीय की जरूरत होती है, वहां आज नेताओं, उद्योगपतियों व अन्य रूपये-पैसे वालों के कसीदे पढ़ी जाती हैं। ज्वलंत मुद्दों पर त्वरित टिप्पणी पढ़ने व देखने वाली जनता को अब ज्यादातर पेज पर नेताओं, उद्योगपतियों के विज्ञापन व साक्षात्कार पढ़कर व देखकर काम चलाना पड़ता है। जिस पेज पर कल तक खोजी पत्रकारों के द्वारा ग्रामीण पृष्ठभूमि की समस्या, ग्रामीणों की राय व गांव की चौपाल प्रमुखता से छापी जाती थी,बड़े बड़े शहरों के नागरिको की समस्या की जगह आज फिल्मी तरानों की अर्द्धनग्न तस्वीरें नज़र आती हैं। पत्रकारिता ने भी सामाजिक सरोकारों को भुलाते हुए उद्योग का रूप ले लिया है। यही कारण है कि देश में बड़े-बड़े भ्रष्टाचार हो जाते हैं और मीडिया कुछ भी कहने से बचती नज़र आती है ! मीडिया ने मौन रूख अपनाते हुए राजनीतिज्ञों के साथ कदम से कदम मिलाकर चलना शुरू कर दिया है और सामाजिक सरोकार व जनजागरूकता नामक जानवर को एक कोने पर रख कर अपनी भलाई समझने की भूल कर रहा है। आज आजादी के पूर्व जेसा नही रहा मिडिया अमीर चन्द बम्बवाल ने स्वराज्य का प्रकाशन शुरू किया था । अमीर चन्द बम्बवाल ने अखबार में विज्ञापन दिया कि “सम्पादक चाहिए, वेतन मात्र दो सूखी रोटियां, गिलास भर पानी और हर सम्पादकीय लिखने पर दस वर्ष के कालेपानी की सजा।” इसके बाद भी एक-एक कर आठ सम्पादक और हुए जिन्हें कुल 125 वर्ष कालेपानी की सजा दी गई, लेकिन इसके बावजूद स्वराज्य का प्रकाशन निरंतर जारी रहा और आमजनों में आजादी के जिये जागरूकता का संचार लगातार होता रहा। लेकिन विडम्बना की आज के इस दौर में पत्रकारिता कहां पर है और आमजनों को उनकी समस्या का हल कौन देगा यह बताने वाली पत्रकारिता अपने आप से आज यह सवाल पूछ रही है कि मैं कौन हूँ? मीडिया समय-समय पर नागरिकों को उनके अधिकारों के प्रति जागरुक करता रहता है। देश में भ्रष्टाचारियों पर कड़ी नज़र रखता है। समय-समय पर स्टिंग ऑपरेशन कर इन सफेदपोशों का काला चेहरा दुनिया के सामने लाता है। इस प्रकार मीडिया हमारे लिये एक वरदान की तरह है। किंतु रुकिए! जैसे फूल के साथ काँटे होते हैं, उसी प्रकार मीडिया भी वरदान ही नहीं अभिशाप भी है। मीडिया या प्रेस को स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। मिलती भी है। लेकिन स्वतंत्रता जब सीमा लाँघ जाए तो अभिशाप बन जाती है। आज जिस पत्रकार ने छापने की धमकी देदी उसका जुगाड़ हो जाता है और बिचारा मेरे जेसे सिदान्तो पर चलने वाले को कोन पूछता है ! कुछ ऐसा ही हाल मीडिया का भी है।आज के समाज मे मीडिया पैसा कमाने के लालच में समाज को गुमराह कर रहा है। आज हमारे समाचार पत्र अपराध की खबरों से भरे रहते हैं। जबकि सकारात्मक समाचारों को स्थान ही नहीं मिलता । यदि मिलता भी है तो बीच के पन्नों पर कही किसी छोटे से कोने में। टी.वी. तो इससे भी चार कदम आगे है।टी. वी. पर चैनलों की जैसे बाढ़ सी आई हुई है। हर किसी का ध्येय है ऊँची टी. आर. पी. यानि अधिक से अधिक पैसा। ज़रा देखिए न्यूज़ चैनल पर आप को क्या देखने को मिलता है? सुबह- सुबह चाय के साथ अपना भविष्य जानिये। दिन में टी. वी. सीरियलों की गपशप देखिए। रात को देखिए ‘सनसनी’ या ‘क्राइम पैट्रोल’ चैन से सोना है तो जाग जाइए। ऐसा लगता है कि समाज में या तो केवल अपराध हैं या फिर हीरो-हीरोइनों के स्कैंडल। कब केजरीवाल ने खांसा सिर्फ टीवी चेनलो पर बार बार यही दिखाते नजर आयेंगे ! क्या कहीं कुछ अच्छा नहीं है? ‘सनसनी’ फैलाने के लिए ये देश की सुरक्षा को भी दाँव पर लगाने से नहीं चूकते। कभी कभी बड़े-बड़े चैनलों पर पूरी कार्यवाही का सीधा-प्रसारण दिखाया जाता है की अपराधी या आतंकवादी और हमारा अधिक से अधिक नुकसान करते रहे। मीडिया यदि अपने निहित स्वार्थों को भूलकर अपनी ज़िम्मेदारी निभाए तो समाज को एक दिशा प्रदान कर सकता है। मीडिया अपराध की खबरों को दिखाए पर सकारात्मक समाचारों से भी किनारा न करे। समाज में फैली बुराइयों के अलावा विकास को भी दिखाए ताकि आम आदमी निराशा में डूबा न रहे कि इस देश का कुछ नहीं हो सकता। मैं मीडिया के प्रति यही कहना चाहूँगा ----
शक्ति का तू स्रोत है, वाणी में तेरी ओज है
लोक के इस तंत्र का तू एक महान स्तंभ है
भूल अपने स्वार्थ को फिर देश का निर्माण कर
खोया तूने विश्वास फिर से तू ही विश्वास भर।
अतः मीडिया को एक बार फिर से ठीक उसी तरह निष्पक्ष होना पड़ेगा, जिस तरह की आजादी के पहले व अभी कुछ आंदोलनों में जनता के साथ देखा गया।
उत्तम जैन (विद्रोही )
मो - ८४६०७ ८३४०१
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