Monday 1 May 2017

प्रकृति ओर मनुष्य

मनुष्य सदियों से प्रकृति की गोद में फलता-फूलता रहा है! मानव और प्रकृति के बीच बहुत गहरा सम्बन्ध है। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। मानव अपनी भावाभिव्यक्ति के लिए प्रकृति की ओर देखता है और उसकी सौन्दर्यमयी बलवती जिज्ञासा प्रकृति सौन्दर्य से विमुग्ध होकर प्रकृति में भी सचेत सत्ता का अनुभव करने लगती है। हमारे धार्मिक ग्रंथ, ऋषि-मुनियों की वाणियाँ, कवि की काव्य रचनाएँ, सन्तों-साधुओं के अमृत वचन सभी प्रकृति की महत्ता से भरी पड़ी है। विश्व की लगभग सारी सभ्यता का विकास प्रकृति की ही गोद में हुआ और तब इसी से मनुष्य के रागात्मक सम्बन्ध भी स्थापित हुए, किन्तु कालान्तर में हमारी प्रकृति से दूरी बढ़ती गई। इसके फलस्वरूप विघटनकारी रूप भी सामने आए। तभी तो प्रकृति की महत्ता को बतलाते हुए कहा गया है- सौ पुत्र एक वृक्ष समान। प्रकृति के संरक्षण का हम अथर्ववेद में शपथ खाते हैं- "हे धरती माँ, जो कुछ भी तुमसे लूँगा, वह उतना ही होगा जितना तू पुनः पैदा कर सके। तेरे मर्मस्थल पर या तेरी जीवन शक्ति पर कभी आघात नहीं करूँगा।" मनुष्य जब तक प्रकृति के साथ किए गए इस वादे पर कायम रहा सुखी और सम्पन्न रहा, किन्तु जैसे ही इसका अतिक्रमण हुआ, प्रकृति के विध्वंसकारी और विघटनकारी रूप उभर कर सामने आए। सैलाब और भूकम्प आया। पर्यावरण में विषैली गैसें घुलीं। मनुष्य का आयु कम हुआ। धरती एक-एक बूँद पानी के लिए तरसने लगी, लेकिन यह वैश्विक तपन हमारे लिए चिन्ता का विषय नहीं बना। तापमान में बढ़ोत्तरी के कारण दुनिया भर में ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। हमारे यहाँ प्रतिवर्ष 15 लाख हेक्टेयर वन नष्ट हो रहे हैं, जबकि प्रतिवर्ष वन लगाने की अधिकतम सीमा 3 लाख 26 हजार हेक्टेयर है। यही हाल रहा तो आगामी कुछ दशकों में हमारी धरती वन विहीन हो जाएगी। जब पाप अधिक बढ़ता है तो धरती काँपने लगती है। यह भी कहा गया है कि धरती घर का आंगन है, आसमान छत है, सूर्य-चन्द्र ज्योति देने वाले दीपक हैं, महासागर पानी के मटके हैं और पेड़-पौधे आहार के साधन हैं। हमारा प्रकृति के साथ किया गया वादा है- वह जंगल को नहीं उजाड़ेगा, प्रकृति से अनावश्यक खिलवाड़ नहीं करेगा, ऐसी फसलें नहीं उगाएगा जो तलातल का पानी सोख लेती है, बात-बेबात पहाड़ों की कटाई नहीं करेगा। याद रखिए, प्रकृति किसी के साथ भेदभाव या पक्षपात नहीं करती। इसके द्वार सबके लिए समान रूप से खुले हैं, लेकिन जब हम प्रकृति से अनावश्यक खिलवाड़ करते हैं तब उसका गुस्सा भूकम्प, सूखा, बाढ़, सैलाब, तूफान की शक्ल में आता है, फिर लोग काल के गाल में समा जाते हैं। प्रकृति ईश्वर की शक्ति का क्षेत्र है और जीवात्मा उसके प्रेम का क्षेत्र। प्रकृति की इसी महत्ता को प्रतिस्थापित करते हुए एक कथन है कि जो मनुष्य सड़क के किनारे तथा जलाशयों के तट पर वृक्ष लगाता है, वह स्वर्ग में उतने ही वर्षों तक फलता-फूलता है, जितने वर्षों तक वह वृक्ष फलता-फूलता है। इसी कारण हमारे यहाँ वृक्ष पूजन की सनातन परम्परा रही है। यही पेड़ फलों के भार से झुककर हमें शील और विनम्रता का पाठ पढ़ाते हैं साहित्य में आदर्शवाद का वही स्थान है जो जीवन में प्रकृति का है। प्रकृति से मनुष्य का सम्बन्ध अलगाव का नहीं है, प्रेम उसका क्षेत्र है। सचमुच प्रकृति से प्रेम हमें उन्नति की ओर ले जाता है और इससे अलगाव हमारे अधोगति के कारण बनते हैं। एक कहावत भी है- कर भला तो हो भला।

उत्तम जैन (विद्रोही )


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