सुखी और सन्तुलित जीवन के लिए मनुष्य धर्माचरण पूर्वक आदर्श जीवन
यापन करने के साथ न्यायोपार्जित धन का संग्रह करे और विवेकपूर्वक परोपकारर्थ व्यय करे।
‘‘यतोऽभ्युदयनिश्रेयससिद्धि: स धर्म:।’’
अपने पारलौकिक धर्म की क्षति/हानि न करता हुआ लौकिक सुख को न्यायपूर्वक
व्यवहार करे।
जैनधर्म में संग्रह—प्रवृत्ति पर अंकुश है। आवश्यकता से
अधिक संग्रह पाप—बन्ध का कारण माना गया हैं परोपकार और धार्मिक कृत्यों में धन का
सदुपयोग अपेक्षित है। यद्यपि संयमी साधु जीवन के लिए पूर्ण धन का त्याग आवश्यक है; परन्तु गृहस्थ जीवन
में न्याय—नीति से अर्जित किया हुआ धन ही सार्थक है—वह गृहस्थ जो कोड़ी न रखे तो कोड़ी का
है; वह श्रमण जो कोड़ी रखे तो कोड़ी का है। एक की शोभा माया और राग—रंग और एक की शोभा
नग्न काया त्याग संग।
मनुष्य
अपने भविष्य की सुरक्षा परिवार के पालन—पोषण और
सामाजिक दायित्व निभाने के लिए धन संचय करे। जैन धर्मानुसार व्यक्ति अपनी सम्पत्ति
का परिसीमन करके अतिरिक्त धन को लोक कल्याण में लगाये। परिग्रह की मर्यादा का
सर्वप्रथम सन्देश भगवान महावीर ने दिया। जिसका प्रयोजन व्यक्ति संयम से लेकर समाज
में सम वितरण था। सामाजिक शक्ति के महत्त्व को समझने एवं समानवादी अर्थव्यवस्था का
विचारों में सूत्रपात करने वाले महावीर पहले ऐतिहासिक महापुरुष थे।
समाजवादी अर्थ—व्यवस्था के सन्दर्भ में जैनधर्म के अपरिग्रहवाद को समझना
होगा। स्थूलरूप में परिग्रह में धन—धान्य, चल—अचल, सम्पत्ति आदि है। महावीर के मौलिक और सूक्ष्म चिन्तन ने
स्थूल (बाह्य) परिग्रह से आगे बढ़कर उसके अन्तरंग प्रभाव को आंका। उन्होंने
आन्तरिक परिग्रह के नियंत्रण पर जोर दिया उन्होंने परिग्रह की सूक्ष्म व्याख्या की—मूच्र्छा परिग्रह: अर्थात् मूच्र्छा (आसक्ति) परिग्रह है।
परिग्रह की सूक्ष्म परिभाषा में उन्होंने सम्पत्ति के प्रति आसक्ति को परिग्रह का
मूल कारण कहा।
यदि मनुष्य के मन में ममत्व
प्रमाद है तो वास्तव में सम्पत्ति पास में न होते हुए भी सम्पत्ति पाने की लालसा
तीव्र होगी। तदर्थ उसके प्रयास आक्रामक होंगे। आधुनिक भाषा में वह पूंजीपति नहीं
होते हुए भी पूंजीवादी होगा। दूसरी ओर एक मनुष्य के पास अपार सम्पत्ति होते हुए भी
यदि उसका उसमें ममत्व नहीं है तो उसका जीवन कीचड़ में रहते हुए कमल के समान हो
सकता है, जिससे वह उदार मन होगा। महात्मा गाँधी
की भाषा में वह समाज की सम्पत्ति का ट्रस्टी मात्र होगा। इस प्रकार सम्पत्ति के
स्वामित्व का प्रश्न परिग्रह में मूच्र्छा की भावना पर निर्भर है। भगवान महावीर ने
कहा व्यक्ति सम्पत्ति के प्रति आसक्ति मिटावे और त्याग/दान की प्रवृत्ति अपनावे।
परिग्रहपरिमाण व्रत के द्वारा उपभोग्य पदार्थों को समाज में समान रूप से वितरण
करे। वस्तुत: महावीर के अपरिग्रहवाद की मूल प्रेरणा में व्यक्तिगत के साथ सामाजिक
हित भी समाविष्ट है; जिसमें
