Monday, 25 June 2018

राजनीति का धर्म या धर्म की राजनीति -- एक विचारणीय विषय


एक विचारणीय विषय -राजनीति का धर्म या धर्म की राजनीति 
वर्तमान समय में और विशेषकर भारत के धार्मिक, राजनीतिक और सामाजिक नेतागण, इस बात की आवश्यकता महसूस कर रहे हैं कि धर्म को राजनीति से नहीं जोड़ना चाहिए. यह इस लिए प्रबल समस्या बन गई है कि राजनीति के काम में सब जगह धर्मों के अनुयायी अपने-अपने धर्म को राजनीति से जोड़ने की कोशिश करते हैं. ऐसा करने से उनके धर्म को बल मिलता है. और शक्ति से लोगों को विवश किया जाता है कि उनके धर्मों में अधिक से अधिक लोग आएं ताकि उस धर्म के अनुयायी अपनी इच्छा के अनुसार सरकार बना लें ! भारत धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है यहाँ विभिन्न प्रकार के धर्म पाये जाते है और उन धर्मों के अनुसार भारतीय समाज में नाना प्रकार की परम्पराएं और प्रथाऐं प्रचलित हैं, इन सब में भारतीय समाज, भारतीय साहित्य, सभ्यता और संस्कृति, भारतीय अर्थव्यवस्था और राजनीति को एक बड़े पैमाने तक प्रभावित किया है। इस प्रभाव की विचित्रताओं, विशिष्टताओं और विभिन्नताओं को दृष्टिगत रखते हुए यदि यह कहा जाये कि भारत विभिन्न धर्मों का अजायबघर है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। लोकतान्त्रिक देश की राजनीती की और आपको लेकर चलू तो ‘धर्म और राजनीति के दायरे अलग-अलग हैं, पर दोनों की जड़ें एक हैं,और धर्म व् राजनीती का मूल सिद्दांत है - धर्म दीर्घकालीन राजनीति है, राजनीति अल्पकालीन धर्म है। धर्म का काम है, अच्छाई करे और उसकी स्तुति करे। राजनीति का काम है बुराई से लड़े और उसकी निन्दा करे। अब क्युकी हमारे देश मे दो प्रकार के भ्रम फल-फूल रहे हैं। कुछ लोग धर्म को गलत अर्थ निकालते हुये उसे सिर्फ और सिर्फ उपासना पद्धति से जोड़ते हैं। कुछ लोग राजनीति को गंदे लोगों के लिए सुरक्षित छोड़ देते हैं। धर्म का गलत अर्थ लेने की वजह से राजनीति भी गलत अर्थों मे ली जाती है परिणाम यह है कि राजनीति भी ‘धर्म’ की ही भांति गलत लोगों के हाथों मे पहुँच गई है। देश-हित,समाज-हित की बातें न होकर कुछ लोगों के मात्र आर्थिक-हितों का संरक्षण ही आज की राजनीति का उद्देश्य बन गया है। नेता का अर्थ है जो समाज, देश या वर्ग समूह का नेतृत्व करता है वह नहीं जो खुद का नेतृत्व करता है और सत्ता की कुर्सी पर बैठकर अपनी महत्वकांक्षा साधता हो। देश का नेतृत्व किसके हाथ में हो अब जनता तय करती है भ्रष्ट्राचारी, अपराधी , विश्वासघाती लोग ही इस देश का नेतृत्व करे, यही जनता चाहती है तो इनका चुनाव करने के लिए वह स्वतन्त्र है।धर्म गुरूओं द्वारा धर्म का जो वर्तमान स्वरूप बदला जा रहा है या कहे तो शब्दों का ताना-बुना कर अनुयायी के मन मे धर्म का जो बीजारोपण किया जा रहा है उस पर शायद ही किसी सच्चे अनुयायी को गर्व होना चाहिए। रही सही कसर हमारे राजनेताओं ने पूरी कर दी है। परिणामतः धर्म का अस्तित्व खतरे में नहीं है, वस्तुतः धर्म के कारण मानव समुदाय का अस्तित्व ही खतरे में है। यह बात किसी से छिपी नहीं है। दुनिया का कोई ऐसा देश नहीं है जहाँ धर्म के कारण अस्थिरता, अराजकता एवं भय का वातावरण नहीं हो फिर भी बहुत कम लोग इस संबंध में बोलने का दुस्साहस करता है।