Friday, 27 April 2018

कानून में रेप की परिभाषा बहुत अनोखी है- उत्तम जैन (विद्रोही)

आप लोगों को याद है? कोई चंद वर्षो पहले की बात है। दिसंबर का दूसरा पखवाड़ा और 16 दिसंबर का दिन। दिल्ली में चलती बस में एक गैंगरेप हुआ था। पीड़ित लड़की पैरामेडिकल की छात्रा थी। उसके साथ छह दरिंदों ने इतना अमानवीय व्यवहार किया था कि लड़की का शरीर ही नष्ट हो गया। भारत में डॉक्टरों ने उसकी जान बचाने की हर संभव कोशिश की, लेकिन सफल नहीं हुए। भारतीय डॉक्टरों के नाकाम होने पर उसे सिंगापुर के विश्वविख्यात माउंट एलिजाबेथ अस्पताल ले जाया गया, फिर भी उसकी जान नहीं बचाई जा सकी। यानी दो हफ़्ते मौत से जूझने के बाद 29 दिसंबर को वह यमराज से उसी तरह हार गई, जैसे बलात्कारियों से लड़ने के बाद हार गई थी।

क्या उस क्रूर और अमानवीय घटना का इंसाफ़ हो गया? अगर नहीं तो क्यों? लोग वारदात को ही भूल गए। चूंकि किसी आरोपी को सज़ा कितनी और किस तरह देनी है, यह फ़ैसला अदालत करती है और अदालत के फ़ैसले पर किसी का कोई ज़ोर नहीं। न्यायपालिका स्वतंत्र है। वह गैंगरेप के आरोपियों को कब मौत की सज़ा दी जाए या कोई दूसरी सज़ा, यह फ़ैसला केवल अदालत ही करेगी।“
कुंठित पुरुषों द्वारा एक लड़की का बलात्‍कार ........... लड़की को पीड़ित कहना तो एक क्षण के लिए समझ भी आता है, लेकिन यह कहना कि 'लड़की की इज्‍जत तार-तार कर दी गई', 'इज्‍जत लूट ली गई', 'अस्‍मत लुट गई' बहुत अख़रता है। वास्‍तव में यही शब्‍द और इसी सोच ने यह बलात्‍कार किया है न कि कुछ एैरे-गैरे पुरुषों ने... समझ नहीं आता कि आखिर पुरुष द्वारा की गई किसी गंदी हरकत में लड़की की इज्‍जत कैसे लुट जाती है... इज्‍जत तो पुरुष की लुटनी चाहिए ना, कि उसने इतना घिनौना काम किया... फिर आखिर क्‍यों ऐसी आवाजें उठती हैं 'लड़की की अस्‍मत लूटने वालों को कड़ी सजा हो...'अगर यह मानसिकता नहीं होती तो शायद ये हादसा नहीं हुआ होता, क्‍योंकि बदला लेने और शर्मिंदा करने के लिए बलात्‍कार करने वाले उन पुरुषों को पता होता कि ऐसा करने से लड़की की नहीं उनकी इज्‍जत दांव पर लगेगी। लड़की की नहीं उनकी अस्‍मत लुटेगी। क्‍या ये हमारा दोहरा रवैया नहीं है, हम दोषी को दोषी नहीं कहते, बल्कि एक अपराध के पीड़ित को ‘अपराधी’ बना देते हैं। मैं हमारे सभ्य और मर्यादित समाज से पूछना चाहता हूं आख़िर क्यों वो बलात्कार की शिकार लड़की का नाम छिपाना चाहता है, क्या उसे उनसे सहानुभूति है या फिर एक दया...? अगर समाज की नज़र में वह गुनहगार नहीं पीड़ित है, तो उसके नाम को चोरों की तरह दबाकर क्यों रखा जाता है...? अगर इसके पीछे दिए गए सारे तर्क एक औरत की अस्मिता, उसके सम्मान और उसके मान से जुड़े हैं तो क्‍या वो सब धता नहीं हैं?

