पलायन करते मजदूर |
कोरोना के चलते भारत के 16 राज्यों के 331 शहरों में इन दिनों संपूर्ण लॉकडाउन है। इसके साथ ही बस, ट्रेन और हवाई यातायात भी बंद है। सरकार का तर्क है कि इससे संक्रमण फैलने की दर में कमी आएगी और संक्रमण को नियंत्रित करने में शतप्रतिशत कामयाबी मिलेगी। लेकिन मुंबई जैसे अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट पर पहले 2-3 दिन जांच में ढिलाई बरती गई। वहां तैनात डॉक्टरों का कहना था कि स्टांपिंग करके यात्रियों को निजी गाड़ियों या टैक्सी से जाने की दी गई सलाह से महाराष्ट्र में वायरस फैला। जो कैटिगरी बनाई भी गईं, उसमें सावधानियां बरतने के बजाय उसे हल्के में लिया गया। सरकार ने ठोस रणनीति, नियोजन और आबादी की आवश्यकता का कोई अध्ययन नहीं किया।
सरकार ने सिर्फ और सिर्फ लॉकडाउन का आनन-फानन में जो निर्णय लिया, वह कोरोना को रोकने में अभी तक कारगर साबित होता दिखाई नहीं दे रहा है, उलटे इससे अनेक जटिल समस्याएं पैदा हुई हैं। प्रवासियों का पलायन होने लगा। मुंबई सूरत जैसे अनेक महानगरों से हजारों लोगों ने पहले ट्रेन और बस से अपने अपने गांवों की ओर पलायन किया। जब ट्रेनें और बसें बंद हो गईं तो वे पैदल ही अपने-अपने गांवों को निकल पड़े। वहीं जरूरत की चीजों की भीषण कालाबाजारी भी शुरू हुई। लॉकडाउन के पहले ही अगर सरकार राशन, दवा और अन्य जरूरी चीजों की उपलब्धता का समुचित इंतजाम करती तो शायद लोगों के मन में वह अविश्वास और खौफ न होता, जो अभी है।
महानगरों में खड़ी तमाम बड़ी इमारतों में इनका पसीना लगा है। यही हैं वो जिन्होंने महानगर में मेट्रो के सपने को साकार किया। ये मजदूर पिछले दिनों बड़ी संख्या में लौटते दिखे अपने गांव-घर की ओर। झुंड के झुंड अपनी गठरियां, पोटलियां और कनस्तर उठाए लोग, बच्चों को गोद में लिए, कंधे पर बिठाए पैदल चलते स्त्री-पुरुष। विभाजन के बाद आजाद देश के लिए यह बिल्कुल नई तस्वीर है।
22 मार्च का जनता कर्फ्यू ट्रेलर था। कोरोना वायरस के चलते उपजी हेल्थ इमर्जेंसी के मद्देनजर 24 मार्च से देश में 21 दिन के लिए संपूर्ण लॉकडाउन कर दिया गया। साथ ही यह आश्वाटसन भी दिया गया कि आवश्यक वस्तुओं की कोई कमी नहीं होने दी जाएगी। पर लगता है हर व्यक्ति को बचाने और घरों के अंदर तमाम आवश्यक सुविधाएं सुनिश्चित करने का संकल्प नीचे तक पहुंचाने में कहीं कोई चूक रह गई। रोज कमाने और रोज खाने वाले लाखों लोगों तक या तो यह आश्वासन पहुंचा नहीं या पहुंचने के बाद भी उन्हें आश्वस्त नहीं कर सका। नतीजा यह कि दो दिन होते-होते उनकी हिम्मत टूट गई। उन्हें लगा लॉकडाउन की इस अवधि में वे घरों के अंदर बेमौत मर जाएंगे। तब तक बसों ट्रेनों की आवाजाही रोकी जा चुकी थी। सो, हजारों की संख्या में ये लोग पैदल ही सैकड़ों किलोमीटर की दूरी नापने का इरादा लेकर निकल पड़े कि मरें भी तो कम से कम अपनों के बीच मरें, उन लोगों के बीच जिन्हें हमारे जीने-मरने से फर्क पड़ता है
लॉकडाउन के दुष्प्रभाव और चुनौतियों का जायजा सरकारी स्तर पर नहीं लेने से पलायन और खौफ का मंजर है। सरकार को आम लोगों को आवश्यक सुविधाओं की आपूर्ति पर जोर देना चाहिए। इसके बाद भी अगर कोई लॉकडाउन का उल्लंघन करता है तो कानून अपना काम जरूर करे।
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