गृहस्थ में रहते हुए भी व्यक्ति की सामाजिक निष्ठा जागृत रहे।
यहाँ यह विशेष उल्लेखनीय है कि
जैनधर्म के अहिंसा, अनेकान्त
और अपरिग्रह के सिद्धान्त स्वयं समाजवादी अर्थव्यवस्था की दार्शनिक रूपरेखा है। इन
सिद्धान्तों के परिपाश्र्व में ही आधुनिक समाजवादी दर्शन को भी नवीन रूप देकर
सर्वप्रिय बनाया जा सकता है। भगवान महावीर के सिद्धान्तों ने सामाजिक शक्ति की
सम्यक् व्यवस्था के अभ्युदय को प्रेरणा दी है। अत: तीर्थंकर वर्धमान महावीर को समाजवादी अर्थव्यवस्था का प्रवर्तक कहा जा सकता
है। महावीर के सिद्धान्तों में वह क्षमता विद्यमान है। जो समाजवादी अर्थव्यवस्था
को समन्वित रूप प्रदान कर समाज में सामंजस्य पैदा करती है। जैनधर्म के
परिप्रेक्ष्य में समाजवादी अर्थव्यवस्था इस प्रकार है—
१.परिग्रह और उसके ममत्व का
त्याग—समाजवादी अर्थव्यवस्था के लिए यह
सर्वाधिक प्रेरणाप्रद है। आसक्ति या ममत्व घटाने या मिटाने का भावनामूलक उपाय तो
समाजवादी अर्थव्यवस्था का मूल आधार है। इसमें व्यक्तिगत स्वामित्व का
स्वेच्छापूर्वक त्याग महत्त्वपूर्ण है। व्यक्तिगत स्वामित्व में मोह की सत्ता रहती
है। जबकि सामाजिक सम्पत्ति में व्यक्ति का मोह नहीं होता। जब समाजगत अर्थव्यवस्था
होती है तो उसमें व्यक्ति का कत्र्तव्य समाज के प्रति सजग रहता है। जैसे—एक सेठ का नौकर सेठ की सम्पत्ति संभालते हुए भी उसका मालिक
नहीं है। धर्मशाला की सम्पत्ति मैनेजर के अधीन होती है, किन्तु उसमें उसका ममत्व नहीं होता। अत: उसके उपयोग में
समानता का व्यवहार होता है।
२. सम्पत्ति के संचय का विरोध—संचय—वृत्ति
ने समाज की प्रगति में सर्वाधिक प्रभाव डाला है। इस कारण अर्थसंग्रह के आधिक्य को
रोकना समाजवादी अर्थव्यवस्था का प्रथम कर्तव्य है। भगवान महावीर ने सम्पत्ति के
संचय का विरोध करके आर्थिक
विकेन्द्रीकरण का मार्ग प्रशस्त किया है। संचय को पदार्थ के प्रति आसक्ति माना।
आसक्ति को आत्म—पतन की सूचिका बताया। साधु तो
सम्पत्ति का सर्वांशत: त्याग करता ही है। वह सम्पत्ति को किसी रूप में स्पर्श तक
नहीं करता। परन्तु गृहस्थ श्रावक को भी सम्पत्ति के सम्बन्ध में अधिकाधिक मर्यादा
पूर्वक जीवन व्यतीत करने का निर्देश जैनधर्म में दिया गया है, जो व्यक्ति व समाज के सुख का कारण है।
३. मर्यादा से पदार्थों के सम वितरण की
उदात्त भावना—गृहस्थ
व्यक्ति सम्पत्ति के सहयोग से अपने गृहस्थ जीवन का निर्वाह करता है। परिग्रह
परिमाण व्रत का एक उद्देश्य तो यह है कि सम्पूर्ण समाज में पदार्थों का समान रूप
से वितरण हो सके,
क्योंकि मर्यादा परिग्रह—परिमाण से सीमित हाथों में सीमित पदार्थों का केन्द्रीकरण
नहीं हो सकेगा। महावीर को यह मान्य नहीं था कि एक व्यक्ति तो असीम मात्रा में सुख—सुविधा के पदार्थों का संग्रह करे और दूसरा उनके अभाव में
पीड़ित होता रहे। वितरण के विकेन्द्रीकरण की विचारणा उस समय ही महावीर ने कर ली थी, जो आज समाजवादी अर्थव्यवस्था की दृष्टि से श्रेष्ठ विधि है।
