प्रज्ञा दिवस -प्रेक्षा प्रणेता आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी का जन्मदिवस पर शत शत वंदन - उत्तम जैन ( विद्रोही )
जैन धर्म के श्वेतांबर तेरापंथ धर्मसंघ के दशमाचार्य आचार्य महाप्रज्ञ एक संत , योगी , आध्यात्मिक , दार्शनिक अधिनायक , लेखक ,वक्ता ओर कवि थे ! जिनकी जिव्हा पर सरस्वती का वास था ! उनकी बहुत सी पुस्तके उनके पूर्ण नाम मुनि नथमल के नाम से प्रकाशित हुई तो बहुत सी पुस्तके आचार्य महाप्रज्ञ के नाम से .....
जैन धर्म के श्वेतांबर तेरापंथ धर्मसंघ के दशमाचार्य आचार्य महाप्रज्ञ एक संत , योगी , आध्यात्मिक , दार्शनिक अधिनायक , लेखक ,वक्ता ओर कवि थे ! जिनकी जिव्हा पर सरस्वती का वास था ! उनकी बहुत सी पुस्तके उनके पूर्ण नाम मुनि नथमल के नाम से प्रकाशित हुई तो बहुत सी पुस्तके आचार्य महाप्रज्ञ के नाम से .....
आचार्य महाप्रज्ञ का जन्म हिन्दू तिथि के अनुसार विक्रम संवत 1977, आषाढ़ कृष्ण त्रयोदशी को राजस्थान के टमकोर नामक गाँव में हुआ था। उनके पिता का नाम तोलाराम तथा माता का नाम बालू था। आचार्य महाप्रज्ञ का बचपन का नाम नथमल था। उनके बचपन में पिता का देहांत हो गया था। माँ बालू ने उनका पालन-पोषण किया। उनकी माँ धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थी। इस कारण उन्हें बचपन से ही धार्मिक संस्कार मिले थे। विक्रम संवत 1987, माघ शुक्ल की दशमी (29 जनवरी 1939) को उन्होंने दस वर्ष की आयु में अपनी माता के साथ तेरापंथ के आचार्य कालूगणी से दीक्षा ग्रहण की।
आचार्य कालूगणी की आज्ञा से मुनि तुलसी जो आगे चल कर आचार्य कालूगणी के बाद तेरापंथ के नौवें आचार्य बने, के मार्गदर्शन में दर्शन, न्याय, व्याकरण, मनोविज्ञान, ज्योतिष, आयुर्वेद आदि का तथा जैन आगम, बौद्ध ग्रंथों, वैदिक ग्रंथों तथा प्राचीन शास्त्रों का गहन अध्ययन किया था। वे संस्कृत भाषा के आशु कवि थे। आचार्यश्री तुलसी ने महाप्रज्ञ (तब मुनि नथमल) को पहले अग्रगण्य एवं विक्रम संवत 2022 माद्य शुक्ला सप्तमी (ईस्वी सन् 1965) को हिंसार में निकाय सचिव नियुक्त किया। आगे चल कर उनकी प्रज्ञा से प्रभावित होकर आचार्य तुलसी ने उन्हें महाप्रज्ञ की उपाधि से अंलकृत किया। तब से उन्हें महाप्रज्ञ के नाम से जाना जाने लगा।
विक्रम संवत 2035 राजलदेसर (राजस्थान) मर्यादा महोत्सव के अवसर पर आचार्यश्री तुलसी ने विक्रम संवत 2035 को राजस्थान के राजलदेसर में उन्हें अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। और महाप्रज्ञ युवाचार्य महाप्रज्ञ हो गए। जैन इतिहास मे एक पहला उदाहरण था की एक आचार्य ने अपने जीवन मे आचार्य पद का विसर्जन कर के किसी अपने उत्तराधिकारी को आचार्य पद नियुक्त किया हो ! विक्रम संवत 2050 में राजस्थान के सुजानगढ़ में आचार्य तुलसी ने अपने आचार्य पद का विर्सजन कर दिया और युवाचार्य महाप्रज्ञ को आचार्य नियुक्त किया। और वे तेरापंथ के दसवें आचार्य बने।
आचार्य महाप्रज्ञ एक जैन धर्म के ही आचार्य नहीं थे उनके अवदानों पर नजर डाली जाए तो सभी धर्मो व सभी धर्माचार्यो मे एक सन्मान की द्रष्टि से देखा जाता था ! आचार्य महाप्रज्ञ ने प्रेक्षाध्यान के रूप में एक विशिष्ठ वैज्ञानिक साधना-पद्धति का विकास किया। इस साधना-पद्धति के द्वारा सैकड़ों व्यक्ति मानसिक विकृति को दूर हटाकर आध्यत्मिक ऊर्जा एवं शांति प्राप्त करते हैं।
