Monday, 14 June 2021

श्रुतपंचमी पर्व शास्त्र रक्षा का महापर्व है-- उत्तम जैन ( विद्रोही )

 

विद्रोही आवाज़ 

श्रुतपंचमी पर्व शास्त्र रक्षा का महापर्व है। जैन संप्रदाय द्वारा प्रतिवर्ष ज्येष्ठ मास में शुक्ल पक्ष की पंचमी को श्रुतपंचमी पर्व मनाया जाता है। श्रुत और ज्ञान की आराधना का यह महान पर्व हमें वीतरागी संतों की वाणी, आराधना और प्रभावना का सन्देश देता है। इस दिन श्री धवल, महाधवलादि ग्रंथों को विराजमान कर महामहोत्सव के साथ उनकी पूजा करना चाहिये। श्रुतपूजा के साथ सिद्धभक्ति का भी इस दिन पाठ करना चाहिये। शास्त्रों की देखभाल, उनकी जिल्द आदि बनवाना, शास्त्र भण्डार की सफाई आदि करना, इस तरह शास्त्रों की विनय करना चाहिये।


आचार्य धरसेन जी महाराज की प्रेरणा से मुनि पुष्पदंत महाराज एवं भूतबली महाराज ने लगभग 2000 वर्ष पूर्व गुजरात में गिरनार पर्वत की गुफाओं में ज्येष्ठ शुक्ल की पंचमी के दिन ही जैन धर्म के प्रथम ग्रन्थ 'षटखंडागम' की रचना पूर्ण की थी। यही कारण है कि वे इस ऐतिहासिक तिथि को 'श्रुतपंचमी पर्व' के रूप में मनाते हैं।

जैन धर्म ग्रंथ पर आधारित धर्म नहीं है। तीर्थकरकेवल उपदेश देते थे और उनके गणधरउसे सीखकर सभी को समझाते थे। उनके मुख से जो वाणी जन कल्याण के लिए निकलती थी, वह अत्यंत सरल एवं प्राकृत भाषा में ही होती थी, जो उस समय सामान्यत:बोली जाती थी। जैन धर्म में आगम को भगवान महावीर की द्वादशांगवाणी के रूप में प्रस्तुत किया गया है। श्रुत की परम्परा को मौखिक रूप से भगवान महावीर के मोक्ष जाने के बाद 500 वर्ष तक आचार्यो के द्वारा जीवित रखा गया। उनके अतिशय के कारण जो भी उसे सुनता था, उसे लगता था कि वह उसी की भाषा में कही गयी है और उसके हृदय को स्पर्श करती है। तीर्थकरभगवान महावीर ने ग्यारह गणधरोंअर्थात् श्रुतकेवलियों द्वारा इन्हें इसी गुरु परंपरा के आधार पर शिष्यों तक पहुंचाया।

