भारतीय संविधान
के तीन प्रमुख स्तम्भ हैं सत्ता चलाने वाले , कानून
बनाने वाले तथा न्याय देने वाले । इन तीन
स्तम्भों के सहारे ही भारतीय राज्य व्यवस्था का सम्पूर्ण तानाबाना बुना हुआ है।
मंत्री परिषद् कोई योजना या नियम बनाती है, उसकी
अच्छाई-बुराई को जनता के सामने रखना मीडिया की जिम्मेदारी है। जिसे वह अपने
जन्मकाल से स्वतंत्र रूप से करती आ रही है। इसके बारे में भारतीय संविधान की 19 वीं धारा में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में अधिकार के
अंतर्गत विस्तार से दिया गया है। इस अनुच्छेद ने मीडिया को सार्वभौमिक शक्ति
प्रदान की है जिससे वह प्रत्येक स्थान पर अपनी पैनी नजर रखते हुए स्वविवेक के आधार
पर घटना से सम्बन्धित सही-गलत का निर्णय कर सके । यह ओर बात है कि जाने-अनजाने
मीडिया की इस नजर से अनेक भ’ष्ट लोग
हर रोज आहत होते हैं। ऐसे लोग आए दिन माँग भी करते हैं कि मीडिया पर अंकुश लगना चाहिए। उनका तर्क है कि जब कानून का शिकंजा सभी पर कसा
हुआ है फिर मीडिया क्यों उससे अछूती रहे ? खासकर
मीडिया और राजनीति के अंतर्सम्बन्धों को लेकर यह बात बार-बार उछाली जाती है।
आज मीडिया के
उद्देश्यों को लेकर दो तरह की विचारधाराएँ प्रचलित हैं। एक मीडिया को शुद्ध व्यवसाय मानते हैं
तो दूसरा वर्ग इसे जन संचार का शक्तिशाली माध्यम होने के कारण जनकल्याण कारक, नैतिक मूल्यों में
अभिवर्धक, विश्व बन्धुत्व और विश्व शांति के लिये महत्वपूर्ण मानता है।
दोनों के ही अपने-अपने तर्क हैं। वस्तुत: इन तर्कों के आधार पर कहा जा सकता है कि
वर्तमान पत्रकारिता जहाँ व्यवसाय है वहीं परस्पर प्रेम, जानकारी और शक्ति
बढाने का माध्यम भी है
जब पत्रकार कोई नकारात्मक समाचार लिखता है तब भी वह अप्रत्यक्ष जनता का हित ही
साध रहा होता है। आप राजनीति और मीडिया के इन अंर्तसम्बन्धों को चाहें तो स्वार्थ
के सम्बन्ध भी कह सकते हैं स्वाधीनता
आंदोलन के समय और उसके बाद भारत में मूल्यों के संरक्षण संवर्धन तथा उनकी स्थापना
का कार्य मीडिया निरंतर कर रही है। यही उसे लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ और अभिव्यक्ति
की स्वतंत्रता का संरक्षक बनाता है। जब तक भारत में लोकतंत्रात्मक शासन व्यवस्था
रहेगी तब तक मीडिया और राजनीति में अंर्तसम्बन्ध बने रहेंगे। इस पर कोई भी बहस की
जाए वह अधूरी रहेगी
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