जैनागमों के अध्ययन के साथ उन्होंने भारतीय एवं भारतीयेत्तर सभी दर्शनों का अध्ययन किया था। संस्कृत, प्राकृत एवं हिन्दी भाषा पर उनका पूर्ण अधिकार था। वे संस्कृत भाषा के सफल आशु कवि भी थे। आपने संस्कृत भाषा के सर्वाधिक कठिन छंद 'रत्रग्धरा' में 'घटिका यंत्र' विषय पर आशु कविता के रूप में श्लोक बनाकर प्रस्तुत किए। संस्कृत भाषा में संबोधि, अश्रुवीणा, मुकुलम्, अतुला-तुला आदि तथा हिन्दी भाषा में 'ऋषभायण' कविता को आपके प्रमुख ग्रंथ माने जाते हैं। आपने जैन आगम, बौद्ध ग्रंथों, वैदिक ग्रंथों तथा प्राचीन शास्त्रों का गहन अध्ययन किया था। जैनों के सबसे प्राचीन एवं अबोधगम्य 'आचारांग सूत्र' पर संस्कृत भाषा में भाष्य लिखकर आचार्य महाप्रज्ञ ने प्राचीन परंपरा को पुनरुज्जीवित किया ।
आतंकवाद, अशांति, अनुशासनहीनता और अव्यवस्था से विश्व को बचाने का एकमात्र उपाय अहिंसा ही है इस मिशन को लेकर देश के दूरस्थ गांवों में लाखों कि.मी पदयात्रा कर अहिंसा यात्रा की अलख जगायी ! आचार्य महाप्रज्ञ ने अपने गुरु आचार्य तुलसी द्वारा 1949 में प्रारम्भ किये गये ‘अणुव्रत आंदोलन’ के विकास में भरपूर योगदान दिया। 1947के बाद जहां एक ओर भारत में भौतिक समृद्धि बढ़ी, वहीं अशांति, हिंसा,दंगे आदि भी बढ़ने लगे। वैश्वीकरण भी अनेक नई समस्याएं लेकर आया। आचार्य जी ने अनुभव किया कि इन समस्याओं का समाधान अहिंसा ही है। अतः उन्होंने 2001 से 2009 तक ‘अहिंसा यात्रा’ का आयोजन किया। इस दौरान लगभग एक लाख कि.मी की पदयात्रा कर वे दस हजार ग्रामों में गये। लाखों लोगों ने उनसे प्रभावित होकर मांस, मदिरा आदि को सदा के लिए त्याग दिया।
भौतिकवादी युग में मानसिक तनाव, व्यस्तता व अवसाद आदि के कारण लोगों के व्यक्तिगत एवं पारिवारिक जीवन को चौपट होते देख आचार्य जी ने साधना की सरल पद्धति ‘प्रेक्षाध्यान’ को प्रचलित किया। इसमें कठोर कर्मकांड, उपवास या शरीर को अत्यधिक कष्ट देने की आवश्यकता नहीं होती। किसी भी अवस्था तथा मत, पंथ या सम्प्रदाय को मानने वाला इसे कर सकता है। अतः लाखों लोगों ने इस विधि से लाभ उठाया।
आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी प्राचीन और आधुनिक विचारों के समन्वय के पक्षधर थे। वे कहते थे कि जो धर्म सुख और शांति न दे सके, जिससे जीवन में परिवर्तन न हो, उसे ढोने की बजाय गंगा में फेंक देना चाहिए। जहां समाज होगा, वहां समस्या भी होगी; और जहां समस्या होगी, वहां समाधान भी होगा। यदि समस्या को अपने साथ ही दूसरे पक्ष की दृष्टि से भी समझने का प्रयास करें, तो समाधान शीघ्र निकलेगा। इसे वे ‘अनेकांत दृष्टि’ का सूत्र कहते थे।
मुझे ज्ञात है एक बार प्रसिद्ध साहित्यकार कुमार पाल देसाई जी ने कहा जब प्रज्ञा की जरूरत हुई तब प्रज्ञा के अवतार आचार्य महाप्रज्ञ ने अवतार लिया वे प्रज्ञा के शिखर पुरुष थे।देश के प्रसिद्ध साहित्यकार जैनेन्द्र ने कहा था - 'अगर मैं महाप्रज्ञ साहित्य को पहले पढ़ लेता तो मेरे साहित्य का रूप कुछ दूसरा होता।' राष्ट्रकवि दिनकर से आचार्यश्री महाप्रज्ञजी की अनेक बार बातचीत हुई। अनेक विषयों में चर्चा-परिचर्चा हुई। वे राष्ट्रकवि महाप्रज्ञ की वैचारिक और साहित्यिक प्रतिभा के प्रति सदैव प्रणत रहे। उन्होंने महाप्रज्ञ की मनीषा का मूल्यांकन करते हुए कहा था, 'हम विवेकानंद के समय में नहीं थे। हमने उनको नहीं देखा, उनके विषय में पढ़ा मात्र है। आज दूसरे विवेकानंद के रूप में हम मुनि नथमलजी (आचार्य महाप्रज्ञ) को देख रहे हैं।' देश के सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक एवं प्रतिरक्षा विभाग के वैज्ञानिक सलाहकार डॉ. राजा रामन्ना महाप्रज्ञ से अनेकांत दर्शन का स्पर्श पा आत्मविभोर हो उठे थे।
आज आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी के 99 वे जन्मदिवस पर शत शत वंदन
उत्तम जैन ( विद्रोही )
प्रधान संपादक - विद्रोही आवाज / जैन वाणी
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