४. स्वैच्छिक अनुशासन—सामाजिक अर्थव्यवस्था वही स्थिर हो सकेगी, जो स्वैच्छिक अनुशासन के बल पर जीवित रहेगी ऊपर से थोपी गई
श्रेष्ठ बात को भी हृदय सहज में ग्रहण नहीं करता। अत: आधुनिक समाजवादी दर्शन में
स्वैच्छिक अनुशासन (निज पर शासन फिर अनुशासन) को अपना लिया जावे, तो समाजवादी अर्थव्यवस्था अधिक स्थिर हो सकेगी।
५. विचार और आचार में समनव्य—किसी भी समाजवादी अर्थव्यवस्था के लिए यह आवश्यक है कि
प्रत्येक व्यक्ति अपने आचार—विचार को
दूसरे के साथ समन्वित करने की चेष्टा करे। यह समन्वय जितना गहरा होगा, उतना ही व्यवस्था का संचालन सहज होगा। अनेकान्त और अहिंसा के
सिद्धान्त ऐसे ही समन्वय के प्रतीक हैं। आचरण में अहिंसा, विचारों में अनेकान्त, वाणी में
स्याद्वाद और समाज में अपरिग्रहवाद—इन्हीं
चार मणिस्तम्भों पर जैनधर्म का सर्वोदयी प्रासाद अवस्थित है। जैनाचार्यों ने समय—समय पर इसी प्रासाद की सुरक्षा की हैं
समाजवादी अर्थव्यवस्था के
सन्दर्भ में महावीर से माक्र्स तक जो दार्शनिक विचारधारा प्रवाहित हुई, उसमें अधिक विभेद नहीं है, अपितु इस धारा को प्रवाहित करने का अधिक श्रेय महावीर को ही है। यह
श्रेय इसलिए भी अधिक महत्त्वपूर्ण है कि ढाई हजार वर्ष पूर्व जिस समय समाजवादी
शक्ति का कल्पना में भी आविर्भाव नहीं था, उस समय
महावीर ने इस समाजवादी अर्थव्यवस्था के प्रेरक सूत्रों को अपने सिद्धान्तों में
समाविष्ट किया। वस्तुत: महावीर के अनेकान्त (स्याद्वाद) अहिंसा और अपरिग्रह के
सिद्धान्त समाजवादी अर्थव्यवस्था की दार्शनिक रूपरेखा है, जिनके आलोक में इस अर्थव्यवस्था को सर्वप्रिय बनाया जा सकता
है। महावीर द्वारा उपदिष्ट ये सिद्धान्त जैनधर्म के सिद्धान्त समाजवादी
अर्थव्यवस्था के सुचारू रूप से निर्धारण की दृष्टि से आज भी प्रभावशाली और
प्रासंगिक हैं। ये सिद्धान्त व्यष्टि और समष्टि के हितार्थ पूर्णत: सार्थक हैं।
जैनधर्म के श्रावकाचार के पांच अणुव्रतों का अनुपालन सुखमय जीवन निर्वाह का
प्रशस्तीकरण है। जैनधर्म का सन्देश है कि सुखी जीवन के लिए संयमाचरण भोगोपभोग की
वस्तुओं का नियंत्रण और अल्प आरम्भ परिग्रह मनुष्य जीवन की सार्थकता है।
जैन गृहस्थ अपनी आय में से आहार, औषध, अभय और ज्ञान दान के निमित्त राशि निकालना अपना परम कर्तव्य समझता है। इस
प्रकार के दानों से समाज में सन्तुलन रहता है जो समाजवादी विचारधारा का
महत्त्वपूर्ण बिन्दु है। समाज के सभी लोकोपकारी कार्यों में अपने अर्जित धन में से
वितरण समाज की अर्थव्यवस्था को सन्तुलन देता है। जैनधर्म की यह समाजवादी
अर्थव्यवस्था परिग्रहपरिमाण व्रत से पुष्ट होती है जो व्यक्तिगत और समाजगत दोनों
के लिए सुखी व्यवस्था का प्रमुख आधार है। मगर समाजवादी
अर्थ व्यवस्था जैन समाज की विघटन की ओर जा रही है
No comments:
Post a Comment