आज उधना स्टेशन से मेरे ऑफिस के लिए निकल रहा था किसी काम से एक गली से निकला एक महानगर पालिका द्वारा संचालित एक शोचालय की तरफ नजर पड़ी अपनी दुपहिया गाड़ी वहा रोकी ओर निहारने लगा जिसके बाहर एक बड़ा स्लोगन लिखा था - "बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ -बिन शोचालय के दुल्हन का शृगार अधूरा है " साथ मे बहुत से स्लोगन लिखे हुए थे ! सभी स्लोगन पढे अच्छे भी लगे विचार किया क्यू नही अंदर जाकर स्वच्छता को भी निहार आऊ ! अंदर जाने लगा एक बिहारी बाबू ने शायद कोंटरेक्ट लिया हुआ है उसने शायद सोचा ने शोच के लिए आया हु ! मेने अपना बिना परिचय दिये वंहा सामने दीवार पर रेट लिखी हुई थी नहाने का 5 रुपया शोच का 2 रुपया जो साफ साफ नही दिख रहे थे ! ज्यादा पेसे लेने के लिए शायद रुपये जो लिखे हुए थे हल्के से मिटा दिये गए जिससे साफ न दिखाई दे ! मेने जेब से 2 का सिक्का निकाल कर दिया उक्त ठेकेदार या ठेकेदार का कर्मचारी होगा 3 रुपया मांगने लगा ! जब मेने उसे कहा निश्चित शुल्क तो 2 रुपया है फिर ज्यादा वसूली क्यू ? शायद उसे कुछ भनक लग गयी मुझसे उलझा तो नही अंदर जाकर देखा कुछ के दरवाजे टूटे है तो बहुत जगह पान मावे व गुटके की पीक मारी हुई है ओर इतनी बदबू की ज्यादा देर हम खड़े भी नही रह सकते ! सरकार द्वारा चलायी जा रही स्वच्छ भारत ओर जगह जगह शोचालय की परिकल्पना लेकर वंहा से निकला ओर एक ब्लॉग लिखने का विषय मिल गया ----
हमारे प्रधानमंत्री मोदी जी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ के साथ ही एक बहुत बड़ा मिशन हाथ मे लिया "स्वच्छ भारत " निसंदेह मोदी जी द्वारा यह शुरू किया मिशन प्रसंशनीय भी था ! खेर सफलता के किस शिखर पर हम पहुंचे कोई स्पष्ट आंकड़े तो नही मगर देखा जाये तो देश को स्वच्छ बनाने के प्रधानमंत्री मोदी के संकल्प की समय-सीमा ज्यों-ज्यों समीप आती जा रही है, राज्यों और उनके प्रशासन पर यह लक्ष्य हासिल करने का दबाव बढ़ता जा रहा है. 2014 में प्रधानमंत्री मोदी ने आह्वान किया था कि 2019 तक पूरे देश को साफ-सुथरा बनाना है. खुद उन्होंने दिल्ली की एक सड़क पर झाड़ू लगाकर स्वच्छ भारत मिशन की शुरुआत की थी. उनके मंत्रिमंडलीय सहयोगियों और भाजपाई राज्यों के मुख्यमंत्रियों एवं मंत्रियों ने भी झाड़ू पकड़कर स्वच्छता का संकल्प लिया था. जो हमे आए दिन इलेक्ट्रोनिक मीडिया व प्रिंट मीडिया मे दिखाई देता था !
इसमें दो राय नहीं कि स्वच्छ भारत मिशन अत्यंत आवश्यक और पवित्र संकल्प है. गांवों से लेकर शहरों तक भीषण गंदगी फैली है. पीने का साफ पानी स्वच्छ होना तो बहुत दूर की बात है, कूड़े-कचरे, मलबे और मानव उच्छिष्ठ के कारण गांवों से लेकर शहरों-महानगरों तक की आबादी घातक रोगों की चपेट में आती रहती है. जिनसे हर साल सैकड़ों-हजारों बच्चों की मौत होती है, इन बीमारियों के होने और फैलने का प्रमुख कारण गंदगी है. पूर्व की कांग्रेस सरकारों और यूपीए शासन में निर्मल भारत योजना चलायी जरूर गयी, लेकिन किसी प्रधानमंत्री ने इस अभियान को ऐसी प्राथमिकता और इतना ध्यान नहीं दिया जितना ध्यान मोदी सरकार ने प्राथमिकता से दिया !
प्राप्त सरकारी आंकड़ों (नेट से प्राप्त ) पर विश्वास करें, तो देश का सफाई-प्रसार (सैनिटेशन कवरेज) जो 2012-13 में 38.64 फीसदी था, वह 2016-17 में 60.53 फीसदी है. 2014 से अब तक करीब तीन करोड़ 88 लाख शौचालय बनवाये गये हैं.
एक लाख 80 हजार गांव, 130 जिले और तीन राज्य- सिक्किम, हिमाचल और केरल- खुले में शौच मुक्त घोषित कर दिये गये हैं. दावा है कि इस वर्ष के अंत तक गुजरात, हरियाणा, पंजाब, मिजोरम और उत्तराखंड भी इस श्रेणी में आ जायेंगे.
