Sunday, 15 October 2017

जैन संतों पर लगते आरोप ---- एक मंथन का समय है जैन समाज के लिए ..... भाग 1

मे जैन हु ओर जैन समाज मे जन्म लेना मेरे लिए बड़े गर्व की बात है ! आज अगर देखा जाए जैन समाज अल्पसंख्यक होते हुए भी हर तरह से समृद्ध है ! सामाजिक जागृति , आर्थिक , शेक्षणिक , सेवा भावना , परोपकार , दया , अहिंसा , गो सेवा , देशहित के हर कार्यो मे जैन समाज ने अपना परचम लहराया है ! भगवान महावीर के सिदान्तो का अनुगामी जैन समाज एक मच्छर मारने से पहले सो बार सोचता है यह तो छोड़िए अपनी वाणी द्वारा किसी का मन दुखे उसे भी जैन समाज हिंसा मानता है ! जैन समाज की उत्त्पती कब हुई केसे हुई स्पष्ट जानकारी तो मुझे नही मगर जैन कुल मे जन्म लेना ओर जैन धर्म के सिदान्तो का अनुसरण करने मात्र से ज्ञात होता है की इस धर्म मे सूक्ष्म से सूक्ष्म रूप से हर विषय आचार ,विचार को ध्यान मे रखते हुए धर्म की स्थापना हुई होगी ! जैन समाज मे साधू संतो की चर्या सबसे कठोर होती है ! इस चर्या मे जैन समाज की ओर देखा जाये तो जैन धर्म के सिद्धान्त—अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य से अभिप्रेरित है। स्याद्वाद, अनेकान्त, सप्तभंगीवाद जैसे सिद्धान्त या शैलियाँ हमारी वैचारिक दृष्टि—सरणि को संतुलित बनाते हैं और मानसिक एवं वाचनिक अहिंसा को मजबूत करते हैं। मगर आधुनिक युग जिसे हम २१वीं सदी कहते हैं उसमें जैनधर्म नए युग का धर्म बनने की ओर अग्रसर है क्योंकि आज का समाज परीक्षण के बिना कुछ भी मानने के लिए तैयार नहीं। उसे जो भी चाहिए वह सारभूत, सर्वाधिक सार्थक और सत्य से संपृक्त होना चाहिए। जैन धर्म के लिए अंतर में विद्यमान आत्मसत्य ही परमसत्य है। यह किसी भी जीव को आलोकित कर सकता है। आत्मसाक्षात्कार आत्मा को स्वयं करना होता है। इसके जो कारण हैं वे हैं साधना, चित्त—शुद्धि और आत्मावलोकन। हमारा धर्म श्रद्धा, ज्ञान और चरित्र प्रधान है। जैन समाज का मूल धार्मिक आधार तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित जैनधर्म एवं दर्शन है। यह धर्म एवं दर्शन सार्वभौमिक सहअस्तित्व पर विश्वास रखता है। यह लोक के भले के लिए है किसी तंत्र विशेष के लिए नहीं। वह ‘मत’ के आधार पर विभाजित या विलोपित नहीं किया जा सकता। यहाँ सत्य का आग्रह है किन्तु दुराग्रह नहीं। विजय अर्थात् जीतने के लिए आत्मा है किन्तु प्राणियों से शत्रुता नहीं। यदि शत्रु भी कोई हैं तो वे विभाव हैं, राग—द्वेष हैं। यह स्वयं को जीतने का दर्शन है। यदि आप अपने कल्याण के पक्षधर हैं तो बने रहें; कहीं कोई आपत्ति नहीं, किन्तु ध्यान रहे दूसरों का अहित आपसे न हो; इस बात का ख्याल रहे। यह अन्त:बाह्य स्वरूप में एकत्व चाहता है। वरना तो स्थिति यह है कि— बड़ी भूल की चित्रों को व्यक्तित्व समझ बैठे। अब मे मूल विषय पर अपना ध्यान आकृष्ट करना चाहूँगा ! यह विषय है ... एक मंथन का समय है जैन समाज के लिए ... यह विषय ओर इस पर मुझे लिखने को मेरे मन ने क्यू कहा ?