आचार्यो की परम्परा में भगवान महावीर के 614वर्ष पश्चात माघनंदि के शिष्य आचार्य धरसेन पदासीन हुये। आचार्य धरसेन काठियावाड स्थित गिरिनगर (गिरनारपर्वत) की चन्द्रगुफा में रहते थे। धरसेन महाराज श्रुत के प्रति अत्यंग विनयशील तथा अंग परम्परा के अंतिम ज्ञाता थे। वे बड़े कुशल निमित्त ज्ञानी और मंत्रज्ञाता आचार्य थे। वे एक दिन विचार करने लगे कि जैन दर्शन और सिद्धान्त का जो ज्ञान अभी तक अर्जित कर पाया हूं वह मेरी जिह्वा तक सीमित है, भविष्य में जब मेरी समाधि हो जाएगी तो सम्पूर्ण ज्ञान भी विलुप्त हो जाएगा, अत:उन्होंने दक्षिणा पथ की महिमा नगरी के मुनि सम्मेलन को श्रुत रक्षा सम्बंधी पत्र लिखा। उनके पत्र की व्यथा से पूज्य अर्हदबलिवात्सल्य से द्रवीभूत हो गए और उन्होंने अपने संघ के युवा तथा विद्वान मुनिद्वयश्री पुष्पदंतजी एवं श्री भूतबलिजी को गिरनारपहुंच कर ग्रन्थ लेखन की आज्ञा दे दी। फलत:दोनों परम प्रतापी मुनिराजगिरनार-पर्वतकी ओर विहार कर गए। जब वे दो मुनि गिरनारकी ओर आ रहे थे, तब यहां श्री धरसेनाचार्यऐसा शुभ स्वप्न देखा कि दो श्वेत वृषभ आकर उनकी विनय पूर्वक वन्दना कर रहे हैं। आचार्य श्री महान प्रज्ञाश्रमणथे वे स्वप्न का अर्थ समझ गए कि दो योग्य मुनि दक्षिण से मेरी ओर आ रहे हैं। उन्हें अपार हर्ष हुआ, उन्हें विश्वास हो गया कि अब श्रुत लेखन का कार्य सम्भव हो सकेगा, अत:खुशी के वेग में उनके मुख से अनायास ही “जयदु सुय देवदा” अर्थात् श्रुत/जिनवाणी की जय हो ऐसे आशीर्वादात्मक वचन निकल पडे। । दूसरे दिन दोनों मुनिवर वहां आ पहुंचे और विनय पूर्वक उन्होंने आचार्य के चरणों में वन्दना की। दो दिन पश्चात श्री धरसेनाचार्यने विद्यामंत्रदेकर उनकी परीक्षा की। एक को अधिकाक्षरीऔर दूसरे को हीनाक्षरीमंत्र बताकर उनसे उन्हें षप्ठोपवाससे सिद्ध करने को कहा। जब मंत्र सिद्ध हुआ तो एक के समक्ष दीर्घ दन्त वाली और दूसरे के समक्ष एकाक्षीचेहरे वाली देवी प्रकट हुई। उन्हें देखते ही मुनियों ने समझ लिया कि आचार्य श्री द्वारा मंत्र लेखन में सोच समझ कर कोई त्रुटि की गई है। उन्होंने पुन:मंत्रों को सिद्ध किया। जिससे देवियां अपने स्वाभाविक सौम्य रूप में प्रकट हुई।


आचार्य श्री को उनकी सुपात्रतापर विश्वास हो गया। अत:उन्हें अपना शिष्य बनाकर उन्हें सैद्धान्तिक देशना दी। यह श्रुत अभ्यास आषाढ शुक्ला एकादशी को समाप्त हुआ। आचार्य भूतबलिऔर आचार्य पुष्पदन्तने धरसेनाचार्यकी सैद्धान्तिक देशना को श्रुत ज्ञान द्वारा स्मरण कर, उसे षटखण्डागम नामक महान जैन परमागमके रूप में रचकर, ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी के दिन प्रस्तुत किया। इस शुभ अवसर पर अनेक देवी देवताओं ने तीर्थकरोंकी द्वादशांगवाणीके अंतर्गत महामंत्र णमोकारसे युक्त जैन परमागम षटखण्डागम की पूजा की तथा सबसे बडी विशेषता यह रही कि इस दिन से श्रुत परंपरा को लिपिबद्ध परम्परा के रूप में प्रारम्भ किया गया। अत:यह दिवस शास्त्र उन्नयन के अंतर्गत श्रुतपंचमी के नाम से प्रसिद्ध हुआ। दूसरे रूप में इसे शास्त्र दिवस के भी नाम से भी संबोधित किया।

जैन धर्म में आज सबसे ज्यादा महत्त्व माँ जिनवाणी का है| आज हमे जो कुछ ज्ञान हैं वो सब जिनवाणी के कारण है| मां बच्चे को सुलाने के लिए लोरी सुनाती है पर जिनवाणी मां हमें जगाती हैं और संसार रूप भवसागर से पार करना सिखाती हैं। माँ जिनवाणी की जय ।