जमीनी हकीकत बहुत फर्क है. देश में शायद ही ऐसा कोई नगर निगम, नगर पालिका या पंचायत हो, जिसके पास अपने क्षेत्र में रोजाना निकलने वाले कचरे को उठाने और कायदे से उसे निपटाने की क्षमता हो. जो कचरा उठाया जाता है, किसी बाहरी इलाके में उसका पहाड़ बनता जाता है. सिर पर मैला ढोने की कुप्रथा कायम है. खुले में शौच की मजबूरी का नारकीय उदाहरण तो रोज सुबह ट्रेन की पटरियों, खेतों-मैदानों में दिखाई ही देता है.
प्रधानमंत्री और सारे मंत्री चाहे जितना झाड़ू उठा लें, कचरा प्रबंधन और नगर निगमों-नगर पालिकाओं की क्षमता बढ़ाये बिना शहर और कस्बे साफ नहीं हो सकते. नागरिकों को सफाई अपने व्यवहार का हिस्सा बनानी होगी. इन मोर्चों पर क्या हो रहा है?
स्वच्छ भारत मिशन का सारा जोर खुले में शौच को बंद करना है. जिलाधिकारियों पर अपने जिले को इससे मुक्त घोषित करने का दबाव है. उसी दबाव के चलते अभी अभी कुछ दिनो पूर्व सुना है जिलाधिकारी के आदेश लुंगी खुलवाई जा रही है, कहीं टॉर्च चमकाया जा रहा है और कहीं भारी जुर्माना थोपा जा रहा है. !
क्या ऐसे अपमान और आतंक से लोगों को समझाया जा सकता है? स्वच्छ भारत मिशन की दिशा-निर्देशिका कहती है कि गांव-गांव स्वच्छता-दूत तैनात किये जायें, जो लोगों को समझायें कि खुले में शौच के क्या-क्या नुकसान हैं. लोगों को समझाना है, न की अपमानित करना !
बहुत सारे लोग शौचालय बनवा लेने के बावजूद खुले में जाना पसंद करते हैं. पुरानी आदत के अलावा ऐसा शौचालयों की दोषपूर्ण बनावट के कारण भी है. हमे यदा कदा शोशल मीडिया पर सरकार या पालिका द्वारा बनवाये शोचालय मे पान की दुकान तो कंही किराने की दुकान के फोटो भी प्राप्त हुए !
सरकारी दबाव और मदद से जो शौचालय बनवाये गये हैं, अधिसंख्य में पानी की आपूर्ति नहीं है. ‘सोकपिट’ वाले शौचालयों में पानी कम इस्तेमाल करने की बाध्यता भी है. नतीजतन दड़बेनुमा ये शौचालय गंधाते रहते हैं. ‘कपार्ट’ के सोशल ऑडिटर की हैसियत से मैंने देखा है कि लोग ऐसे शौचालयों का प्रयोग करना ही नहीं चाहते. बल्कि, उनमें उपले, चारा और दूसरे सामान रखने लगते हैं.
एक बड़ी आबादी शौचालय नहीं बनवा सकती, क्योंकि उसके लिए दो जून की रोटी जुटाना ही मुश्किल है. गंगा के तटवर्ती गांवों को खुले में शौच-मुक्त कर लेने के सरकारी दावे की पड़ताल में एक सर्वे मे हाल ही में पाया कि लगभग सभी गांवों में ऐसे अत्यंत गरीब लोग, जिनमें दलितों की संख्या सबसे ज्यादा है, अब भी खुले में शौच जा रहे हैं. वे शौचालय बनवा पाने की हैसियत ही में नहीं हैं. सरकारी सहायता तब मिलती है, जब शौचालय बनवाकर उसके सामने फोटो खिंचवायी जाये.
शहरों-महानगरों में एक बड़ी आबादी झुग्गी-झोपड़ियों में रहती है. मजदूरी करनेवाले एक बोरे में अपनी गृहस्थी पेड़ों-खंभों में बांधकर फुटपाथ या खुले बरामदों में जीते हैं. इनके लिए सामुदायिक शौचालय बनवाने के निर्देश हैं. अगर वे कहीं बने भी हों, तो उनमें रख-रखाव-सफाई के लिए शुल्क लेने की व्यवस्था है, जो इस आबादी को बहुत महंगा और अनावश्यक लगता है.
खुले में शौच से मुक्ति का अभियान सचमुच बहुत बड़ी चुनौती है. इसका गहरा रिश्ता अशिक्षा और गरीबी से है. सार्थक शिक्षा दिये और गरीबी दूर किये बिना सजा की तरह इसे लागू करना सरकारी लक्ष्य तो पूरा कर देगा, लेकिन सफलता की गारंटी नहीं दे सकता. आज सरकार के साथ आम जनता को इस अभियान के लिए जागृत होना होगा !
लेखक - उत्तम जैन ( विद्रोही )
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