क्या ये देश लड़कियों, औरतों के लिए खतरनाक हो चुका है? रोजाना रेप और हिंसा की इतनी घटनाएं होती हैं कि आप हिलकर रह जाते हैं, या आप पर कोई फर्क ही नहीं पड़ता. अखबार पलटकर रख देते हैं. रिमोट से चैनल बदल देते हैं. किसी सुखद खबर की तरफ मुड़ जाते हैं या फिर सीरियल की हंसती नायिका की ओर. तसल्ली हो जाती है कि सब कुछ अच्छा है. हादसे होते रहते हैं. जींद, पानीपत, फरीदाबाद- रोजाना शहर बदल जाते हैं, पीड़िता की उम्र बदल जाती है पर मामला वही वीभत्स, कुत्सित, रौंगटे खड़े कर देने वाला. लगातार किसी न किसी अप्रिय घटना से दो-चार हो जाना आम हो रहा है.
दुखद यह भी है कि रेप के ज्यादातर मामलों में आरोपी अपना कोई जानने वाला होता है. अनजान लोगों से ज्यादा खतरनाक अपने हो जाते हैं. एक रिपोर्ट के मुताबिक रेप के 94.6% मामलों में आरोपी पीड़ित का रिश्तेदार था जिसमें भाई, पिता, दादा-नाना, बेटा या कोई परिचित, पड़ोसी शामिल है. यह किसी ट्रॉमा से कम नहीं कि अपना कोई सगा ऐसे मामले में शामिल हो. लेकिन अक्सर पीड़ित का आरोपी को जानना उसके लिए न्याय हासिल करने में रुकावट बन जाता है.
यूं भी कानून में रेप की परिभाषा बहुत अनोखी है. यह इस पर निर्भर करता है कि मर्द का औरत पर कितना अधिकार है. अगर रेपिस्ट अनजान व्यक्ति है, मतलब औरत या लड़की से उसकी शादी नहीं हुई तो वह ज्यादा बड़ी सजा का पात्र है. उसके साथ लिव इन में रहता है तो कम सजा का. तलाक दे चुका है तो ज्यादा सजा का, तलाक नहीं दिया है और मामला कोर्ट में है तो कम सजा का पात्र है. अगर शादी करके मजे से रह रहा है तो किसी सजा का पात्र नहीं है. मैरिटल रेप तो अपने यहां रेप है ही नहीं. लेकिन कानून बनाने वाले यह भूल जाते हैं कि रेप, तो रेप ही है. शादीशुदा का हो या बिना शादीशुदा का. औरत हो, बूढ़ी या बच्ची. कितना भी निर्दयी हो- क्योंकि रेप अपने आप में ही निर्दयी है.
रेप या यौन हिंसा क्या है? किसी पर हावी होने की प्रवृत्ति. खुद के बड़ा, असरदार होने का अक्षम्य दंभ. औरत को प्रॉपर्टी समझने की भूल. हमारा कानून औरत को संरक्षण देने की बात कहता है. संरक्षण संपत्ति का होता है. किसी व्यक्ति का नहीं. जब हम औरत को सुरक्षा देने की बात कहते हैं तो यह भी याद करते चलते हैं कि वह कमजोर है. दरअसल मर्द किस्म के लोग जितना डराना चाहते हैं, उतना ही खुद भी भीतर से डरे होते हैं. अपने डर को छिपाने के लिए पौरुष का प्रयोग करते चलते हैं. उन्हें हर बार डर लगता है कि जिस पल लड़कियां आजाद होने का फैसला कर लेंगी, उनकी मर्द कहलाने की वैधता समाप्त हो जाएगी.
मध्ययुगीन , भयभीत और छटपटाती हुई स्त्रियों के करुण प्रोफाइल पर जब से आजाद बच्चियों ने अपना फोटो चिपकाया है, तब से हिंसा का शिकार भी ज्यादा हो रही हैं. इसीलिए कानून को सख्त बनाना होगा, त्वरित फैसले करने होंगे. हमें हर पुरानी और नई पीढ़ी के बीच साहस की विरासत संभालनी होगी. औरत को औरत का साथ देना होगा !
लेखक - उत्तम जैन ( विद्रोही )
संपादक - विद्रोही आवाज़ 

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