उत्तम
जैन ( विद्रोही ) – प्रधान संपादक – विद्रोही आवाज
भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र
है और चुनाव किसी भी लोकतंत्र का महापर्व होते हैं ऐसा कहा जाता है। पता नहीं यह
गर्व का विषय है या फिर विश्लेषण का कि हमारे देश में इन महापर्वों का आयोजन लगा
ही रहता है । कभी लोकसभा कभी विधानसभा तो कभी नगरपालिका के चुनाव। लेकिन
अफसोस की बात है कि चुनाव अब नेताओं के लिए व्यापार बनते जा रहे हैं !
उत्तम विद्रोही को माफ़ किजिये चुनावी माहोल व वादो के साथ आरोप प्रत्यारोप एक दूसरी पार्टियो को नीचा
दिखाने तो कोई फेंकू ,पप्पू, चोकीदार के साथ मुख्य मुद्दे तो नदारद ही हो गए
है ! टीवी चेनलों पर डिबेट देखे इन नेताओ की भाषाशेली पर
विचार करने को मजबूर हो जाते है की क्या हमारे यही संस्कार है हमारा देश बुनियादी
आवश्यकताओं से आगे क्यों नहीं जा पाया ? किसानो की कर्ज माफी का प्रलोभन देने से अच्छा उन्नत फसल केसे पनपे
जिससे किसानो की आय मे व्रद्धि हो और क्यों हमारी पार्टियाँ
रोजगार के अवसर पैदा करके हमारे युवाओं को स्वावलंबी
यह वाकई
में एक गंभीर मसला है कि जो वादे राजनैतिक पार्टियाँ अपने चुनावी वादो में करती
हैं वे चुनावों में वोटरों को लुभाकर वोट बटोरने तक ही क्यों सीमित रहते हैं।
चुनाव जीतने के बाद ये पार्टियाँ अपने चुनावी वादो को लागू करने के प्रति कभी भी
गंभीर नहीं होती और यदि उनसे उनके चुनावी घोषणा में किए गए वादों के बारे में पूछा
जाता है तो सत्ता के नशे में अपने ही वादों को ‘चुनावी जुमले ‘ कह देती हैं। इस सब में समझने वाली बात यह है कि वे अपने चुनावी
वादो को नहीं बल्कि अपने वोटर को हल्के में लेती हैं।
आमआदमी तो
लाचार है शिक्षित चुपचाप है अशिक्षित व् गरीब दो जून की रोटी के लिए संघर्षरत है और मिडिया चुनावी विज्ञापन लेने में अपनी कलम के साथ गद्दार है ! अब चुने तो चुने किसे आखिर में सभी तो एक से हैं। उसने तो अलग अलग
पार्टी को चुन कर भी देख लिया लेकिन सरकारें भले ही बदल गईं मुद्दे वही
रहे। पार्टी और नेता दोनों ही लगातार तरक्की करते गए
लेकिन वो सालों से वहीं के वहीं खड़ा है। क्योंकि बात सत्ता धारियों द्वारा
भ्रष्टाचार तक ही सीमित नहीं है बल्कि सत्ता पर काबिज होने के लिए दिखाए जाने वाले
सपनों की है। मुद्दा वादों को हकीकत में बदलने का सपना
दिखाना नहीं उन्हें सपना ही रहने देना है
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