स्पष्ट है वर्तमान की परिस्थिति को देखते हुए मेरे अन्तर्मन मे एक जिज्ञासा उत्त्पन हुई हमारा समाज समृद्ध होते हुए क्यू दिशाहीन हो रहा है! एक कटु सत्य कहु जैन समाज ने सदेव अपने अपने पंथो व संप्रदाय को महत्व देते हुए हमेशा अपना अपना राग अलापा है ! कभी कभी दर्द होता है एक संप्रदाय के होते हुए भी अपने अपने आचार्यो के बखान करने के लिए दूसरे आचार्यो व साधू संतों को नीचा दिखाने के लिए न जाने किस तरह के आक्षेप लगाए है ओर एक ऐसा माहोल बनाया की उसमे बदनाम हुआ तो पूरा जैन समाज ! आपको एक बात साफ कर दु मे श्वेतांबर संप्रदाय के तेरापंथ धर्मसंघ से जुड़ा हु ! तेरापंथ धर्मसंघ आचार्य भिक्षु के समय से अस्तित्व मे आया मगर आचार्य भिक्षु ने शायद 258 वर्ष की स्थापना का उदेश्य साधारण था ! कुछ वेचारिक मतभेद इस विषय पर मे ज्यादा चर्चा नही करूंगा ! मगर आज जैन समाज के सभी संप्रदाय व घटको को देखा जाए तो सिर्फ श्वेतांबर तेरापंथ धर्म संघ ही एक ऐसा संघ है जंहा एक आचार्य होते है ... ओर उस धर्म संघ का एक ही घोष है एक गुरु एक विधान ... मे तेरापंथी हु इसका अर्थ यह नही की मेे अपने धर्मसंघ का बखान कर रहा हु मगर एक विचारणीय व मननीय विषय है की क्यू आज हर साधू संत जिसके संघ मे साधू संतों की संख्या इक्का दुक्का हो आचार्य पद पर सुशोभित होकर अपनी अपनी अलग अलग विचारधारा को जन्म देते है मेरा अभिप्राय उन संतों व आचार्यो का अपमान करना नही है मगर जब संतों ने सर्वश्व त्याग कर संयम धर्म को अपना लिया तो क्यू पद व मान मर्यादा के लिए अपने अपने राग अलापते है ! खेर इस विषय पर ज्यादा लिखना मेरे लिए हितकर नही होगा मगर हम जैन धर्म के श्रावक के लिए समय है हमे मंथन करना होगा ! हम श्रावक सबसे बड़े दोषी है हम अपने गुरु व साधू संतों की चर्या मे जो दोष लग रहा है ! हम क्यू नही अपने गुरु व साधू संतों के जिन चर्या जो धरम के सिदान्तो के अनुरूप नही है उन्हे उन चर्या को करने से रोकते है ! कारण स्पष्ट है हम अपने धर्म गुरु के मुखारवृन्द से अपने तारीफ सुनने के आदि हो चुके है ! जिससे हमे गर्व हो ओर समाज मे मान सन्मान मिले .... मगर मे एक साधारण सा पत्रकार व लेखक आपके विचारो की आलोचना करता हु ! आपने स्वयं के हित के लिए समाज की मान मर्यादा को दाव पर लगा दिया है ! हम जैन है ओर भगवान महावीर के बताए मार्ग का अनुसरण करना है तो गुरु , साधू , संत , आचार्यो का सन्मान करते हुए उनके अच्छे कार्यो मे सहमति दे ओर हमे लगे की हमारे साधू संत आचार्य हमे अपने निजी स्वार्थ के कारण भ्रमित कर रहे है तो विरोध करे ! तो न सूरत मे आचार्य शांति सागर जी पर जेसे आरोप लगे इस तरह के आरोपो का हमे सामना करना पड़ेगा न ही हमारे सम्पूर्ण जैन समाज की बदनामी होगी ! हमे स्वयं संयमित जीवन जीते हुए साधू संतों को संयमित जीवन मे रहने की ओर प्रेरित करेंगे ! मेरे इन शब्दो से आपको जरूर कष्ट होगा की हम हमारे समाज मे संतों को संयमित रहने के लिए केसे प्रेरित करे मगर सच यही है साधू संतों की चर्या मे दोषी सबसे ज्यादा दोषी हमारा समाज , मे व आप ही है ! जो सिर्फ साधू संतों व आचार्यो की नजर मे बड़ा बनने के लिए उनकी चर्या मे दोषी बनते है .... आगे अगले अंक मे ....
आपका -
लेखक - उत्तम जैन ( विद्रोही )        

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