आज राजनीती की स्थिति को हर कोई जानता है । सब के मुंह से एक ही बात सुनने को मिलती है की , राजनीती बड़ी गन्दी हो गई है। आज कोई राजनीती की और जाना पसंद नही करता !अगर यह बात सत्य है तो हमारे देश की व्यवस्था को , हमारे समाज को इस गन्दी नीती से क्यो चलाया जाय ? इस नीति को साफ़ स्वच्छ एवं पारदर्शी बनाया जाय या फ़िर देश की व्यवस्था को किसी दूसरी व्यवस्था से चलाया जाय। राजनीती को कोसने या नेताओ को गालिया देने से क्या होगा ? अगर बात राजनीती को साफ स्वच्छ एवं पारदर्शी बनने की करे तो प्रश्न उपस्थित होता है की , यह शुभ कार्य करेगा कौन ? अगर कोई करेगा नहीं तो हमे यह साफ-सुंदर स्वच्छ लोकतांत्रिक परिकल्पना को भी भुला देने की जरूरत है और हमे यह कहने का भी अधिकार नहीं की राजनीत बहुत गंदी हो गयी है। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने कहा था, ‘मेरे लिए धर्म से अलग कोई राजनीति नहीं है। मेरा धर्म सार्वभौम और सहनशील धर्म है, अंधविश्वासो और ढकोसलों का धर्म नहीं। वह धर्म भी नहीं, जो घृणा कराता है और लड़ाता है। नैतिकता से विरक्त राजनीति को त्याग देना चाहिए.’ उनका यह विचार आज भी प्रासंगिक है, पर उनके नाम का इस्तेमाल करके सत्ता-सुख भोगने वालों ने इसे बहुत पहले त्याग दिया था. आज उनकी राजनीति अनैतिकता से भरपूर है। गांधी जी का यह विचार अब अप्रासांगिक हो गया है आज का धर्म ने अपना मूल स्वरूप त्याग कर समाज मे गलत व्यसन, कुकृत्य और धर्म को अधर्म मे परिवर्तन करने का स्वरूप बन कर रह गया है। अब धर्म राजनीति और राजनीति समाज देश को दिशा तो नही देता परंतु दोनों चेले-गुरु का दामन थाम अपनी अपनी स्वार्थ की रोटियाँ जरूर पक्का रहे है।यह तो जनता का सरोकार है अधिकार है बोलने की आज़ादी है राजनेताओं को चुनने का हक़ है आख़िर बार-बार हर बार जनता एक मौक़ा और क्यों दे ताकि वह अपनी रही-सही महत्वकांक्षा भी पूर्ण कर सकें। अब तो अपने सरोकार के लिए, अपने आने वाले भविष्य के लिए आवाज़ बुलंद करनी होगी और कहना होगा, ‘अब यह नहीं चलेगा’ ।हम जिस दौर में जी रहे है, उस दौर मे हंस के टाल देने वाली बातो पर हमारा खून खौल उठता है और जिन बातो पर वाकई हमारा खून खौलना चाहिए, उन्हें हम बेशर्मी से हंस के टाल देते है।आज जरुरत है धर्म और राजनीति एक दूसरे से सम्पर्क न तोड़ें, मर्यादा निभाते रहें।’’ धर्म और राजनीति के अविवेकी मिलन से दोनों भ्रष्ट होते हैं, इस अविवेकपूर्ण मिलन से साम्प्रदायिक कट्टरता जन्म लेती है। धर्म और राजनीति को अलग रखने का सबसे बड़ा मतलब यही है कि साम्प्रदायिक कट्टरता से बचा जाय। राजनीति के दण्ड और धर्म की व्यवस्थाओं को अलग रखना चाहिए नहीं तो, दकियानूसी बढ़ सकती है और अत्याचार भी। लेकिन फिर भी जरूरी है कि धर्म और राजनीति सम्पर्क न तोड़े बल्कि मर्यादा निभाते हुए परस्पर सहयोग करें। तभी धर्म एवं राजनीति के विवेकपूर्ण मिलन से एक आदर्श व् उन्नत समाज और उज्जवल राष्ट्र का निर्माण होगा ! 
उत्तम जैन ( विद्रोही ) 
मो-८४६०७८३४०१

उत्तम जैन ( विद्रोही )

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